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परित्‍याग

परित्‍याग

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मिर्जापुर के एक बड़े कस्‍बे की कुछ पुरानी बात है। वहाँ के नीरज राय के इकलौते पुत्र विंध्‍याचल राय सारनाथ में सरकारी महकमे में इंजीनियर थे। नीरज राय उच्‍च विचार के सदाचारी पुरुष थे। वह एक रिटायर्ड फौजी अफसर थे। बहुत ही नीतिज्ञ और उदार भी थे।

उनके बेटे विंध्‍याचल राय का विवाह बनारस के रहने वाले गिरधर राय की बड़ी पुत्री कामना के साथ बड़ी धूमधाम से हुआ। वह बहुत सुंदर थी। उसके नाक-नक्श का कोई मिसाल ही न था। वह एक हँसमुख और मनचली थी। पत्‍नी धर्म का उसे अभी तक कोई ज्ञान न था। उसकी नजरों में आंतरिक सुख से अधिक भौतिक सुख का महत्‍व था।

कामना का रुप, रंग ऐसा कि उसे एक बार देखने वाला आहें भरता ही रह जाए। इंजीनियर साहब का जीवन बहुत ही व्‍यस्‍तता भरा था। रोज जल्‍दी घर से निकल जाना और देर रात वापस आना यही उनकी दिनचर्या थी। इसलिए कामना से शादी के बाद विंध्‍याचल राय अपनी नई नवेली पत्‍नी कामना के साथ सरकारी आवास लेकर अपने माता-पिता सलाह से उनसे अलग सारनाथ में ही रहने लगे। वहाँ उनकी जान-पहचान के और भी कई अफसर रहते थे।

विंध्‍याचल राय के पास इतना भी समय न था कि पास में ही स्‍थित डेरीबूथ से दूध खरीदकर ले आते। अतएव उन्‍होंने कालोनी में दूध बेचने वाले एक दूधिया दूधनाथ से बातचीत करके अपने घर पर रोजाना दूध देने के लिए कह दिया। इसके बाद ग्‍वाला दूधनाथ अपने और ग्राहकों के साथ-साथ उनके यहाँ भी नियमित रूप से सुबह दूध पहुँचाने लगा।

कामना की तरह दूधनाथ भी बड़ा मनचला और दिलफेंक इंसान था। उसकी कद-काठी एकदम गठीली ओर बदन पहलवानों की भाँति कसी हुई थी। उसका रूप-रंग तो गेहुँआ लेकिन, छवि गजब की खूबसूरत थी। उसे देखते ही रूपसी स्‍त्रियाँ भी दिल दे बैठती। यही कारण था कि वह दूध तो अपने घर का पीता था पर, घी कहीं और दान दे आता था। यह उसकी आदत थी। अपनी इस आदत के चलते वह मनचली औरतों के बीच गोपीरमण के नाम से जाना जाता था।

सब्‍जी वगैरह इंजीनियर साहब दफ्‍तर से लौटते समय खुद ही खरीदकर लाते थे। शुरुआत में कुछ दिन तक उनके गृहस्‍थी की गाड़ी बढ़िया तरीके से चलती रही। नववधू को न तो इंजीनियर साहब की किसी कमजोरी का पता चला और न ही इंजीनियर साहब को अपनी अर्धांगिनी का। नवदंपति दो-चार महीने तक एक-दूसरे से अनजान होते ही हैं इंजीनियर दंपति भी आपस में बिल्‍कुल अनभिज्ञ थे। एक-दूसरे को पहचानने को साल-दो साल का समय भी काफी कम होता है। कभी-कभी यह समय भी बहुत अल्‍प महसूस होता है।

पति-पत्‍नी के जीवन की गाड़ी एक-दूसरे के विश्‍वास पर ही टिकी होती है। अगर, उसका एक पहिया पटरी से उतर जाए तो गृहस्‍थी की गाड़ी चलाना बहुत ही मुश्‍किल हो जाता है। एक-दूसरे के प्रति मन में अविश्‍वास उत्‍पन्‍न होते ही पति-पत्‍नी के मधुर रिश्‍तों में दरार आने लगती है। आपस में खटास बढ़ने से समरसता नष्‍ट हो जाती है।

आपसी रिश्‍ते में दरार पड़ते ही उनके बीच स्‍थित प्रेम की नींव धीरे-धीरे दरकने लगती है। इससे उनकी सुखमय जिंदगी नर्क बनकर रह जाती है। उनका सुख-चैन देखते ही देखते एकदम तहस-नहस हो जाता है। उनके जीवन में पतझड़ जैसी वीरानगी छा जाती है। आपस में एक-दूसरे भरोसा उठते ही बसा-बसाया घर पलभर में ही उजड़ जाता है।

गोपीरमण ने जबसे कामना को देखा वह अन्‍य सभी ललनाओं को एकदम भूल गया। वह मन ही मन कामना से मिलने की कामना करने लगा। वह उसे इतना चाहने लगा कि दिन-रात उसी की याद में रहने लगा। हरदम मृगतृष्‍णा से व्‍याकुल रहने लगा।

आहिस्‍ता-आहिस्‍ता कामना भी दिनोंदिन उसकी ओर आकर्षित होती चली गई। पलपल उसकी प्‍यास बढ़ती गई। प्रतिदिन गोपीरमण को अपने घर आते-जाते रहने से शनैः-शनैः कामना भी उसकी ओर कदम बढा़ने लगी। वह धर्म-अधर्म का फर्क भूलकर उसकी ओर खिंचती चली गई। अपनी प्‍यास बुझाने की खातिर वह बेचैन रहने लगी।

गोपीरमण को अपने हृदय में समाते ही वह पतिदेव की ओर रुख कम करने लगी। उसने उनका ध्‍यान रखना त्‍याग दिया। वह उनसे मुँह मोड़ने लगी। उसके हृदय पटल पर गोपीरमण का राज कायम होते ही वह विंध्‍याचल राय को भूलने सी लगी। मगर, राय साहब अब भी इस मामले को समझने में असमर्थ थे।

गोपीरमण से आँखें चार होते ही वह दिन-प्रतिदिन अपने पतिदेव से दूर होती चली गई। वह गोपीरमण की बड़ी कद्र करने लगी। तदंतर दोनों आपस में आँख-मिचौली का खेल खेलने लगे। अंततः गोपीरमण और कामना छिप-छिपकर कभी-कभार आपस में मिलने लगे। जब वे आपस में मिलते तो घंटों बतियाते रहते। यह देखकर राय साहब के पड़ोसी कामना और गोपीरमण को शक की निगाह से देखने लगे।

आखिर, एक दिन उनके संदेह की हद ही हो गई। जब सब लोग एकदम आजिज आ गए तो विंध्‍याचल बाबू से शिकायत करने का मन बना लिया। उनके एक पड़ोसी जुगालीराम ने एक रोज दफ्‍तर जाते समय रास्‍ते में उन्‍हें टोकते हुए कहा- महोदय ! क्षमा कीजिए। वैसे तो मेरा कोई हक नहीं है फिर भी पूछ रहा हूँ। कृपया, यह बताइए कि आप नौकरी कहाँ करते हैं ?

यह सुनकर बाबू विंध्‍याचल राय को बहुत बुरा लगा। वह मारे गुस्‍से के आँखें तरेरते हुए उससे बोले- क्‍यों भई ! तुम कौन हो मेरे काम-धंधे के बारे में पूछने वाले ? तुम्‍हारा मकसद क्‍या है।

यह सुनते ही जुगालीराम ने कहा- ठीक है बाबू साहब अगर, आप नहीं बताना चाहते तो मत बताइए। मैं तो आपके फायदे के लिए ही पूछ रहा था। खैर, छोड़िए जाने दीजिए इन बातों को आप बेखटके अपनी ड्‌यूटी पर जाइए।

इतना सुनते ही इंजीनियर साहब बोले- अरे नहीं भाई ! ऐसी कोई बात नहीं। आप मुझे गलत समझ रहे हैं। मेरा कहने का मतलब तो केवल यह था कि जब मैं आपको नहीं जानता तब आप मुझे भला कैसे जानते हैं। मजाक न कीजिए बल्‍कि, जो भी बात है खुलकर सच-सच बता दीजिए। मैं आपका बड़ा अहसान मानूँगा। दरअसल बात यह है कि मैं एक सरकारी इंजीनियर हूँ। अब बताइए आपको क्‍या कहना है ?

यह सुनकर जुगालीराम ने बिल्‍कुल बेधड़क कहा- अच्‍छा ! तो आप एक हाकिम हैं, लेकिन साहब, आपके साथ बड़ा अनर्थ हो रहा है। आप जैसे इंसान के साथ यह उचित नहीं है।

यह सुनना था कि इंजीनियर साहब का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह जुगालीराम को डराने की गरज से शेर की भाँति दहाड़ते हुए बोले- अजी भइया ! आखिर, कहना क्‍या चाहते हो तुम ? मुझे इस प्रकार पहेलियाँ मत बुझाओ। जो कुछ भी कहना है बिल्‍कुल साफ-साफ कहो। सच बताओ, मेरे साथ क्‍या अनर्थ हो रहा है।

तब जुगालीराम ने कहा- हुजूर ! गुस्‍ताखी माफ कीजिए। वास्‍तव में बात यह है कि लगता है आपकी धर्मपत्‍नी जी की नीयत में आपके प्रति खोट आ चुका है। वह निहायत ही बदचलन किस्‍म की मालूम होती हैं। देखिए ! आप नाराज मत होइए।

हम सब उनकी इस हरकत से काफी परेशान हैं। शुरु-शुरु में वह दूधिया दूधनाथ सबकी तरह आपके घर पर भी दूध देने के बाद चुपचाप तुरंत वापस चला जाता था परंतु, अब पूरी कालोनी में दूध पहुँचाने के पश्‍चात घंटे दो-दो घंटे वह आपके घर के अंदर ही पड़ा रहता है। आप इसे मात्र मेरे कहने से न मान लीजिए बल्‍कि, इसकी परीक्षा कर लीजिए। उसके बाद कोई निर्णय कीजिए। जल्‍दबाजी में फैसला लेना नुकसानदायक साबित हो सकता है। पहले भली भाँति अपने स्‍तर से जाँच-पड़ताल कर लीजिए उसके बाद मेरी बात पर विश्‍वास कीजिए।

इतना सुनते ही विंध्‍याचल बाबू के होशो-हवास ही उड़ गए। उनकी साँसें जोर-जोर से चलने लगीं। हालत यहाँ तक हो गई मानों उनका दम ही घुट जाएगा। घर की इज्‍जत नीलाम होने की बात सुनकर उनके कलेजे में उथल-पुथल होने लगी। वह छटपटाकर रह गए। उनका कलेजा कचोट उठा। वह सोचने लगे क्‍या जमाना आ गया है। जब मेड़ ही खेत को खाने लगा है तब फिर उसे बचाएगा कौन ?

जुगालीराम का कथन सुनकर इंजीनियर साहब की हक्‍की-बक्‍की बंद हो गई। जब हमारे घर की मर्यादा स्‍वयं ही बर्बाद हो रही है तब इसमें किसी दूसरे का क्‍या दोष ?। क्‍या मेरे भाग्‍य में यही बदा था कि पत्‍नी को यहाँ ले आने पर मेरी आबरू सरे आम नीलामी की भेंट चढ़ जाएगी। क्‍या सोचा था और मुझे क्‍या मिला ? मन में यह ख्‍याल आते ही वह पहले से ज्‍यादा सजग हो गए। बिना समझे-बूझे ही उन्‍होंने कामना को टोकना जायज न समझा।

एक दिन की बात है इंजीनियर साहब रोजाना की तरह सुबह साढ़े सात बजे घर से आफिस के लिए निकले मगर, वह वहाँ न जाकर बीच रास्‍ते में कहीं रुक गए। उनके जाने के कुछ देर बाद ही दूधिया दूध बेचकर उनके घर आया और दूध के डिब्‍बे सहित अपनी साइकिल को उनके मकान के बाहर खड़ी कर दिया। तदंतर वह उनके घर के अंदर चला गया। वह वहाँ जाकर अभी ठीक से बैठा भी न था कि उसके पीछे-पीछे विंध्‍याचल बाबू भी दबे पाँव वहाँ जा धमके। शिकारी अंदर ही है इसका सबूत उसकी साइकिल और दूध का डिब्‍बा खुद ही दे रहे थे।

अंततः इंजीनियर साहब ने दरवाजे पर लगी कॉलबेल दबा दी। उसकी आवाज सुनकर गोपीरमण और कामना घबरा उठे। उनकी समझ में हरगिज न आ रहा था कि अब हम क्‍या करें ? इस अवसर पर नाहक ही कौन आ टपका। दरवाजा खुलने में विलंब होते देख विंध्‍याचल बाबू डोरबेल बार-बार बजाने लगे। इससे गोपीरमण और कामना हड़बड़ा उठे। उनका हृदय सशंकित हो उठा। दरवाजे पर कोई न कोई खतरा अवश्‍य है यह भाँपते ही कामना ने गोपीरमण को पलंग के नीचे भेज दिया। वह दम साधे साधे गुपचुप वहीं पड़ा रहा। मारे भय के उसका कलेजा थर्रा उठा। उसकी रूह काँपकर रह गई।

इंजीनियर साहब को अचानक घर वापस आते देख कामना ने पूछा- अजी ! क्‍या हुआ ? लौट कैसे आए। सब कुशल तो है न ? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है। कहीं आपकी तबीयत तो खराब नहीं हो गई।

तब विंध्‍याचल बाबू बोले- नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। सब कुछ बिल्‍कुल ठीक है। मैं तो आज यूँ ही वापस आ गया। कामना, एक काम करो दो कप अच्‍छी सी चाय बना लो। चोर की दाढ़ी में तिनका होता ही है किसी अनहोनी के भय से कामना भी भयभीत हो उठी। वह डरते-डरते जैसे-तैसे रसोई में गई और फौरन दो प्‍याली चाय बनाकर ले आई। उसे देखते ही राय साहब बोले, अरे भई ! चाय के साथ खाने को नमकीन और बिस्‍कुट आदि भी तो ले आओ।

कामना वापस गई और आनन फानन में बिस्‍कुट, नमकीन भी ले आई। अंततोगत्‍वा राय बाबू दूधिया से बोले- अजी भाई साहब, बाहर आ जाइए। आइए तनिक चाय-साय पी लीजिए। वहाँ पलंग के नीचे कब तक पड़ रहेंगे ? शर्माइए मत अब आ भी जाइए।

उनकी आवाज सुनकर गोपीरमण के हाथ-पैर फूल गए। वह इतने डर गए कि उसकी घिग्‍घी बँध गई। फिर रंगे हाथ पकड़े जाने पर वहाँ से उसका भागकर निकल जाना मुश्‍किल ही था। वह उनके हाथों से बचने की जुगत में माथा पच्‍ची करने लगा। अपना कोई वश न चलने पर वह यकायक पलंग के नीचे से निकलकर बाहर आ गया। मारे शर्म के उसकी गर्दन एकदम झुक चुकी थी। उसे अपनी करनी पर बड़ा अफसोस हो रहा था। उसके बाहर आते ही कामना के हाथों के ताते उड़ गए। वह बड़ी उलझन मैं पड़ गई। वह इतनी लज्‍जित हुई कि अपने पति-परमेश्‍वर से नजर मिलाने की जुर्रत भी न कर पा रही थी। मारे शर्म के वह पाँवों के अँगूठे से जमीन कुरेदने लगी। मानो वह धरती में ही धँस जाएगी। अपने किए पर उसे बड़ा पश्‍चाताप हुआ।

तब विंध्‍याचल बाबू फिर बोले- आपको इस तरह शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है। आप तो ठाट से पहले नाश्‍ता कीजिए और उसके बाद आराम से घर जाइए। हाँ, एक बात अवश्‍य है मैं अब इन श्रीमतीजी को अभी इनके मायके भेज रहा हूँ। मैंने आप दोनों का पक्‍का इंतजाम कर दिया है। आप वहँ जाकर इन्‍हें अपने घर ले आइएगा। यह आपको पसंद हैं और आप इन्‍हें भी बहुत चाहते हैं। यह अब मुझे पूर्णतया यकीन हो गया। अब तक मैं आप दोनों को कतई पहचान न सका था। आज मेरी आँखें खुल गईं।

इतना कहकर राय साहब ने अपने मोबाइल से फोन करके एक ट्रक और उसके ड्राइवर को अपने पास बुलवा लिया। कुछ ही क्षण बाद ट्रक वहाँ पहुँच गया। उसके पहुँचते ही उन्‍होंने शादी के समय दहेज रूप में ससुराल से मिला हुआ सारा सामान झटपट उसमें लदवा दिया। इसके बाद उन्‍होंने कामना को भी उसी ट्रक में बैठा दिया।

तत्‍पचात ट्रक ड्राइवर को एक पर्चा देते हुए बोले- भाई ! ऐसा करो यह सारा सामान इन देवीजी के माता या पिताजी को देकर पावती के रूप में इस पर उनसे दस्‍तखत करवा लेना। इसके बाद यहाँ लौटकर भाड़े के अपने पूरे पैसे ले जाना। मैं हमेशा के लिए इनका परित्‍याग करने जा रहा हूँ।

अंत में ट्रक ड्राइवर कामना और ट्रक पर लदे सामान को लेकर भर्राटे भरता हुआ बनारस की ओर रवाना हो गया। पीहर में पहुँचते कामना के माँ-बाप बड़े ताज्‍जुब्‍ब में पड़ गए। इससे पहले कि वे उससे कुछ पूछते तभी कामना के नेत्रों में भरे आँसुओं ने उनसे बहुत कुछ कह दिया।

वे समझ गए कि लगता है मामला वाकई बहुत गड़बड़ है। वरना विंध्‍याचल जैसा हमारा शिक्षित और होनहार दामाद इस प्रकार इसे यहाँ हरगिज न भेजता।

बाद में जब उन्‍होंने कामना की हरकतों के बारे में जानने की कोशिश की तो दूध का दूध और पानी का पानी सब एकदम अलग हो गया। उन्‍हें मालूम हुआ कि उनके कुशल जमाईं ने कामना को निष्‍ठुरतापूर्वक त्‍याग दिया है। अपनी शादीशुदा बेटी की प्रेम कहानी सुनकर उन्‍हें अपार कष्‍ट हुआ।

अपने जन्‍मदाता माता-पिता के जीते जी कामना पर कोई खास फर्क न पड़ा किन्‍तु उनकी मृत्‍यु के बाद भाइयों और भौजाइयों के स्‍वामित्‍व में उसे दर-बदर की ठोकरें खानी पड़ीं। यहाँ तक कि पेट की भूख मिटाने के लिए उसे लोगों की मेहनत-मजदूरी करने को विवश होना पड़ा। उसे ग्रामीणों के उपले तक थापने पड़े। इसे ही कहते हैं जैसी करनी वैसी भरनी।

कामना का परित्‍याग करके बाबू विंध्‍याचल ने दूसरा विवाह न करने की कसम खा ली। स्‍त्रीजाति पर से उनका भरोसा उठ गया। वह सोचने लगे औरत भी कितनी अजीब प्राणी है। यदि वह अपने विवेक और बुद्धि से काम न ले वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। वह स्‍वयं तो सुरक्षित रह सकती है लेकिन, दूसरा कोई उसकी रक्षा कतई नहीं कर सकता है। वह जो कुछ करने को ठान लेती है हर हाल में उसे कर डालती है। किसी के रोकने से वह कदापि नहीं रुकती है।।


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