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तेरे मेरे विकल्प

तेरे मेरे विकल्प

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मेरा एक दोस्त रूपेश, अपनी बी.ए. की पढ़ाई पूरी करके आगे पढ़ने के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने आया था। उस समय उसकी भगवान में आस्था नहीं थी। उसका एम.ए. पॉलीटिकल साइंस में दाखिला हो गया था। सामाजिक चेतना उसके रोम-रोम में बसी थी। उसकी चाहत थी सामाजिक परिवर्तन जिसका आधार उसके अनुसार सामाजिक क्रांति ही था।

सामाजिक क्रांति तो आप समझ ही गए होंगे। वो हर चीज के होने का या ना होने का भी, कोई ना कोई कारण ढूंढ ही लेता था। एक वक्त तो वह इस हद तक चला गया कि उसको अपने अति संवेदनशील मानवीय भावनाएं व इच्छाओं का भी कारण बायोलॉजिकल लगने लगा। वो कहता, तुम्हारी और मेरी इच्छा एक जैसी नहीं है, क्योंकि तुम्हारा और मेरा डी.एन.ए. एक जैसा नहीं। उसे लगता उसका होना भी एक क्रिया का फल है। उसके मां-बाप ने अपने सेक्सुअल अर्ज को सेटिस्फाई किया और वो हो गया, उन्हें तो पता नहीं था ना कि वो जन्मेगा। अगर उस समय भी देश के अति पिछड़े समाज में सामाजिक चेतना एवं गर्भ निरोधक साधनों का सरकार द्वारा प्रचार किया जाता और उनका प्रसारण होता तो शायद, वो भी 7-8, भाई बहन ना होते।

देखते ही देखते रुपेश का राजनीतिक लोगों से संपर्क बढ़ने लगा। छोटी-छोटी बातों को लेकर विश्वविद्यालय स्तर पर डिमांड की वह अग्रसर रूप से पैरवी करने लगा। फिर प्रदर्शन और धरने तक वह जा पहुंचा। उसकी प्रखर वाक्य शैली एवं शब्दों का उच्चारण सुनने वालों को मंत्र मुग्ध कर जाता। कभी-कभी वह बोलता.... मैं आप हूं, मैं आप, आप और आप हूँ।

हर सुनने वाले को लगता वो भी रुपेश है, जो स्टेज पर खड़ा वक्ता है। देखते ही देखते छोटी-छोटी भीड़ मिलकर एक संगठन बन गई। उस संगठन के शिखर पर थे रुपेश। और एक दिन रुपेश बोला, तुम मुझे सांस दो ----मैं तुम्हे तुम्हारे स्वाभिमान तक जाने का रास्ता दूँगा दूंगा।

इसी बीच लिंग भेद से ऊपर उठती कई सहपाठियाँ भी इस संगठन का हिस्सा बनने लगी। उनमें से एक थी समेली। वह देखने में बहुत सुंदर थी। गोरा रंग और तीखे नक्श की थी। उसकी पलकें घनी नहीं थी। उसकी भोहें गहरे भूरे रंग की थी, जो आंख के किनारे पर आकर एक तीर से बन जाती थी। उसकी भोहों के बीच में नाक के ऊपर कोई बाल नहीं थे और वहां छोटी सी बिंदी उसकी आंखों की सुंदरता को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों को अर्थ हीन कर देती थी।

मैंने देखा था समेली जब मंत्र मुग्ध सी रूपेश को निहारती थी। रूपेश जब कहता आप ...तो उसके माथे की लकीरें सिकुड़ जाती और बन जाती एक आकृति जैसे कोई म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट, वायलिन या गिटार हो। उसकी मुस्कुराहट अगर आप भी उस वक्त देखते.... तो मंत्र मुग्ध हो जाते। ऐसा लगता था हवाओं में कोई संगीत चल गया हो। कई निगाहें इस खूबसूरती को निहारती और अपने अपने ख्वाबों में खो जाती। समेली वहां हो कर भी वहां नहीं होती थी। वो तो रूपेश में मन से विलीन हो जाती। हवाएं उसकी सांसों को रूपेश तक ले जाती, जैसे वह उसकी ही हो।

रूपेश बॉयज हॉस्टल में रहता था। ग्राउंड फ्लोर पर उसका एक कमरा था। समेली भी विश्वविद्यालय के गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी। वातावरण प्रगतिशील था, दिनभर रूपेश और संगठन के दूसरे कार्यकर्ता जिसमें समेली भी होती कार्ल मार्क्स और लेनिन के सिद्धांतों पर चर्चा करते रहते। शाम होते-होते बीड़ी और सिगरेट के बंडल खाली होने लगते।

शारीरिक व मानसिक थकावट दूर करने के लिए कोई चाय-कॉफी पीता, तो कोई चारमीनार के सिगरेट भरकर अपने को हल्का करता। रुपेश ने अपने कंधों पर किताबों से भरा, लंबी तनी का एक थैला, जिसकी चौड़ी पट्टी होती थी डालता था और जाते वक़्त बड़े जोश से कहता अच्छा चलते हैं, कल मिलते हैं।

अरे रुको.... रुको… समेली के मुंह से आवाज सुन रूपेश ऐसे रुक जाता जैसे वह कोई इंसान नहीं वो एक स्टेचू हो। वक्त की सुइयां तो आगे चलती पर आप जानते हैं, पत्थरों पर ज्यादा असर नहीं होता और उन्हें लगता है कि वक्त रुका हुआ है। हां, पत्थरों को भी वक्त का एहसास भूकंप के समय ही होता है। रूपेश की जिंदगी में भी समेली एक बरसाती नदी की तरह आई थी। उसके जीवन में भूकंप आ गया था। आप तो जानते ही हैं भूकंप में कैसे सब कुछ हिल जाता है, क्या टूटेगा यह तो भूकंप की गति पर निर्भर होगा। उस समय रूपेश को ना तो इस भूकंप का पता चला और ना ही उस नदी में बहने का। वो बस समेली के प्यार में डूब चुका था। समेली के आह्वान पर वह उसके पास आने का इंतजार करने लगा।

समेली तेज़ कदमों से रूपेश के पास आई और उसके बाएं कंधे को अपने हाथों की पकड़ में कस लिया। बड़ी आत्मीयता से रुपेश बोला ...क्या हुआ समेली...? व्हाट हैपेंड....

समेली ....कुछ नहीं.।

बताओ ना......रुपेश के स्वर में घबराहट सी थी।

आए एम इन लव विद यू ! मैं तुमसे प्यार करने लगी हूं ! मुझे तुमसे प्यार हो गया है !

देखो समेली ऐसा नहीं कि मुझे तुमसे प्यार नहीं हुआ .. । जरा समझो मेरे रास्ते अलग है। मैं अलग सोच का आदमी हूँ. मेरे बस में उस रेगुलर तरीके की घर गृहस्थी चलाना नहीं है।

ठीक है..... कोई बात नहीं…. ।

बड़ी उत्सुकता से समेली कह रही थी…. मैं तुम्हारे साथ हूं। तुमने कहा था ना तुम मुझे सांस दो .... मैं तुम्हें स्वाभिमान दूंगा। मुझे इस से ज़्यादा कुछ चाहिए भी नहीं। तुम्हारे साथ हूं। मैं तुम्हारी साँस बनूंगी। मैं तुम्हारे साथ जिऊंगी, साथ मरूंगी। मुझे तुम्हारे बिना… तुमसे.. कुछ भी नहीं चाहिए। तुम मेरे साँसों की ऊर्जा से जियो डू यू रियली मीन व्हाट यू आर सेइंग। तुम्हे पता है , तुम क्या कह रही हो ...!

व्हाई र यु इन डाउट ? तुम्हें शक है क्या .... इतने हैरान क्यों हो रहे हो ...?

और ये कहते- कहते, समेली की बाहें रूपेश की गर्दन का हार बन गई। उसके होंठ रूपेश के होठों से सट गए और एक दूसरे के बन गए। इतने में शाम हो गई और दोनों साथ-साथ चल निकले। चलते-चलते समेली के चेहरे का दायां हिस्सा रूपेश के कंधे से सट्टा था और उसके मुंह से निकले यह शब्द .. मैं हमेशा तुम्हारे पास और साथ रहूंगी। तुम्हें छोड़कर कभी नहीं जाऊंगी। आई जस्ट वांट टू बी विद यू एंड यू ओनली। आई जस्ट वांट यू एंड यू ओनली।

यह सुनते ही रूपेश की उंगलियां समेली की आंखों के नीचे से उसके आंसुओं को पोंछती, उसके बालों को सहलाती और रुपेश ने समेली को अपने सीने से लगा लिया था। मैंने देखा था, उस समय भी रुपेश की आंखों में नमी थी। मैं समझा नहीं था, यह नमी.. प्यार से जन्मी है या किसी अनजाने डर से।

बहुत दिन बाद जब रूपेश से मुलाकात हुई तो उसकी बॉडी लैंग्वेज पूरी तरह से बदली हुई थी। वह बहुत खुश नजर आ रहा था। मेरे मन में तो आया पूंछू, क्यों भाई प्रेम का रंग तुम पर भी छा गया पर मेरे पूछने से पहले ही वह बोला आओ ना पंडित घर चलते हैं।

मैंने पूछा कहां रहते हो.....

यही पास में.... ! आई एम स्टेइंग इन ए रेंटेड हाउस

क्या भोगल साइड में…..

ओआईसी वह अपना सुब्रतो दोस्त था ना, उसके चाचा का मकान है। मैंने किराए पर ले रखा है।

बात करते करते हम दोनों घर पहुंच गए और दरवाजे पर लगी घंटी का बटन दबाता इससे पहले ही दरवाजा बाहर की और खुला और उसके पट रूपेश के माथे पर लगे।

आई एम सो सॉरी ...समेली की आवाज सुनाई दी।

रूपेश बोला... यह मेरा दोस्त है, पंडित बुलाते हैं हम इसे, … यू नो ही इज माय फ्रेंड पंडित।

बड़ी मधुर सी आवाज में समेली बोली नमस्कार… भाई साहब।

मैंने कहा नमस्कार भाभी जी…..

रूपेश….. लगा तो नहीं दरवाज़ा …. नहीं…. कोई बात नहीं,

तुम दरवाज़े के इतने पास क्यों खड़े थे ! मैं तो ऐसी ही नीचे आ रही थी, तुम्हारी बेल् पर भी अगर आती तो भी दरवाज़ा तो बाहर ही खुलता, तुम को चोट लग सकती थी रुपेश के चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था, हटो अब, उपर जाने दो, या सारी क्लास यहीं लगेगी, यह कहते रुपेश तेज़ी से सीढ़ी चढ़ने लगा इतने में समेली ने कुछ तेज़ सी इंग्लिश में बोला और रुपेश कहने लगा.. क्या कह रही हो ..., कह दिया न यार, हो गया जो होना था।

मुझ से रहा नहीं गया, मैंने पूछ लिया, क्या आस्तिक हो गए हो अब।

रुपेश का जवाब सुन मैं बहुत हैरान था….

रुपेश मेरी आँखों में देख बोल रहा था…. समेली कहती है, जो हो चूका उसे और उसके कारन ढूंढ़ने का कोई फ़ायदा नहीं जो होगा वह पता नहीं,

इस लिए जो है… वो यही पल है, यह ही शाश्वत सत्य है।

और मैं भी यह मानता हूँ। क्या ऐसा सोचना और होना आस्तिक हो जाना होता है भाई ?

मैं हैरान था, रुपेश के शब्द और उनका उच्चारण का तरीका अभी भी वही पुराना था, पर वक़्त ने उसके कारण ढूँढ़ने का तरीका बदल दिया था .... । वक़्त सही शाश्वत सत्य है।


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