लकीर से हटकर
लकीर से हटकर
गणेश चतुर्थी के मनाते ही घर में बात शुरू हो गई श्राद्ध पक्ष आने वाला है जल्दी से सभी ब्राह्मणों से बात कर लो ताकि फिर बाद में कोई मना न कर दे। बस फिर क्या था कभी इस मंदिर में तो कभी उस मंदिर में फोन पर फोन होने लगे। सारे ब्राह्मण् पंडितों की सूची बनाई गई जब ये सब चल रहा था घर के द्वार पर एक भिक्षुक आया लेकिन उसे अभी सभी व्यस्त हैं बाद में आना कहकर टाल दिया गया। आखिर श्राद्ध पक्ष आ ही गया । रोज़ पकवान पर पकवान पंडितों का आग्रह पर आग्रह। बहुत सा खाना थालियों में झूठा भी जा रहा था। उसी समय मेरा ध्यान खिड़की से बाहर गया जहाँ कई मज़दूर जिनके शरीर से हड्डियाँ झाँक रही थी सिर पर बोझा ढोए मकान के निर्माण कार्य में लगे हुए थे। उन्हें देखकर लग रहा था कि इनका शायद कोई लंच ब्रेक होता ही नहीं है। घर में जहाँ सबके पेट डाइनिंग टेबल बने नजर आ रहे थे वहीं बाहर हवा निकली हुई फुटबॉल की गेंद दिखाई दे रहे थे । इतना विपरीत नज़ारा देख मन भाव विभोर हो उठा । पंडितों के जाते ही मेरे मन को उद्वेलित कर रहे विचारों से घर के सभी सदस्यों को अवगत कराया और सबसे विनती की कि हमारे मन को शांति और सुकून तभी मिल सकता है जब हम उस भूखे को खाना खिलाएं जिसकी आत्मा से आशीष वचन निकले, जिसे संतुष्टि मिले, जिसका चेहरा खिल उठे। अगर श्राद्ध पक्ष के पंद्रह दिन हम इन्हीं मज़दूरों को खाना खिलाएंगे तो हमारे पितरों का आशीर्वाद हमें कई गुना मिलेगा और साथ ही इन मज़दूरों के चेहरे की मुस्कराहट, हमारे दिन भी ख़ुशियों से भर देगी। फिर क्या था अगले दिन से क्यों उसी समय से इसका अनुसरण हुआ और अंतिम दिन आते आते महसूस हुआ हमने सिर्फ़ कर्तव्य निभाने के लिए श्राद्ध पक्ष नहीं किया वरन आत्म संतुष्टि के लिए किया। इस श्राद्ध पक्ष का अनुभव दैवीय व अद्भुत था ।