कमरे में समंदर
कमरे में समंदर
तुम आज फिर बत्ती बंद किए बिना चली गई हो। तुम्हारे शहर में बिजली कब चली जाए पता ही नहीं चलता। तुम इसी उठापटक में जाने से पहले भूल जाती हो बत्ती बंद करना। मेरी याद अब दूधिया प्रकाश में नहाई हुई लेटी है। हां उसी सोफे पर, जिस पर तुमने उसे प्यार से सहला कर सुला दिया था। सांझ का सिंदूरी सूरज रंगों की जो सौगातें लेकर आया है, वे सब खिड़की से छन-छन कर ऐसे आ रही हैं, जैसे तुम्हारे चेहरे पर मेरे लिए उमड़ते प्यार की अठखेलियां। याद का पैरहन आज बसंती है। तुमने सुबह ही उसे नहला-धुला कर अपनी आरजुओं का यह लिबास पहनाया है। तुम्हारे जाने के बाद उसने एहतियाती तौर पर भीतर से चिटकनी बंद कर दी थी। फिर पूरे कमरे में चक्कर लगाया। कहां-कहां ताका-झांका, कोई हिसाब नहीं। रसोई से लेकर बाथरूम तक और खिड़की से लेकर रोशनदान तक। याद का परिंदा भी ना कितना अजीब होता है। कुछ भी कर सकता है। तुम वहां अपने कामकाज में उलझी होंगी कि इधर याद ने सारा घर खंगाल डाला।
आज तुमने सुबह से ही घर की जो सफाई शुरु की तो याद को मालूम हो गया था कि आज का दिन बहुत ख़ास है। तुम्हारे हाथों का स्पर्श पाकर यह छोटा-सा घर महक-महक जाता है। तुम ख़ुद इसे महसूस करती हो। याद के चेहरे पर वह खुशबू अभी तक तैर रही है और पूरे घर में जैसे याद और खुशबू का साम्राज्य है। तुमने दिन में कितनी बार याद को याद किया, वो जानती है। तुम चाहती तो फोन कर मुझे बता सकती थी, लेकिन तुम्हें भी बहुत मजा आता है, इस तरह परेशान करने में। ख़ैर बात तो याद की है। उसने देख लिया था कि बिजली गुल होने की वजह से तुम भूल ही गई कि बाथरूम में कपड़े गीले ही रह गए हैं। अब याद के बस में होता तो वह सुखा देती। याद ने खुशबू के साथ मिलकर तुम्हारे गीले कपड़ों में सेंधमारी की तो कपड़े खिलखिलाने लगे। लो तुम्हारे तो कपड़ों को भी गुदगुदी होती है। इस वक्त वो दोनों मिलकर सूरज की सतरंगी सौगातों वाले रंग लेकर कपड़ों में मल रही हैं।
आज दिनदहाड़े इन दोनों ने जो शैतानियां की हैं, वो तुम घर आकर देखोगी तो चकरा जाओगी। पता है तुम्हारे आदमकद आईने से ये क्या कह रही थीं। याद ने कहा, ‘सुनो आईने, कोई ऐसा चक्कर चलाओ ना कि वो जब भी तुम में देखे तो उसे दो दिखाई दें।’ बिचारा आईना चकरा गया तो खुशबू ने कहा कि इसका मतलब है कि राधाकृष्ण की तरह जोड़ी में दिखे। आईने ने कहा कि यह नामुमकिन है, मेरे बस में तो इतना है कि मैं बाकी चीजें दिखाना बंद कर सकता हूं। दोनों बच्चों की तरह खुश हो गईं और बोली कि हां, इतने से भी चलेगा। इस घर में चीज़ों के सिवा और है ही क्या जो तुम्हारे भीतर देखी जा सकें। आईने के साथ मिलकर अब इन दोनों ने साजिश रच ली है कि जब भी तुम आईने में देखोगी, कुछ और ही नज़र आओगी। याद तुम्हारे चेहरे को मला करेगी और खुशबू तुम्हारे लंबे बालों में पानी के मोती जैसे बुलबुलों की तरह जज़्ब हो जाएगी।
मैं यहां अकेला हूं। आंखें बंद करते ही तुम्हारा घर और वो कमरा याद आता है, जहां मैं अपनी याद छोड़ आया हूं। पता नहीं लोग क्यों कहते हैं कि याद और ख़्वाबों का कोई रंग नहीं होता। मुझे तो बस रंग ही याद आते हैं। जैसे पहली बार मिलने पर गुलाबी लिबास में तुम्हारा गुलाबी रंग। कविता में सोचूं तो जैसे कोई बगीचा था गुलाबों का, तुम्हारे होने भर से ही जो मेरी आंखों में महक-महक गया था। अरे हां, तुमने भी तो कहा था ना ऐसा ही कुछ। क़ुदरत भी अजीब है, किसको, कब, कहां, किससे और कैसे मिला दे, कोई नहीं जानता? हमारा मिलना जैसे कोई कुदरती करिश्मा था। हम में से कोई कविता नहीं करता, लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो जज़्बात उमड़ आने पर हर किसी को कवि बना देते हैं। शुक्र है कि हम डायरी या ब्लॉग नहीं लिखते, वरना दोनों ही लिक्खाड़ हो जाते। चलो जाने दो इन बातों को। मेरा हाल सुनो और अपना सुनाओ।
तुम्हें पता है मुझ दो दिन से लग रहा था कि बरसात होगी। तुम्हारी छवियों की तरह बादलों ने कैसा तो आसमान में डेरा जमा रखा था। उमस अपने पूरे शबाब पर थी, जैसे देर तक आलिंगन में बंधे जोड़े की देह का मौसम धरती पर उतर आया हो। विरह जैसी जलन वाली धूप मानो बादलों के पीछे सुस्ताने चली गई थी। लेकिन अमृत सरीखी मेह की बूंदें जैसे बादलों की गठरी में बंद पड़ी थीं। कई बार तुम्हारी मुस्कान भी तो ऐसे ही होती है, चुप-चुप, मंद-मंद, दोनों होंठों के किनारों पर दादी-अम्मा के कीमती बटुए की तरह कसके बंद की हुई कि अगर खुल जाए तो जैसे अशर्फियां खनखनाने लगेंगी।
हमारे बीच की दूरी कम से कम हज़ार किमी की तो है ही, लेकिन कहीं से नहीं लगता ना कि हम दूर हैं। एक क़दीमी शहर है यह अजमेर और दूसरा तुम्हारा। दोनों ही जगह गुंबद हैं। मुग़ल सल्तनत के तुम्हारे क़दीमी शहर में जिंदगी जितनी तेज़ है, यहां नहीं है। यहां के इस सरकारी गेस्ट हाउस के कमरे में मेरे पास तुम्हारी याद है और उधर तुम्हारे कमरे में मेरी। यहां मेरे पास वह कमीज है जिसे पहनकर मैं पहली बार तुमसे गले लगा था अचानक। उसमें तुम्हारी खुशबू बसी हुई है। और हां, वो वाली टी शर्ट भी है, जिसकी याद दिलाने पर तुम गुस्सा हो जाती हो। प्लीज, देखो बुरा मत मानना। अंधेरे में हो जाता है। कोई किसी के कपड़े पहन लेता है और तुम्हारे शहर की बिजली तो जानती ही हो। लेकिन हज़ारवीं बार कहता हूं कि तुम उसमें सच में बहुत सुंदर लगी थी उस दिन। उस टी शर्ट को मैंने नाम दिया है ‘सखी।’ जब भी इसे पहनता हूं तो कहता हूं, ‘आ सखी, तुझे पहनता हूं मैं।’ उजाला कैसे रंगत बदल देता है ना, वरना अंधेरे में तो तुम इसे अपनी समझ कर ही पहन गई थी ना? इसमें बसी है तुम्हारी देहगंध। और यह देहगंध कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ती, मरने के बाद भी चिता और ताबूत में मौजूद रहती है। और जो कुरता मैंने पहना हुआ है इस वक्त, वो तुम्हीं ने दिया था। इसका रंग हरा है गेहूं की कच्ची बालियों जैसा। इसे पहनकर मैं सुबह-शाम घूमने जाता हूं तो लगता है कि तुम्हारे साथ बिताए लम्हों का एक लहलहाता खेत मेरे साथ चल रहा है।
यहां ख्वाज़ा साहब की दरगाह है, जहा मैं तुम्हारा हरा कुरता पहन कर रोज़ जाता हूं। इस बार जब मैं पहले दिन शाम के वक्त गया तो वहां हर तरफ़ इतना हरा रंग दिखाई दिया कि लगा जैसे यह जगह हम दोनों के लिए ही बनाई गई हो। हर तरफ़ दरो-दीवार पर उकेरी गईं आयतें, जैसे हमारे मिलने की दुआ में लिखी गई हों। तुम यहां आना चाहती हो। मैंने अक़ीदत में जब सज़दा किया तो पहला चेहरा तुम्हारा ही था, जो मेरी बंद आंखों के आगे नमूदार हुआ और जिसके लिए दुआ मांगी मैंने। अपने लिए क्या मांगता मैं, बस तुम्हें ही मांग लिया हमेशा के लिए। मन्नतों के धागे में तुम्हें वहां बांधते हुए लगा जैसे मैं कई जन्मों की दुआएं बांध रहा हूं। एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे हमारा मिलना भी किसी और जन्म के कारण ही संभव हुआ। ऐसा क्यों होता है पप्पी। आज एक फोन आया और उधर से आवाज़ आई, ‘मैं पप्पी की मम्मी बोल रही हूं।’ मैं धक्क से रह गया। मां को गुज़रे तो एक ज़माना बीत गया। लेकिन एक दिन वो मुझे सपने में दिखाई दी थीं। हमारे रिश्ते को पहचानते हुए जैसे मां ने आशीर्वाद दिया था सपने में। मृतात्माएं शायद जीवन के सारे रहस्य जानती हैं। तुम कार से मां को छोड़ने गई थीं और मैं तुम्हारे घर में बैठा था। यह कोई नया घर था जिसमें एक जोड़े को बसना था। पता नहीं कुछ घरों की तामीर सिर्फ सपनों में ही क्यों होती है?
अब देखो ना यह पिछले सप्ताह की ही तो बात है, मैंने तुम्हारे ख़यालों में डूबकर अपनी डायरी में यह लिखा था।
मैं जिस पल का इंतज़ार कर रहा था, उसे शायद आज ही आना था। मैंने सुबह-सुबह तुम्हें खूब प्यार से याद करते हुए अपने होने की याद दिलाई... और लो उधर तुम हौले-से मुस्कुराकर बोलीं ‘सुप्रभात।’ दिल जैसे बस यही चाहता था। मैंने कल्पना से तुम्हारा नींद में अलसाया हुआ मदभरा खूबसूरत चेहरा अपनी आंखों के सामने ऐसे बनाया कि चारों ओर जैसे तुम्हारी मुस्कान के फूल खिल-खिल उठे हों। उन फूलों की ताज़गी, सुंदरता और महक लिए मैं दफ्तर गया तो रास्ते भर मौसम बहुत सुहाना लग रहा था। एसी वाले केबिन में आज जेठ की दुपहरी में भी ठण्डक महसूस हो रही थी। लंच तक का वक्त कैसे कामकाज में गुज़र गया, पता ही नहीं चला। अचानक चपरासी ने आकर बताया कि बाहर बहुत तेज़ बरसात हो रही है। मुझे सुबह की तुम्हारी मुस्कान के साथ सुप्रभात कहना याद आ गया। अब तो मानती हो ना कि तुम्हारे मुस्कुराने से मेरे शहर में बरसात होती है।... देखो अभी शाम घिरने तक धाराधार बरस रहा है पानी।... सुनो अब तुम लगातार मुस्कुराते रहना। बहुत जल्द तुम्हारा जन्मदिन आने वाला है ना... तब तक बारिश धरती को हरी चादर और रंग-बिरंगे फूलों की ओढ़नी से और खूबसूरत बना देगी। फिर ये पूरी क़ायनात तुम्हारा जन्मदिन मनाएगी।
तो तुम और दूर जा रही हो मुझसे? हां, हम नौकरी के मारों का यही हाल है। तुम मेरे शहर के आसमान के ऊपर से उड़कर निकल जाओगी पणजी। वहां नीचे देखोगी तो मेरे शहर के दरख्त़ तुम्हें अपने हाथों जैसी टहनियां हिला कर हलो कहेंगे। तुम वो गुलाबी लिबास ही पहनना, उसे मेरे शहर का आकाश भी पहचानता है अब तो। मैंने उस लिबास के बादलों में इतने चित्र बनाए हैं कि सारा आकाश ही गुलाबी लगता है मुझे तो। मैं नहीं हूं वरना तुम्हें देखता मैं अपने घर से। अब आकाशमार्ग पर कैसे तुम्हारी आवभगत करूं मैं। चलो ऐसा करना कि जब मेरा शहर आए तो तुम मेरी ओर से एक चाय पी लेना या कि टॉफी खा लेना। मेजबानी हमारे शहर की परंपरा है, मैं तुम्हें ऐसे कैसे जाने दूंगा भला? हमारे यहां तो अंतिम यात्रा पर जाती हुई अर्थी के लिए भी दरवाजे पर एक लोटा पानी डालते हैं, ताकि जाने वाले को याद रहे। लेकिन मुझे ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। चलो तुम अब तैयारी करो जाने की। क्या मैं शाम में बात कर सकता हूं तुमसे। वहां तुम समंदर से बातें करोगी और मैं इस रेतीली धरती में आनासागर झील की लहरों से आती हवाओं पर तुम्हें पुकारूंगा। इन दिनों तुम कुछ कतराने लगी हो शायद? पता नहीं क्यों ऐसा लगता है मुझे? आज पणजी पहुंचने के बाद कम से कम एक एसएमएस तो कर ही देना।
एयरपोर्ट से तुम्हारा एसएमएस मिला, ‘उड़ने जा रही हूं मैं।’
‘याद कहां है?’
‘अपने पर्स में साथ ले आई हूं, इतने दिन अकेली कैसे रहती?’
‘कौन, तुम या याद?’
‘अब तो दोनों ही एक दूजे के बिना नहीं रह सकते जी।’
‘ओके जी, टेक केयर, हैप्पी जर्नी।’
‘थैंक्यू जी।’
दिन तो सरकारी कामकाज और मिलने-जुलने में गुज़र ही गया था, लेकिन शाम के वक्त हुए इस मोबाइल संवाद ने बहुत कुछ फिर से याद दिला दिया। आज भी शाम ढलने पर दरगाह जाकर आया हूं। तुम्हारी देहगंध वाली टी शर्ट पहनकर गया था। वहां कव्वाल जो सूफ़ी तराने गा रहे थे, ऐसे लगा जैसे वे हमारे मिलने की दुआएं ही संगीत में पिरो रहे थे। सजदा करने वाले तमाम लोग भी जैसे हमारे ही लिए दुआएं मांग रहे थे। याद है पिछली बार जब तुम अकेली पांच सौ किमी ड्राइव कर कानपुर पहुंची थी तो मैंने तुम्हारे लिए कितनी दुआएं की थीं? इस बार तुम आकाश मार्ग से सुदूर गोवा जा रही हो तो लगा जैसे पूरी दुनिया की दुआओं की ज़रूरत है। दरगाह से वापस चलकर मैं जब गेस्ट हाउस आया तो लगा कि तुम ज़रूर पहुंच गई होगी। लेकिन एयरपोर्ट से पणजी तक पहुंचने में ही करीब एक घंटा लग जाता है। यह जानते हुए ही मैंने कमरे में पहुंच कर तुम्हें फोन नहीं किया। ‘सखी’ को बदन से उतार कर कुरता-पायजामा पहना और खाना खाने के लिए मैस में चला गया। जाने किस गफलत में मोबाइल कमरे में ही रह गया। लौटकर देखा तो तुम्हारे तीन मिस कॉल और एक एसएमएस दिखाई दिए।
‘होटल में पहुंच गई हूं। तुम कहां हो?’
मैंने फोन किया तो कोई जवाब नहीं मिला। मैसेज टाइप कर भेज दिया, ‘गुड, सफ़र ठीक रहा ना। सॉरी, मैं खाना खाने चला गया था।’ मेरे कमरे की बेल बजी। देखा मेरे ही शहर के एक अधिकारी कपूर साहब आए हैं। हमारी इधर-उधर की बातें होती रहीं। इस बीच तुम्हारा मैसेज आया, ‘मैं बाथरूम में थी। अब खाने के लिए जा रही हूं। बैटरी लो है। मोबाइल चार्जिंग पर लगाकर जा रही हूं। बाद में बात करते हैं।’ मैंने ‘ओके’ लिख भेजा। कपूर साहब अपना शराब का कोटा पूरा कर आए थे, इसलिए बहुत-सी दफ्तरी गॉसिप रस ले-लेकर सुना रहे थे। मैं उनसे यूं ही बतियाता रहा। दस बजने के करीब वे निकले तो जान में जान आई।
मैंने कमरा बंद कर लिया और बिस्तर पर लेट गया। बीप बजी मोबाइल की।
‘क्या कर रहे हो?’
‘तुम्हें याद करने के अलावा और क्या काम है मेरे पास?’
‘तो अजमेर क्या इसीलिए आए हो तुम?’
‘मैं तो दुनिया में ही शायद इसलिए आया हूं?’
‘अच्छा, लगता तो नहीं ऐसा?’
‘तो क्या लगता है तुम्हें?’
‘तुम बेवजह उदास क्यों हो जाते हो यार?’
‘तो क्या करूं मैं, तुम्हीं बताओ?’
‘कौन है तुम्हारे साथ और?’
‘मैं और मेरी तन्हाई के साथ, एक सखी है, एक याद है तुम्हारी और तीसरी...’
‘ये तीसरी कौन है यार, नई आ गई क्या।’
‘मेरी ऐसी किस्मत कहां... तीसरी तो तुम्हारी सौगात है।’
‘हाहाहा’
‘तुम्हें मेरी हालत पर हँसी आ रही है क्या?’
‘नहीं, तरस आ रहा है।’
‘क्यों? तुम्हें हमेशा ही ऐसा करने में आनंद आता है?’
‘अच्छा बताओ तो मेरी याद कहां है?’
‘अपने सीने से लगाकर रखा है।’
‘अच्छा, जैसे बच्चे को लगाकर रखते हैं?’
‘हां, तुमने कहां रखा है मेरी याद को?’
‘पर्स में से निकाल कर बगल में लिटा दिया है।’
‘क्या कर रही हो?’
‘खेल रही हूं।’
‘मेरी याद के साथ?’
‘नहीं। वो कोई खेलने की चीज़ है क्या?’
‘तो फिर?’
‘गाउन की डोरी से।’
‘वाह, क्या बात है।’
‘क्यों, इतनी दूर से ही खोलने की कल्पना करने लगे तुम तो यार।’
‘नहीं तो। तुम मुझे इतना घटिया समझती हो?’ मुझे गुस्सा आ रहा था।
‘अच्छा तो जनाब इससे भी ज्यादा हैं क्या?’
‘तुम ऐसी बात क्यों करती हो यार?’
‘अब इतनी दूर से और क्या करूं यार?’
‘तुम्हें दूसरी भाषा नहीं आती क्या?’
‘दूरी में वो कैसे काम करेगी? अब मैं यहां कैसे गाउन की जगह कुरता पहन सकती हूं यार?’
‘बात तो कर सकती हो ना?’
‘कर तो रही हूं।’
‘मतलब, क्या मैं आवाज़ सुन सकता हूं तुम्हारी?’
‘आजकल इसके पैसे लगते हैं जनाब।’
‘तुम बिना पैसे लिए बात नहीं करोगी क्या?’
‘मेरा मतलब मुफ्त के एसएमएस की तरह नहीं कि दिन भर भेजते रहो।’
‘ओके, मैं कॉल करता हूं।’ कहकर मैंने तुम्हारा फोन मिलाया।
‘हलो, ठीक से पहुंच गई, यह जानकर बहुत सुकून मिला।’
‘हां, तो क्या तुम्हें प्लेन क्रेश होने का डर था?’
‘नहीं, इतनी लंबी दूरी थी ना, इसलिए ज़रा चिंता थी।’
‘मैं खुद तो प्लेन उड़ा नहीं रही थी, फिर चिंता क्यों? वैसे तुम मेरी चिंता मत किया करो यार। बहुत अजीब लगता है मुझे।’
‘अजीब क्यों?’
‘जाने दो।... सच बताना, क्या तुम्हें मेरी बहुत ज्यादा याद आती है?’
‘हां, क्या तुम्हें नहीं आती?’
‘अब कैसे बताऊं तुम्हें?’
‘क्यों?’
‘अब छोड़ो इस बात को। यह बताओ क्या कर रहे हो?’
‘बताया ना तुम्हारी याद को सीने से चिपकाए लेटा हूं।’
‘मतलब लोरी गाकर याद को सुला रहे हो?’
‘नहीं, उसे बहला रहा हूं।’
‘अच्छा।’
‘तुम क्या कर रही हो?’
‘मैं भी तुम्हारी याद के बाजू में लेटी हुई हूं।’
‘तुम भी याद को छाती से लगा लो ना।’
‘क्यों, उसे क्या दुध्धू पिलाना है? अरे, उसे गहरी नींद सोने दो यार।’
‘हाहाहा, तुम्हारे सेंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं।’
‘अगर मैं हां कह देती तो तुम अगली बात यही कहते ना?’
‘और अगर नहीं कहता तो...’
‘तो मैं सचमुच उसे दुध्धू पिलाने लग जाती... हाहाहा। और तुम्हें इसमें बहुत मजा आता ना, जैसे याद नहीं तुम ही हो यहां?’
‘ज़रूरी तो नहीं कि हर वक्त तुम्हारे हिसाब से सोचा जाए?’
‘अरे बच्चू मैं अच्छी तरह जानती हूं तुम मर्दों को। ज़रा-सी छूट मिलते ही तुम कैसे ख़याली पुलाव पकाने लग जाते हो?’
‘फिर वही बात?’
‘क्या हुआ यार, डांट लगी क्या?’
‘और नहीं तो क्या? कभी तो प्यार से बात किया करो तुम?’
‘अब तुम नाराज़ हो गए क्या? देखो मेरा तो बात करने का यही तरीका है।’
‘लेकिन उन दिनों में तो तुम ऐसे बात नहीं करती थीं?’
‘उन दिनों मुझ पर नशा छाया हुआ था।’
‘कैसा नशा?’
‘तुम्हारी मोहब्बत का।’
‘तो क्या अब उतर गया है?’
‘नहीं यार, ये नशा तो अब कुछ ज्यादा ही चढ़ता जा रहा है।’
‘तो क्या किया जाए?’
‘काश तुम यहां होते तो यह रात कितनी जवान हो जाती ना?’
‘हां, अगर यह हो पाता तो। लेकिन रात तो रोज़ाना आती है, फिर किसी रात सही।’
‘लेकिन सच कहूं तो आज इतनी दूर इस अंजान शहर में पहली बार तुम्हारी बहुत शिद्दत से याद आ रही है।’
‘आह, यह सुनकर कितना सुकून मिल रहा है।’
‘मेरी जान पर बनी है और तुम्हें सुकून मिल रहा है।’
‘यही बात मैं हर रोज़ महसूस करता हूं। तुमने तो बस एक दिन यह महसूस किया है।’
‘ऐसा नहीं है यार। अगर तुम्हें कभी कहा नहीं तो इसका मतलब यह तो नहीं कि आग इधर नहीं लगी हुई।’
‘क्या सच कह रही हो तुम?’
‘हां।’
‘अगर मुझे इसकी ख़बर होती तो मैं तुम्हें इस तरह निर्मोही तो नहीं समझता ना? सॉरी यार।’
‘जाने भी दो यार। मेरे पास आ जाओ, कल सुबह हम समंदर के पास चलेंगे, सुबह-सुबह। समंदर देखने की मेरी बरसों पुरानी कामना अब पूरी हो रही है।’
‘तुम तो नदी किनारे जन्मी हो, एक ना एक दिन समंदर में मिलना ही होता है नदी को तो।’
‘लेकिन यहां तो कमरे में ही समंदर आ गया है, तुम मुझे बचा लो ना।’
‘मैं तुम्हारे साथ हूं, क्यों चिंता करती हो?’
‘मुझे तो हर वक्त डर लगा रहता है एक सूखी नदी बन जाने का।’
‘नहीं, तुम सूखी नदी नहीं, सदानीरा सरिता हो।’
‘नाम सरिता होने से क्या होता है दोस्त?’
‘मैं जानता हूं तुम्हारे भीतर बहने वाली नदी को।’
‘शायद हां। तुमने ही तो उसे विलुप्त सरस्वती होने से बचा लिया था उस दिन।’
‘नहीं, मैंने नहीं क़ुदरत ने बचाया हम दोनों को इस तरह मिलाकर।’
‘वो दिन अगर मेरी जिंदगी में नहीं आता तो मैं यूं ही एकाकी मर जाती।’
‘उसे तो आना ही था सरिता।’
‘शायद नहीं। क्योंकि मैंने अपने बाहर-भीतर के सारे दरवाज़े बंद कर लिए थे। किसी के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी थी। तुम पता नहीं किस इतिहास से निकल कर आ गए?’
‘यही शायद हमारी नियति थी।’
‘बाई द वे तुम क्यों आए थे मेरे शहर में उस दिन?’
‘फिर से पूछना चाहती हो तो शायद तुम्हें ही खोजने।’
‘अब क्यों मुझे बुद्धू बना रहे हो यार?’
‘हम दोनों ही ने नहीं सोचा था ऐसी मुलाकात के बारे में।’
‘तुम्हारी तो तुम जानो, मैं तो अपनी कह सकती हूं कि उस दिन ने मेरी जिंदगी बदल दी जैसे।’
‘मुझे कहां ख़याल था कि रात दस बजे मुझे होटल तक लिफ्ट देने वाली मेरी जिंदगी ही लिफ्ट कर लेगी।’
‘हाहाहा। अरे लिफ्ट तो मैंने तुम्हें दी थी और अंग्रेजी में जिसे कहते हैं ना कि पिक तुमने किया।’
‘तुम्हारी गुलाबी साड़ी का कमाल भी शामिल था इसमें और मोगरे के फूलों का भी, जो तुमने वेणी में बांध रखे थे। आजकल कौन वेणी में फूल लगाता है यार?’
‘अरे वो तो शादी का मामला था, इसलिए साड़ी पहनी। फूल एक दोस्त ने लगा दिए थे, तुम्हें बताया भी तो था।’
‘हां, लेकिन हम उस ज़रा-से वक्फ़े में ही एक दूसरे को पता नहीं कैसे समझ गये उस दिन।’
‘ग़लती मेरी ही थी जो तुम्हें अपने घर सुबह नाश्ते के लिए बुला लिया।’
‘यह तो बुलाने से पहले सोचना चाहिए था ना?’
‘मैंने सोचा कि कोई बंदा इतनी दूर से एक शादी में शामिल होने आया है और होटल में रुका है, वो भी अकेला। उस पर मेरे घर के नज़दीक ही है तो बस कह दिया था। मुझे कहां पता था कि तुम सच में आ ही जाओगे?’
‘मैं कहां आया था, तुम ही तो आई थी मुझे लेने के लिए होटल।’
‘तुम्हारे कहने पर कि अंजान शहर में कैसे आ पाउंगा।’
‘और इतना सुनते ही जींस और शर्ट कसके लेने आ गई। मैं तो एकदम चौंक ही गया था तुम्हें देखकर।’
‘मुझे जो कंफर्टेबल लगता है, वो पहनती हूं मैं। तुम्हें चौंकाने के लिए तो मैंने नहीं ही पहना वो लिबास।’
‘चलो जाने दो इस बात को।’
‘लेकिन तुम उस दिन नाश्ते के लिए ही तो आए थे, नाश्ता करके गए क्यों नहीं?’
‘तुमने ही तो कहा था कि मैं आपको शहर घुमाऊंगी। फिर पूरा शहर दिखाया और रात में घर पर ही डिनर के लिए ले गई।’
‘बहुत देर हो गई थी ना उस दिन। मैंने सोचा बाज़ार का खाना खाकर बिचारा बीमार हो जाएगा। बस इसीलिए ले गई थी तुम्हें।’
‘और फिर खाने के बाद जो बारिश, आंधी और तूफान आया तो हम पता नहीं क्या और क्यों हो गए?’
‘वो मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा तूफान था।’
मेरे लिए भी...’
‘...’
‘कुछ बोलो ना सरिता...’
‘...’
‘हलो, क्या हुआ...’
‘...’
अबोलापन बढ़ता ही जा रहा था और तुम चुप थी। कुछ देर बाद फोन कट गया। मैं सोचता ही रहा कि आखिर हुआ क्या? मैं जानता था कि उस तूफानी रात के बाद हम दोनों के भीतर बहुत कुछ बदल गया था, लेकिन मैं उसे सिर्फ प्रेम ही समझता रहा और तुम्हारे पास शायद कई और तूफानों की यादें भी थीं, जिन तक मैं नहीं पहुंच पाया। मैं बहुत परेशान था और तुम्हें फोन करने-न करने की जद्दोजहद में उलझा था। हारकर मैंने एक मैसेज टाइप कर तुम्हें भेज दिया।
‘क्या हुआ सरिता, सॉरी अगर मेरी किसी बात से तुम्हें दुख पहुंचा हो तो? जब भी मन हो तो बात कर लेना और इसका जवाब ज़रूर देना। मैं जानता हूं कि वहां मेरी याद तुम्हारे पास है, जैसे मेरे पास तुम्हारी याद है।’
बहुत देर बाद यानी रात के करीब एक बजे तुम्हारा संदेश आया तो हम फिर संदेशों में बतियाने लगे।
‘जबसे तुम मेरे घर में अपनी याद छोड़कर गए हो ना, बस मैं उसी में मगन रहती हूं। हर वक्त बस उसी का ख़याल छाया रहता है मेरे जेहन पर।’
‘अच्छा, तो बताया क्यों नहीं तुमने?’
‘इसलिए कि तुम बेवजह काम के बीच डिस्टर्ब नहीं हो। तुम्हारी आदत ये है कि हर चीज़ के पीछे ही पड़ जाते हो। इससे दूसरे सारे काम रह जाते हैं। इसलिए तुम्हें सबक़ सिखाने के लिए मैं तुमसे दूर रहने की बात करती हूं।’
‘अच्छा, मैं तो तुम्हें किसी बात पर नाराज़ ही समझता रहा।’
‘मैं तुमसे नाराज़ होकर कहां जाउंगी यार। तुम जैसा मुझे कोई दूसरा पागल तो अब मिलने वाला नहीं?’
‘क्यों।’
‘अरे इस उमर में कौन चाहता है किसी को।’
‘इतनी उम्रदराज़ तो नहीं हो तुम।’
‘तुमसे पांच साल बड़ी हूं। तुम तो सिर्फ चालीस के हो।’
‘तो क्या हुआ, तुम्हें बुरा लगता है मेरा यूं तुमसे छोटा होना?’
‘नहीं, बहुत अच्छा लगता है लेकिन...’
‘लेकिन क्या...?’
और फिर तुम्हारी ओर से जवाब आना बंद हो गया। मैं हैरान था कि अब फिर क्या हो गया तुम्हें? मैंने आखिरकार तुम्हारा नंबर डायल कर ही दिया।
‘इस लेकिन का क्या मतलब है सरिता?’
‘मुझे डर लगता है।’
‘किस बात का डर है तुम्हें?’
‘मैं डरती हूं कि तुम्हें मुझसे क्या हासिल होगा?’
‘मतलब?’
‘अब हमारे मिलने से भी तुम्हें क्या मिल जाएगा? एक बुढ़ाती हुई काया और उसकी जिम्मेदारियां बस...। जबकि दो स्त्री-पुरुष मिलते हैं तो परिवार और वंशवृद्धि की भी सोचते हैं। मैं तो तुम्हें सिर्फ़ बोझ ही दूंगी ना?’
‘तो बस इसी बात का डर है तुम्हें?’
‘डर तो कई हैं यार, एक बड़ा डर तो तुमने ही दूर कर दिया।’
‘मैंने... कौनसा डर?’
‘बहुत छोटी थी मैं तब। कोई दसेक साल की। तब एक रिश्तेदार ने मेरे साथ जबर्दस्ती कुछ ग़लत करने की कोशिश की थी और तभी से मुझे पुरुष जाति से ही डर लगने लगा था। बहुत भयावह अनुभव था वह। बड़ी मुश्किल से मैं उसके चंगुल से छूटकर आई थी। बरसों-बरस मेरे मन पर मर्द की बस वहीं छवि अंकित रही। उस रात जब तुम मेरे घर में थे, मैं तब भी आशंकित थी। लेकिन उस दिन...’
‘लेकिन उस दिन क्या?’
‘मेरे मन ने कहा कि अगर बचपन का अनुभव ही सच्चा होता तो यह प्रेम कहां से पैदा होता? दुनिया में इतना प्रेम सिर्फ़ जबर्दस्ती से तो संभव नहीं है ना? और तुम उस दिन जैसे मेरे लिए देवदूत बनकर आए थे। तुमने ही बताया कि प्रेम सिर्फ कुटिल-कामी वासना नहीं है।’
अब चुप होने की बारी मेरी थी। बहुत देर बाद मैंने कहा, ‘अब क्या इरादा है तुम्हारा?’
‘मैंने तुम्हें यह बात नहीं बताई। पिछले दिनों एक रात अंधेरे में मेरा पांव अपने ही घर में फिसल गया और पांव में मोच आ गई। उस रात अकेले में कैसे मैंने अपने-आपको संभाला और अगले कुछ दिन सब चीज़ें कैसे मैनेज कीं, तुम्हें बता नहीं सकती।... उन दिनों में पहली बार अहसास हुआ कि मनुष्य अकेला क्यों नहीं रह सकता।’
‘बिल्कुल ग़लत बात है यह तो, तुम्हें कम से कम मुझे बताना तो चाहिए था ना...’
‘तुम बेवजह परेशान होते, बस इसीलिए कुछ नहीं बताया।’
‘ओके, लेकिन ऐसे अकेले दुख भोगने से बेहतर है कि बांट लिया जाए। अपना दुख किसी अपने को कहने-बताने से भी कम हो जाता है या कि ऐसा महसूस होता है।’
‘हां, बात तो तुम्हारी सही ही है। आगे से ध्यान रखूंगी। लेकिन एक बात पूछूं तुमसे?’
‘हां, पूछो ना।’
‘तुम इतने बरसों से अकेले क्यों हो?’
‘यह अकेलापन मेरा अपना चुनाव नहीं है।’
‘क्या...?’
‘हां, जन्म के साथ ही मुझे तो मरने के लिए सड़क पर छोड़ दिया गया था। ...पता नहीं किसने मुझे उस अनाथाश्रम में पहुंचाया, जहां मैं बड़ा हुआ।’
‘ओह माई गॉड। इट्स हॉरिबल।’
‘हां, लेकिन क्या किया जा सकता है अब? जन्म देने वाले मां-बाप को क्या कहूं... उनकी मज़बूरी रही होगी... ख़ैर छोड़ो, अब तो तुम मेरी मज़बूरी हो गई हो यार...’
‘तुम्हारे भीतर उस सबको लेकर कोई गिला-शिकवा नहीं...’
‘अब उस सबसे होना भी क्या है दोस्त?... मुझे जन्म देने वाले मिल भी जाते तो क्या होता... मेरी पहचान मिल जाती बस... कि मैं किस धर्म और जाति का हूं...? वैसे तुम्हें यह जानकर अगर शॉक लगा हो तो तुम मेरे बारे में फिर से पुनर्विचार कर सकती हो।’
‘ये क्या बकवास कर रहे हो तुम?’
‘फ्रेंकली स्पीकिंग... मैं अपना सच बता रहा हूं... बस।’
‘यह सुनकर मुझे तुमसे और लगाव हो गया है।... शायद क़ुदरत ऐसे ही मिलाती है हमें?’
‘हां शायद, अब बताओ, कल का क्या इरादा है तुम्हारा?’
‘मैं नदी की बेटी हूं, सुबह समुद्र से मिलना चाहती हूं।’
‘तो चले जाना ना, पास में ही तो है तुम्हारे होटल से।’
‘हां, लेकिन क्या तुम मुझे सुबह साढ़े पांच बज जगा सकोगे? मैं उगते हुए सूरज से मिलना चाहती हूं समंदर के किनारे।’
‘ज़रूर मैं तुम्हें जगा दूंगा। अब तुम सो जाओ। बहुत रात हो गई है।’
‘हां, सुबह दस बजे मीटिंग में भी जाना है।’
‘ओके, मैं तुम्हें जगा दूंगा। गुड नाइट।’
‘सुनो।’
‘हां कहो तो’
‘मेरी याद कहां है अब।’
‘वहीं यानी मेरे सीने पर।’
‘एक बात बताऊं तुम्हें।’
‘हां बताओ ना।’
‘मैंने भी तुम्हारी याद को गले से लगा लिया है।’
उसका इतना कहना था कि मुझे कानों में जैसे समंदर की लहरें धरती और आकाश के बीच गूंजने वाले कुदरती घुंघरुओं का संगीत सुनाने लगीं। खिड़की से बाहर, शीशे के पार हौले-हौले चांदनी बरस रही थी। शुक्ल पक्ष के ऐसे ही दिनों में चंद्रमा पृथ्वी के पास और पास चला आता है। इस मिलन के उछाह में समंदर हुलसने लगता है। लगता है हम दोनों की जिंदगी का शुक्ल पक्ष एक अंतहीन चांदनी रात लेकर आने ही वाला है। खिड़की से आने वाली हवा के कण-कण में घुली आनासागर की नमी जैसे कमरे में ही समंदर ले आई है।