पुराना कैनवास
पुराना कैनवास
भारती अब तो शादी कर ले एक एक कर सभी बहनें विदा हो गई।
भारती अपना बैग उठा कर अनमनी सी बोली- स्नेहा चल देर हो रही है बस निकल जायेगी।
भारती सुनो ! तुम मेरी बात को आजकल अनसुना कर देती हो। भारती, सुना नहीं क्या ? तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया।
स्नेहा तुम तो सब कुछ जानती हो फिर भी पूछ रही हो मेरे लिए, अब इस उम्र में शादी करना असंभव है।
भाई की शादी करनी है। साथ ही माँ की देखभाल का जिम्मा भी है।
निभाती रहो जिम्मेदारी तुम, मैं कब मना कर रही हूँ, मैं तो बस याद दिला रही थी। तुम्हारी सब बहनें तो जिम्मेदारी से बच कर निकल गई और अपनी अपनी गृहस्थी बसा ली। तुम्हारे लिए किसी ने नहीं सोचा।
स्नेहा, शायद भगवान की यही मर्जी है।
भारती, तुम्हारी भी तो कुछ मर्जी है जिसे तुम शायद इग्नोर कर रही हो। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है, चाहो तो सब संभव हो जायेगा। मेरी बात मानो वरना पछताओगी जीवन संध्या में, किसी के पास वक्त नहीं होगा जो तुम्हारा ख्याल रखे। पति-पत्नी ही एक-दूसरे के पूरक होते हैं। मेरी मान, संजीव जी को हाँ करदे, भाई की शादी करले, उसके बाद अपनी। संजीव जी भी परिस्थिति वश अभी तक कुआरे हैं, तुम कहो तो मैं मिटिंग फिक्स करूँ।
स्नेहा, जीवन से सारे रंग उड़ गए। तुम पुराने कैनवास पर नया रंग भरना चाहती हो।
जी हां ! शुभस्त शीघ्रम।
स्नेहा, जैसी तुम्हारी मर्जी, भारती तो तुम्हारी बात अब और टाल नहीं सकती। स्नेहा तुम ना ... पीछे ही पड़ जाती हो।
स्नेहा ने कंधों को उचकाया- आखिर सहेली किसकी हूंँ। भारती, अभी तक तुमने जमीन को बंजर बना लिया था। अब इसमें कोंपले फूटेंगी।
भारती के दिल में एक नई आशा के अंकुर ने जन्म ले लिया। बस का हार्न बजा तो दोनों मुस्कुराते हुए बस में सवार हो गई।