Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer
Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer

सहारा

सहारा

8 mins
15.2K


गणेश इस बार काफी दिनों के बाद दिल्ली आया था। उसने भैया के मकान पर पहुँचकर काल-बटन पुश किया, पहली बार...दूसरी बार...फिर तीसरी बार। भीतर से किसी तरह की कोई हलचल उसे सुनाई नहीं दी। कुछ समय तक वह यों ही इन्तज़ार करता खड़ा रहा। भैया तो हो सकता है कि बाहर से अभी लौटे ही न हों| वह सोचता रहा| भाभी और नीलू, हो सकता है कि किसी ‘ज़रूरी’ सीरियल में मग्न हों और घंटी की आवाज़़ उन्होंने सुनी ही न हो! उसने चैथी बार फिर बटन दबाया। कोई नहीं आया। आखिरकार उसने दरवाजे को पीट डाला। इस पीटने का तुरन्त असर हुआ। भीतर से नीलू की आवाज़़ सुनाई दी| ”कौ...ऽ...न।“

          ”पहले दरवाज़ा खोल, तब बताता हूँ नीलू की बच्ची कि कौन है।“ गणेश बोला।

          ”चाचाजी!“ एकदम कोयल की तरह कुहुककर नीलू ने दरवाज़ा खोल दिया।

          ”भैया-भाभी कहीं बाहर गये हुए हैं क्या?“ गणेश ने भीतर कदम रखते हुए पूछा।

          ”नहीं तो।“ नीलू बोली।

          ”तो तुम लोग घर में बैठकर अशर्फियाँ तोल रहे थे क्या? मैं घंटेभर से घंटी बजा रहा हूँ, कोई सुन ही नहीं रहा!“ गणेश बोला।

          उसकी आवाज़़ सुनकर तभी भाभी भी भीतर वाले कमरे से निकल आयीं। बोलीं, ”अरे, गणेश भैया! भई, कैसे रास्ता भूल आये आज?“

          ”वह सब बाद में। पहले मेरी बात का जवाब दो।“ भीतर आकर भी गैलरी में ही रुक गया गणेश बोला।

          नीलू अब तक दरवाजा बन्द कर चुकी थी।

          ”किस बात का?“ भाभी ने पूछा।

          ”चाचाजी पूछ रहे हैं कि हमने घंटी की आवाज़़ क्यों नहीं सुनी?“ नीलू ने भाभी को बताया।

          ”वह तो महीनों से खराब पड़ी है।“ भाभी हँसकर बोली,”बुद्धू कहीं के, खराब घंटियाँ भी किसी के आने की खबर देती हैं कभी?“ यह कहती हुई वे उसे सीधे ड्राइंगरूम में खींच लाईं। फिर बोलीं, ”कहीं हम डाँटने-डपटने न लगें इसलिए पहले ही नाराज़गी जता बैठे, क्यों?“

          ड्राइंगरूम में आकर गणेश सोफे पर बैठ गया।

          ”आप क्यों डाँटेगी-डपटेंगी?“ बैठने के बाद उसने भाभी से पूछा।

          ”इसलिए कि इतने दिनों तक कहाँ रहे आप? मिलने क्यों नहीं आये?“

          ”दिल्ली आना अब काफी कम हो गया है भाभी।“ गणेश बोला, ”ज़रूरत का सामान पहले खुद आकर ले जाते थे। लालच रहता था कि कुछ सस्ता ले जायेंगे तो प्रोफिट ठीक मिल जायेगा। लेकिन अब झंझट काफी बढ़ गया है। माल ढोने वाले, ट्रांसपोर्ट वाले, सेल्स-टैक्स वाले...पता नहीं कितने गिद्धों से बोटियाँ नोंचवानी पड़ती हैं। कुछ एजेंट्स हैं, जो ओरीजनल बिल पर तीन से पाँच पर्सेंट तक कमीशन लेकर सीधे दूकान पर माल पहुँचा देते हैं। न आने-जाने का झंझट और न फालतू झगड़ों का। सो, सामान उन्हीं के जरिए मँगाने लगा हूँ।...लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं कि आप लोगों को हम याद नहीं करते।“

          ”सो तो विश्वास है कि तुम हमें भूलोगे नहीं।“ उसकी इस बात पर भाभी मुस्कराकर बोलीं। फिर नीलू से कहा, ”पानी नहीं दोगी चाचाजी को?“

          उन दोनों की बातचीत में यह ज़रूरी शिष्टाचार नीलू जैसे भूल ही गयी थी। याद दिलाया तो तुरन्त दौड़ गयी।

          ”अंजू कैसी है?“ उसके जाते ही भाभी ने फिर बातें शुरू कीं।

          ”अच्छी है।“

          ”कोई खुशखबरी?“

          ”यह तो आप उसी से पूछना।“

          ”उसी से पूछना! यानी कि खुशखबरी है।“ भाभी प्रफुल्लित स्वर में बोलीं; फिर पूछा, ”कौन-सा महीना है?“

          ”सातवाँ।“ गणेश धीरे-से बोला।

          ”सा...तवाँ...ऽ...माइ गॉड!“ आश्चर्य से आखें फाड़कर भाभी भिंची आवाज़़ में जैसे चीख ही पड़ीं। फिर उसके कन्धे पर चिकौटी काटकर बोलीं, ”ऊपर से तो निरे घुग्घू दिखते हो। बड़े तेज़ निकले।“

          गणेश सिर्फ शर्माकर रह गया, बोला कुछ नहीं। भाभी हमेशा ही उससे मज़ाक करती रहती हैं लेकिन उसने हमेशा उन्हें माँ-जैसा समझा। पलटकर मज़ाक का जवाब कभी मज़ाक से नहीं दिया।

          नीलू ट्रे में पानी के गिलास रखकर ले आयी थी। गणेश ने पानी पिया और मुँह पोंछकर चुप बैठा रहा।

          ”चाचाजी के लिए चाय भी तुम ही बनाकर लाओ बेटे।“ भाभी ने नीलू से कहा, ”हम जरा बातें करते हैं।“

          नीलू वापस लौट गयी।

          ”भैया कैसे हैं?“ गणेश ने पूछा।

          ”अच्छे हैं।“

          ”और काम?“

          ”वह...तो...पहले जैसा ही है।“ इस बार भाभी उदास स्वर में बोलीं।

          ”कोई सुधार नहीं?“ गणेश ने पूछा।

          ”सुधार हो ही नहीं सकता गणेश।“ उसी उदासी के साथ वह फिर बोलीं।

          ”क्यों?“

          ”जमाना कितना आगे बढ़ गया है, यह तो तुम देख ही रहे हो।“ उन्होंने बताना शुरू किया, ”बिज़नेस को अब पुराने तौर-तरीकों से नहीं चलाया जा सकता। बाज़ार अब पढ़े-लिखे लोगों से भर गया है। पढ़े-लिखे से मेरा मतलब बिज़नेस-ग्रेजुएट्स से है। अब, पता नहीं कौन-कौन से डिप्लोमा और डिग्री लेकर उतरते हैं लोग बाज़ार में। यह सब समझाने की इन्हें बहुत कोशिश की हमने, ये नहीं समझे।“

          ये बातें बताते हुए भाभी का स्वर लगातार गहरा होता गया। उनकी आँखें भर आयीं। उन-जैसी शालीन महिला गणेश ने दूसरी नहीं देखी। अंजू, अपनी पत्नी भी उसे उन-जैसी शिष्ट नहीं लगी।

          ”कुछ समय पहले सिगरेट पीनी शुरू की थी। हमने टोका तो बोले, ज़रूरी हो गया है, बिज़नेस लेने और पैसे उगाहने के लिए पार्टी के साथ सुलगानी ही पड़ जाती है। मना करती हूँ तो...। दो-दो लड़कियाँ हैं। काम कुछ चल नहीं रहा। ऊपर से यह सब!...“ कहते-कहते भाभी की आँखों से आँसू ढुलक पड़े।

          भारतीय महिलाएँ घरेलू मामलों में बड़ी दूरदर्शी और व्यवहारकुशल होती हैं। हालाँकि कई बार ज़रूरत से कुछ ज्यादा भी होती हैं और पुरुष-व्यवसाय में अनपेक्षित आशंका जताने व टाँग अड़ाने लगती हैं। उनकी यह वृत्ति तब क्लेश का रूप धारण कर लेती है जब वे पुरुष को सामान्य व्यवहार से हटाकर अपनी आशंकाओं और भविष्य के प्रति अपने डरों के घेरे में घसीटने लगती हैं। गणेश ने एक गहरी दृष्टि भाभी के चेहरे पर डाली कि भविष्य के प्रति भाभी के डर कहीं कुछ-और रूप तो नहीं ले लिया है! नहीं, ऐसा कुछ भी उसे नज़र नहीं आया।

          ”भैया इस समय कहाँ होंगे?“ उसने उनसे पूछा, ”फैक्ट्री में या...?“

          ”फैक्ट्री तो अब कहने-भर को ही रह गयी है वह।“ साड़ी के पल्लू से बारी-बारी दोनों आँखों को पोंछते हुए भाभी ने बताया, ”कुल मिलाकर तो...इन दिनों बेकार ही घूम रहे हैं।...गये होंगे कहीं...।“

          यह सब सुनकर गणेश का दिल दहल-सा गया। भैया का बिज़नेस ढीला होने के बारे में तो सभी को सालों-से पता है। अभी, आठ माह पहले, उसकी शादी के समय भी वह बड़े सादा तरीके से घर गये थे। स्वभाव से ही चंचल और चपल भाभी भी उन दिनों नीरस-सी बनी रही थीं। पूछने पर अम्मा को, दादी को, सभी को यही पता चला था कि बिज़नेस मंदा चल रहा है। रकम बाज़ार में फँस गयी है।

          शादी के बाद सब तितर-बितर हो गये। चिट्ठी-पत्री और फोन वगै़रा से सूचनाएँ मिलती रहीं लेकिन, यह सब तो उसे आज...अब ही पता चला! और, वह अगर समय निकालकर मिलने को चला न आता तो आज भी कुछ पता न चलता!! अब से पहले किसी भी तरह का विमर्श भैया से करने की हिम्मत नहीं हुई उसकी। लेकिन आज मौका कुछ अलग तरह का था। पता नहीं किस बोझ को अकेले ढो रहे हैं भैया? नैतिकता और चाल-चलन में वे पूरे परिवार के सामने एक आदर्श उदाहरण रहे हैं। श्रम भी उन्होंने कम नहीं किया। बहुत छोटी ही सही, फैक्ट्री भी उन्होंने अपने अकेले की हिम्मत और मेहनत के बल पर खड़ी की है। वरना तो यू.पी. के अपने छोटे-से शहर के छोटे-से गाँव से वे खाली हाथ ही दिल्ली आये थे। दिल्ली में उनके बस जाने और जम जाने से परिवार को एक अनदेखा बल मिला, उसमें आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का संचार हुआ। रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों में उनकी पूछ बढ़ी। अपने बच्चों को आसपास के परिचित, भैया की मेहनत का उदाहरण देते देखे-सुने जाने लगे। क्या विपत्ति, क्या विवशता पैदा हो गयी है कि इतने लोगों के लिए अनुकरणीय भैया सिगरेट और शराब पीने लगे हैं!!

          ”आपने यह सब अब तक क्यों छिपाया भाभी?“ वह बेहद कष्ट के साथ बोला, ”बड़े भैया घर के सबसे मजबूत स्तम्भ हैं। उन्हें कमज़ोर होते देखती रहीं और...।“

          ”अब हम एक अलग परिवार हैं गणेश।“ भाभी मन्द स्वर में बोलीं, ”तुमने गाँव से निकलकर शहर में अपना बिज़नेस पता नहीं कैसे-कैसे जमाया है। तुम्हें कुछ बताती तो उधर का भी पूरा परिवार डिस्टर्ब हो जाता और...। सब की अपनी-अपनी विवशताएँ हैं, यही सोचकर...।“

          ”ग़लत...आपने बहुत ग़लत सोचा भाभी।“ गणेश दृढ़तापूर्वक बोला, ”अलग-अलग रह ज़रूर रहे हैं लेकिन परिवार हम एक ही हैं।“

          ”तुम्हारी भावनाओं को मैं अच्छी तरह समझती हूँ।“ भाभी बोलीं, ”मैं ही क्यों, तुम्हारे भैया भी और भतीजियाँ भी। लेकिन सोचो कि तुम अब कुँआरे नहीं रहे। अंजु को भी खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है।“

          ”कैसी बातें करने लगी हो, भाभी? आपको इतना कमज़ोर तो कभी जाना नहीं था। बिज़नेस के घाटे ने आपके संतुलन को बिगाड़कर रख दिया है। हिम्मत और समझदारी, जो आपका वास्तविक गुण है, उसे डूबने मत दो। रही बाज़ारभर में फैली रकम की बात, तो आज आपने बताया है। अब देखना कि डूबा हुआ रुपया बाज़ार से किस तरह लौटना शुरू होता है। अकेले आदमी को बाज़ार साबुत निगल जाता है भाभी! भैया ने भी आपकी तरह सोचा, वरना वे अकेला न महसूस करते खुद को। रोओ मत, मैं तन-मन और धन, हर तरह से आपके साथ हूँ।...और यह बात दिमाग़ से पूरी तरह निकाल दो कि आप अब एक अलग परिवार हैं।“

          गणेश की इस बात पर भाभी सिर उठाकर उसकी ओर देखा। कुछ बोलना चाहा, जैसे कहना चाह रही हों कि उनके वैसा कहने का मतलब वह नहीं था जो गणेश ने समझा। बल्कि यह था कि गणेश, जो पहले ही गाँव के सारे दायित्वों को बखूबी निभा रहा है, उस पर एक और दायित्व लादना वह नहीं चाहतीं। लेकिन वह कुछ कह नहीं पायीं। गणेश की दिलासाभरी बातों ने उनकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लगा दी। गला ऐसा रुँध गया और दिल इतना भारी हो गया कि उसे एकाएक वह यह तक नहीं बता पायीं कि उसके भैया बाहर कहीं नहीं गये बल्कि भीतर वाले कमरे में अकेले बैठे शराब गटक रहे हैं।

          गणेश ने आँसुओं के पीछे उनकी आँखों में झाँका। उनमें अपना बिम्ब उसने तैरता पाया, एक शिशु-जैसा बिम्ब। आगे बढ़कर उसने उन्हें सीने से लगा लिया और उनके सिर पर अपना चेहरा टिकाकर खुद भी रो पड़ा।

 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational