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सुखदेव और वो मोमेंट !

सुखदेव और वो मोमेंट !

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“अरे साला कोई हमारा जैकेट मार दिया...” एक आदमी तेज़ी से चिल्लाने लगा| बौखलाया हुआ वो ट्रेन के डिब्बे में इधर-उधर, नीचे तो कभी ऊपर धमा चौकड़ी मचाने लगा| अक्सर हम ज़ोर से चिल्लाने को तेज़ी से चिल्लाना बोल देते हैं पर वो तेज़ी से ही चिल्ला रहा था| जल्दी जल्दी, हङबङ में बस उसके मुँह से ‘जैकेट’ और ‘मार दिया’ इतना ही समझ में आ रहा था| अक्सर ट्रेन में लोगों की रात जल्दी शुरू हो जाती है| रात के कोई १२ बज रहे होंगे, लोग नींद के दूसरे पड़ाव में थे और ये कोलाहल मचने लग गया था| उसने सबको उठा उठा के अपना खोया सामान ढूँढ़ना शुरू कर दिया था| लोगों के आँखों से नींद भी लूट ली गई थी और उसके लिए पूरी बोगी चोरों का अड्डा बन चुकी थी| वहीं कोने में एक अधेड़ पचास साठ के बीच की उम्र का आदमी, अपने पोते को गले लगाये दुबका सा सब देखने लगा था| उसने आँखे बंद कर ली थी और सबकी आँखे धीरे-धीरे उसकी ओर मुड़ने लगीं थीं|

उसका नाम सुखदेव था| वो उस जमाने से आया था जहां नाम रखने के लिए लोग गूगल नहीं शहीदों के नाम टटोलते थे| किताबें और अखबार ज्यादा थे| घर वालों के नाम पे ‘फादर या मदर डे’ नहीं होते थे, लोग दरअसल उनके पास रहते थे| वैलेंटाइन जैसे तमाम ‘डे’ भी नहीं होते थे बल्कि शहीद दिवस की तारीख पे दो शब्द हुआ करते थे| २३ मार्च को पैदा होने की वजह से उसके माँ बाप ने उसका नाम सुखदेव रख दिया| उसके सबसे बड़े भाई का नाम भी ‘रेट्रोस्पेक्टिवेली’ भगत रख दिया गया| बीच वाला भाई ‘राजगुरु’ रखे जाने से पहले ही हैजे का शिकार हो गया था| अब बचे थे सिर्फ भगत और सुखदेव यानी सुखी| बड़े भाई होने के नाते भगत पर ज़िम्मेदारी भी थी और वो ज़िम्मेदार भी था| सुखी उसकी छाया में ही दब गया| भगत पढ़ाई-लिखाई में जो भी करता वो अच्छा होता और उससे अच्छा करने का दबाव सुखी पे आ जाता| भगत ने प्रेम विवाह किया तो, एक को घर वालों का मन रखना होगा इसलिए अपना प्यार ठुकरा के, सुखी को बलई लोहार की लड़की से शादी करनी पड़ी| भगत सेना में भर्ती हो गया तो सबने गले लगा के मुंह मीठा किया| दावत रखी गयी और उसे छोड़ने ग्राम प्रधान भी गाड़ी से स्टेशन तक आये| जब तक सुखी का सेना में सिलेक्शन हुआ,तब तक ये आम बात में गिनी जाने लगी थी| वैसे उसे स्टेशन छोड़ने के लिए उसका साला रिक्शा लेके आया था|

दोनों के परिवार बसने लगे और पलने लगे| भगत परिवार का मुखिया होता गया और उसकी घरवाली की घर पे पकड़ मज़बूत होती गयी| सुखदेव की बीवी उसके जैसी ही दोयम दर्जे की हो के रह गयी| लोग तो अब मजाक में उसकी बीवी को दुखी कहने लग गए थे| भगत सेना में कश्मीर-नार्थ-ईस्ट की पोस्टिंग और लड़ाई में हिस्सा लेने के बाद सर उठा के चलने लगा| सुखी से सेना में सिर्फ घास कटवाने और खाना बनवाने का ही काम कराते रहे| भगत के बच्चे जब स्कूल जाने लगे तब २ बच्चों के बाद सुखी की बीवी अचानक गायब हो गयी| लोग कहते हैं कि वो पुराने आशिक के साथ भाग गयी थी और इज्जत बचाने के लिए घर वालों ने उसको पागल या गायब घोषित कर दिया था| कहते ये भी हैं कि, उसके जाने की एक वजह खुद सुखी और उसकी नपुंसकता थी| सेना से मुंह चुरा के एक रात वो चुपके से घर आया था और अपनी बीवी के ब्लाउज में हाथ डाल के सोने लगा| बीवी ने उसे फटकार लगायी| कहा जाता है तुलसीदास जी की पत्नी ने भी उन्हें अपने मायके से वैसे ही वापस जाने को कहा था| और, वे तुलसी से तुलसी दास बने थे| पर न वो औरत रत्नावली थी, न सुखी, तुलसी और न ये कोई कहानी| सुखी की पत्नी बस भाग गयी| उसके दो बच्चे सुखी की माँ पालने लगी और उसकी कमजोरी की वजह से दूसरी शादी का ख्याल भी टलता रहा|

इसी बीच भगत के सूबेदार बनने और फिर शहीद होने की खबर लगभग एक साथ आई| उसके परिवार को पैसा, सरकार से भगत पेट्रोल पम्प और सम्मान में कुछ रोड के नाम मिल गए| सुखदेव अपने दो बच्चों के साथ किनारे खड़ा होके ताली बजाता रहा| मर के भी भगत उसे पीछे छोड़ गया था| सेना से हर कोई सम्मान से ही वापस आयें ऐसा कोई रिवाज़ नहीं है| कुछ लोग सिर्फ लौट भी आते हैं| सुखदेव भी कुछ दिन में वी आर एस ले के आ गया, सेना से बिना कोई स्टार कोई सम्मान लिए| सेना कोटे से सुखदेव को नौकरी मिलती रही| घर से दूर होने और बच्चों के अकेले होने की वजह से अक्सर ही छूटती भी रही| उसे गाँव में बहुत अच्छा लगता था लेकिन अच्छे लग जाने भर से पेट नहीं पल जाते| उसके और भाई की तरह, उसके बच्चों और भाई के बच्चों में भी फर्क आने लगा| उसकी लड़की किसी कोचिंग पढ़ाने वाले के साथ दिल्ली जा बसी और शराबी लड़के ने पैसे के लालच में एक बच्चे की माँ एक मास्टरनी के घर में डेरा जमा लिया| सुखदेव अब अकेला रह गया| उसकी लड़की महीने में एक बार फोन करके दिल्ली कितना बढ़िया है ये बता देती| और, जब मास्टरनी की कहीं हफ्ते भर ड्यूटी लगती तो उसका शराबी बेटा अपने बच्चे को उसके पास छोड़ने आ जाता और फिर ठेके के पास किसी नाली मेंआज उस बच्चे को सुखदेव वापस उसकी माँ के पास छोड़ने जा रहा था| बच्चा स्वेटर पहने था और सुखदेव एक बीस साल पुरानी जर्सी पहने था| वो उसे आर्मी के दिनों में मिली थी और अब तमाम छेदों से भरी हुई थी| वो जर्सी इतनी बूढ़ी हो चुकी थी, सिल सिल के इतनी कमज़ोर पड़ गयी थी कि उसे फटकारने से भी सुखी को डर लगता था| कहीं बची खुची रुई का गट्ठा गुस्से में उससे निकल के उस जर्सी का अस्तित्व ही ख़त्म न कर दे| जब भी हवा चलती थी तो वो उसी तरह उसके बदन को झकझोर देती थी जैसे पुरानी सभी बदकिस्मतियां उसके मन को| एक एक्सप्रेस गाड़ी के ४ स्टेशन दूर उसे जाना था| एक्स-आर्मी वाला एक ‘पास’ उसके पास था जिसके सहारे वो किसी भी ट्रेन में चढ़ लेता था| उस बच्चे का टिकट अभी तक लेना वो ज़रट्रेन के एक स्लीपर डिब्बे में एक खाली जगह देखकर उसने बच्चे को लेटाया और खुद उसके बगल में वो सो गया| वो बच्चा उसका खून नहीं था| शायद उसका खून होता तो उसके शरीर से उसके बेटे के शराब सी गंध आती रहती| यही सोचते-सोचते वो सो गया| ट्रेन की नींद बिलकुल एक सपने जैसी होती है, जो होती है तो एक दम गहरी और असली लगती है और टूटते ही उड़ सी जाती है, जैसे कभी थी ही नहीं| वही हुआ, एक स्टेशन पे अचानक भीड़भाड़, गुत्थम गुत्थी होने लगी| उसने अंदाज़ा लगाया कि कोई बड़ा शहर रहा होगा| सुखदेव की नींद टूट गयी| तमाम चीज़ों की तरह ही वो बर्थ भी उसकी कभी थी ही नहीं, उसे अब वो खाली करनी थी| उसने देखा कि उसके पाँव तले एक नयी काली जैकेट रखी हुई है| बिलकुल वैसी ही जैसा भगत का लौंडा इस बार पहनके आया था| कोमल मगर गर्म, असलोगों का हुजूम जब थमने लगा तो उसने ये निष्कर्ष निकाला कि ये ज़रुर किसी की छूटी हुई जैकेट है| यात्री चला गया है और याद छोड़ गया है| उसकी बूढ़ी जर्सी से आवाज़ आई कि “अब रिटायरमेंट का वक़्त आ गया है| ये जो सामने पड़ा है वो भी तेरी नहीं बल्कि मेरी तकदीर का हिस्सा है| इसे उठा ले और मुझे आज़ाद कर दे”| उस भीषण सर्दी में जहाँ बदन नहीं, ठण्ड खुद कांपती है| जहाँ मांस नहीं, हवा खुद ठिठुरती है| वो जो आज तक अभागा, कायर, हीन और लाचार था|

आज उसे चोर बनना था| हमेशा वो गिरता था और लुट जाता था| ये ऐसा पहला पल था जहाँ उसे सिर्फ थोड़ा गिर के कुछ हासिल होने वाला था| सुखदेव का वो ‘वीक’ मोमेंट आ गया था, जब उसे थोडा साहस दिखाना था| जब तक टी.टी. आके उसे ये बताता कि उसका पास ‘एक्सपायर’ हो गया है और वो चौंकने की एक्टिंग करता कि ‘अरे बहुत दिन से चले नहीं तो पता नहीं था’, जब तक वो बोगी के उस दरवाज़े पे बैठता जहाँ लोग हगने मूतने के अलावा सीट के लिए टी.टी. का ईमान भी खरीदने आते हैं,तब तक वो जैकेट उस बच्चे के कपड़ों से भरे बेग के सबसे नीचे आज हुई कमाई की तरह बिछ चुकी थी| उसे बस एक स्टेशन तय करना था और उस बच्चे को एक तरफ अपने तन से भींच के और दूसरी ओर उस अकूत संपत्ति वाले बैग को रख, वो दरवाज़े से थोड़े ही समय बाद जैसे किसी को एहसास हुआ कि उसका कुछ खोया नहीं बल्कि चोरी हो गया है, बोगी में उठा पटक चालू हो गयी| एक दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराती वो शक और आरोप की गेंद उछलकर ज़मीन पर सोये पर अब तक अन्दर तक हिल चुके सुखदेव तक आ पँहुची| “ये साला चोरी भी ढंग से नहीं का सकता” कहीं तारों में बसे उसके माँ-बाप ने उसे कोसा होगा| ये आखिरी बोगी न रही होती, या ये बच्चा उसके साथ न होता तो शायद सुखी किसी और बोगी में निकल गया होता| अचानक उस लड़के ने जो सभ्य समाज का हिस्सा था और टैक्स चोरी को टैक्स बचाव मानता होगा, उसके बैग में लात मारी और ठीक ऊपर आ कर सीधा सवाल पूछा, “कहाँ छुपाया है बे?” ये वो आँखें थीं जो इलज़ाम लगा कर बेइज्जती की सजा हर गरीब को पहले देती हैं और टटोलती बाद में हैं| इस बार हालाँकि वो सही थीं| सुखी ने चोरी ज़रूर की थी लेकिन वो चोर नहीं था| वो बहुत कमज़ोर था| फिर भी, एक बेबस सा प्रयास उसने भी किया, “देख ल्यो बैग में मिल जाये तो”| उसका डर गलतियाँ करा रहा था और पिघल कर मुंह के रास्ते बाहर आ रहा था| बैग से जैकेट और सुखदेव के शरीर से कपडे लगभग एक साथ बाहर आ“ए ए ए...सारा सामान निकाल दिया|” चिल्लाते हुए वो सुखदेव का पोता बाकी फर्श पर पड़े बाकी सामान को बैग में डालने लगा|

हमारी एक ग़लती जैसे हमारे सारे बाकी गुणों और अच्छाइयों को शून्य कर देती है, उस जैकेट के निकल आने भर से बाकी का सामान गिराने फ़ैलाने का हक उस सभ्य समाज को दे दिया जाता है| खैर उस बच्चे की ओर कौन देखे जब बोगी के अँधेरे से तमाम लोगों की लाल पीली आँखें भेड़िये की तरह अब उसके दादा को देख रहीं थीं| सुखदेव ज़लील होने का आदी तो था लेकिन नंगा किये जाने का नहीं| अब वो फटी जर्सी भयंकर गर्मी दे रही थी, नहीं तो इतनी सर्दी में इतना पसीना और कैसे आया होगा| चोर हो कर भी वो मेमना था और शरीफ हो कर भी बाकी भेड़िए| उसकी ज़िन्दगी में एक साथ ऐसे पल तुरंत नहीं आये थे| एक और ‘वीक’ मोमेंट तुरंत आ के रुक गया था| धीरे से उसके कान मैं जैसे किसी ने खुसफुसाया, “जिंदा रह के भी अब क्या उखाड़ लेगा| अब किस के लिए जिंदा रहना भी है| बची हुई ज़िन्दगी का भी अब करेगा क्या ?” उसके हाथ दरवाज़े पे जमने लगे| उसने करीब आते हाथों की ओर देखा और अचानक वो दरवाज़ा खोल दिया| जैसे ही वो चलती ट्रेन से कूदने को हुआ, लोग चिल्लाये,”अरे रे, ओये |” सबको जैसे सांप सूँघ गया था| आज भी किसी की वजह से किसी का मारा जाना एक टलने वाला था। कूदने से ठीक पहले सुखदेव को जैसे किसी ने टोक दिया हो| उसका एक पैर हवा में और एक पायदान पे था| “पर ये बच्चा, ये कैसे घर जायेगा ? इसको कोई अँधा वन्धा करके भीख मांगने बैठाल देगा|” वो रुक गया|

ये वो समय था जब बाकी सारे लोग उसके साथ क्या हुआ देखने के लिए खिडकियों से झाँकने लगे और कुछ हिम्मती दरवाजे की ओर दौड़ गए| जैसे ही दरवाज़ा खोला, उसे खड़ “साला नौटंकी” कहते हुए एक चिल्लाने लगा फिर सब कुछ न कुछ वैसा ही चिल्लाने लगे| जंगल में भेड़िये भी कहीं एक साथ ‘हुंवा हुंवा’ कर रहे होंगे| सुखदेव अन्दर आया और अपने आप को उनके हाथ सौंप दिया| वो लोग उसे नोचने लगे| किसी ने बेल्ट निकाल ली तो किसी ने जूता| कोई अपने हाथ-पाँव पर ही भरोसा कर खरोचने लगा| वो ऊपर की ओर देख कर बस हँसता रहा| उसे ट्रेन की छत नहीं सीधे वो तारे नज़र आ रहे थे जो असल में उसके माँ-बाप थे| उसकी हँसी देख कर सब और चिढ़कर पीटने लगे| किसी को अपने बॉस से गुस्सा था तो किसी को परिवार से| किसी को अपनी ज़िन्दगी से ‘फ्रस्ट्रेशन’ थी तो किसी को बस अपनी नींद ख़राब होने की भड़ास निकालनी थी| चोर समझ पीटने वाला वो लड़का जैकेट लिए पीछे कहीं खड़ा था| सुखदेव की जर्सी रिटायर नहीं हुई, उस दिन भगत की तरह सर्विस में ही शहीद हो गयी| सुखदेव ने एक बार बच्चे की ओर पलट कर देखा| उसे पता था कि अब जब भी वो बच्चा उसकी ओर देखेगा उसे एक गन्दी और चोर की नज़र से देखेगा| लेकिन जब वो उसकी ओर देखेगा तो उसे लगेगा कि ये उसकी जीत है| जब भी वो दौड़ेगा, कूदेगा या तसल्ली से माँ के पास सोयेगा, वो सुखदेव को अपनी जीत का एहसास कराएगा| वो आज हार सकता था, एक आसान निर्णय के साथ पर उसने एक कड़ा फैसला लिया, और हमेशा के लिए जीत गया| उसका एक अकेला कड़ा फैसला उसके हर बार के ‘वीक’ मोमेंट्स के समय जो वो कभी न ले सका था| उसके दर्द चीख रहे थे, भेड़िये सो रहे थे लेकिन वो अब भी हँस रहा था। वह शायद सियार था जो शिकार के बाद आने वाला था| पड़ा रहता|


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