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अधर्म

अधर्म

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मिर्जापुर के एक कस्‍बे की बहुत पुरानी बात है। वहाँ के जानेमाने यशस्‍वी, उदार, सुशील और सदाचारी ठाकुर बलराज सिंह के पास धन-दौलत के अलावा खेतीबाड़ी लायक साठ बीघे पुश्‍तैनी जमीन थी। संतान के नाम पर उनके पास केवल दो पुत्र थे लालमणि और नागमणि। कोई बेटी न थी। बाबू साहब शिक्षा का अर्थ और महत्‍व भलीभांति समझते थे। उन्‍होंने अपने दोनों पुत्रों को खूब पढ़ाया-लिखाया। उन्‍हें भरपूर शिक्षा-दीक्षा दी। दोनों बेटों को पढ़ा-लिखाकर वह योग्‍य और काबिल बना दिए। लालमणि बड़े थे और नागमणि छोटे।

पढ़-लिख लेने के बाद लालमणि रेलवे में जूनियर इंजीनियर बन गए और नागमणि एक सरकारी स्‍कूल में अध्‍यापक। लालमणि अपने पिता ठाकुर बलराज सिंह की तरह बड़े सात्‍विक, दयालु, उदार और धर्मनिष्‍ठ पुरूष थे। वह किसी को भूलकर भी कभी न सताते थे। लोग उनकी बड़ी इज्‍जत करते जबकि नागमणि यथानाम तथागुण एक अध्‍यापक होकर भी बहुत ही क्रूर और निर्दयी थे। उनके हृदय में उदारता और दयालुता नाम की कोई चीज न थी। उनकी नजर में धर्म-अधर्म और न्‍याय-अन्‍याय का महत्‍व न था। वह बड़े ही स्‍वार्थी और लोभी पुरूष थे।

ठाकुर साहब और अनकी अर्धांगिनी अश्‍विनी देवी वृद्धावस्‍था में तो पहुँच ही चुके थे। कुछ दिन बाद एक-एककर उन्‍होंने दुनिया से अपनी आँखें फेर ली। उनके देहावसान के बाद नागमणि एक रोज लालमणि से बोले- "भइया! अब अम्‍मा और बाबूजी तो रहे नहीं उन्‍हें गुजरे हुए डेढ़-दो साल गुजर गए। अगर आपको कोई आपत्ति न हो तो मेरे हिस्‍से की जमीन-जायदाद अलग कर दीजिए।"

व्‍ह फिर बोले- "सच मानिए, आपका उपदेश सुनते-सुनते मेरा जी अब बिल्‍कुल ऊब चुका है। अब मैं आपसे एकदम अलग रहना चाहता हूँ। आप बड़े मुकद्‌दर वाले हैं। अपना नसीब एकदम खोटा है। मैं करता कुछ हूँ तो हो जाता है कुछ। आपके पास कुल मिलाकर एक ही औलाद है। अमर आपका इकलौता बेटा है। हमारे पास तीन बेटियाँ और दो पुत्र हैं। इन्‍हें पढ़ाते-लिखाते मेरा तो कचूमर ही निकल जाएगा। एक बच्‍चे को आप जैसे चाहेंगे वैसे पढ़ा-लिखा लेंगे।"

तब लालमणि हँसकर बोले- "अरे भई! इससे क्‍या फर्क पड़ता है ? क्‍या मैं तुम्‍हारे बच्‍चों से कोई भेदभाव करता हूँ ? मैं सभी बच्‍चों को अपना ही मानता हूँ। हाँ इतना जरूर है कि अगर तुम्‍हारी मंशा हमसे अलग रहने की ही है तब कोई बात नहीं। तुम बड़े शौक से अलग रह सकते हो। मेरी तो इच्‍छा यही थी कि हम दो ही भाई हैं। कोई बहुत लंबा-चौड़ा परिवार नहीं है इसलिए संयुक्‍त परिवार ही बना रहे तो कितना अच्‍छा रहेगा।

यह सुनते ही नागमणि ने बड़ी निर्ममता से निःसंकोच कहा- "नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं लेकिन अलग-अलग रहने में हर्ज ही क्‍या है ? दरअसल अब मैं बगैर किसी दबाव के स्‍वतंत्र रहना चाहता हूँ। जीवन भर पारिवारिक बंधनों में पड़े रहना मुझे कतई पसंद नहीं है। आप अपना देखिए और मैं अपना। हम दोनों का भाग्‍य अलग-अलग ही है, तब अगर हम एक-दूसरे से अलग रहेंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा ? मुझे उलझन में न डालिए। आपको मैंने अपना आखिरी निर्णय सुना दिया। आगे आपकी मर्जी। आप जानें और आपका काम जाने। मुझे जो कुछ भी कहना था कह दिया।"

यह सुनकर बाबू लालमणि उदास होकर बोले- "छोटे ! जब तुम्‍हारी यही इच्‍छा है तो ऐसा ही सही। मैं पटवारी को कल ही बुलाकर आधी खेतीबाड़ी तुम्‍हारे नाम करा दूँगा। तुम चिंता न करो। मेरी ओर से बिल्‍कुल निश्‍चिंत रहो। मैं तुम्‍हारे विचारों की बड़ी कद्र करता हूँ। इस काम में अपनी ओर से जानबूझकर मैं कोई अड़चन न डालूँगा। मैं यह अधर्म कदापि नहीं कर सकता।"

तत्‍पश्‍चात अगले दिन सुबह ही लालमणि बाबू ने इलाके के पटवारी को बुलवाकर तीस बीघे जमीन उनके नाम कर दिया। इसके साथ ही पुश्‍तैनी मकान का बँटवारा भी हो गया। अब एक घर में दो चूल्‍हे जलने लगे। अलग होते ही नागमणि आपे अग्रज लालमणि और भौजाई तृप्‍ति देवी को एकदम भूल से गए। उनके दिल में फर्क आ गया। उनका मन बदल गया। उसमें अब खोट ही खोट आ गया। एक घर में रहते हुए भी उनका व्‍यहार इतना अधिक बदल गया कि वह इस तरह रहने लगे जैसे उन्‍हें जानते ही नहीं। ऐसा लगता मानो दौलत बँटवारे के साथ-साथ उनके दिल भी बँट गए। हालांकि लालमणि बाबू इसके बावजूद उनका बड़ा ख्‍याल रखते थे।

उन्‍हें हमेशा नागमणि की चिंता लगी रहती। घर पहुँचते ही अपनी पत्‍नी तृप्‍ति देवी से एक ही साथ तरह-तरह के सवाल पूछने लगते- "छोटे कहाँ है ? उसने भोजन किया या नहीं ? आजकल वह बहुत उदास दिखाई पड़ रहा है। वह दिन-प्रतिदिन दुबला होता जा रहा है। उसे क्‍या तकलीफ है। अभी से उसे कौन सी फिक्र खाए जा रही है। वह मुझे कुछ बताता क्‍यों नहीं ? अगर वह मुझे कुछ बता देता तो मैं उसकी कोई न कोई सहायता अवश्‍य करता।"

समय इसी तरह पंख फैलाकर तीव्रगति से गुजरता रहा। धीरे-धीरे कई साल बीत गए। नागमणि के मन में संतोष नाम की कोई चीज तो थी नहीं वह अंदर ही अंदर बाबू लालमणि की संपन्‍नता से द्वेष करने लगे। मन में ईर्ष्‍या उत्‍पन्‍न होते ही उनका विवेक मर गया। उनकी बुद्धि भ्रष्‍ट हो गई। अक्‍ल नष्‍ट हो गई। मानो वह घास चरने चली गई। यकायक उन्‍हें दुर्बुद्धि ने आ घेरा। वह मृगतृष्‍णा के शिकार हो गए। लालमणि बाबू के प्रति नागमणि के अंतस्‍तल में बड़े बुरे विचार आने लगे। वह मन ही मन सोचने लगे कि यदि आज लालमणि संसार में न होते तो सारी जमीनों का मालिक मैं ही रहता।

जैसे-तैसे कुछ समय और व्‍यतीत हुआ। तभी एक दिन यकायक ऐसी घटना घटी कि उससे बाबू लालमणि की पत्‍नी तृप्‍ति देवी पर गमों का पहाड़ ही टूट पड़ा। देखते ही देखते उनकी दुनिया वीरान हो गई। उनका हराभरा चमन उजड़कर रह गया। वह दुःखों के सागर में डूबने-उतराने लगीं। बाब लालमणि दफ्‍तर से घर जाते समय एक बड़ी दुर्घटना के शिकार हो गए।

अस्‍पताल ले जाने पर डॉक्‍टर उन्‍हें बचाने में असमर्थ रहे। वह बेचारे असमय ही सबको छोड़कर संसार से चल बसे। तृप्‍ति देवी एक विधवा का जीवन जीने को विवश हो गईं। उनके जीवन का कोना-कोना एकदम सूना हो गया। हालांकि कुछ वक्‍त गुजरने के बाद ही उन्‍हें अपने पतिदेव के स्‍थान पर नौकरी मिल गई पर, वह बाबू लालमणि को फिर कभी भुला न सकीं।

लालमणि बाबू के दूर जाते ही नागमणि अपने मन में बहुत प्रसन्‍न हुए। मानो उनके मन की मुराद पूरी हो गई। उनकी निगाह में उनके सबसे बड़े बैरी का अंत हो गया लेकिन कुछ लाकलाज के भय से वह अपनी भाभी तृप्‍ति देवी और भतीजे अमर से दिखावटी हमदर्दी जताने लगे। वह उनसे कहते- "भाभीजी ! आप फिक्र न कीजिए। भइया नहीं रहे तो कोई बात नहीं। मैं ता अभी जिंदा हूँ। अपने रहते आप दोनों को मैं कोई कष्‍ट न होने दूँगा। यही सनातन धर्म है कि जीवन और मृत्‍यु पर किसी का कोई वश नहीं चलता। शायद ईश्‍वर को यही मंजूर था।"

तृप्‍ति देवी सीधे स्‍वभाव की निष्‍कपट महिला तो थीं ही वह बनावटपने से हमेशा कोसों दूर रहती थीं। उन्‍होंने बिना किसी तर्क-वितर्क के नागमणि की इन मीठी-मीठी कपटमय बातों पर बड़ी सरलता से यकीन कर लिया। उनकी बातों पर उन्‍हें लेशमात्र भी संदेह न हुआ।

वह सोचने लगीं- अपने पास ले-देकर एक बेटा ही है देवर जी उसकी देखभाल कर लेंगे। वह उसे पढ़ने-लिखने में उसकी पुत्रवत मदद ही करेंगे। अपने पास जायदाद ता है ही वह अपनी ओर कोई कसर न रहने देंगे। उसकी भरपूर निगरानी करेंगे। यदि अब मैं भी न रहूँ तो गम नहीं। वह उसके साथ कोई बुरा बर्ताव कदापि न करेंगे। यद्यपि नागमणि के दिल में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी। इससे तृप्‍ति देवी बिल्‍कुल अनजान थीं। उन्‍हें दुनियादारी का पूरा ज्ञान न था।

समय के साथ-साथ बाबू लालमणि और तृप्‍ति देवी के कलेजे का टुकड़ा अमर आहिस्‍ता-आहिस्‍ता बालिग होने को आ गया। अब वह बारहवीं पास करके इंजीनियरिंग क्‍लास में पहुँच गया। जुलाई-अगस्‍त में दाखिला लेकर वह बी.टेक की पढ़ाई पूरी करेगा। अमर बहुत ही होनहार लड़का था। वह अपने माता-पिता की हर आज्ञा का पालन तो करता ही था, अपने चाचा नागमणि और चाची नागेश्‍वरी का कहना भी मानता था। वह उनके किसी हुक्‍म की कभी नाफरमानी न करता।

नागमणि के मन में पाप तो समा ही चुका था उनके बच्‍चे आधुनिकता की चकाचौंध में खो गए। वे पढ़-लिख न सके। किसी ने किसी क्‍लास में पढ़ाई-लिखाई से मुँह मोड़ लिया तो किसी ने किसी क्‍लास में। सबके सब अनपढ़ ही रह गए। डॉक्‍टरी और इंजीनियरी को कौन कहे वे दसवीं, बारहवीं कक्षा भी अच्‍छे नंबरों से पास न कर सके। उनकी शिक्षा अधूरी ही रह गई। यह देख पति-पत्‍नी के हृदय में अपार पीड़ा होने लगती। उनका कलेजा कचोट उठता। वे तड़पकर रह जाते।

अमर की मजबूत कद-काठी, सुंदर, गठीली देह और बुद्धि देखकर राजा मुंजराज की भांति नागमणि सोचने लगे- हमारा सबसे बड़ा दुश्‍मन तो इस जग से जवानी में ही चला गया किन्‍तु अब अगर यह कमबख्‍त अमर न होता तो मेरी सारी चिंता मिट जाती। यह अकेले आधी जमीन का स्‍वामी बनेगा और मेरी खेती दो जगह बँट जाएगी। उस पर भी इस महँगाई के समय में तीन-तीन बेटियों विवाह भी करना है। लगता है अपनी कुछ खेती तो उनकी शादी में बिक ही जाएगी। अपनी तनख्‍वाह का तीन चौथाई खाद-पानी में ही चला जाता है। बाढ़ और अकाल का सामना भी करना पड़ता है।

मासूम अमर को भोजराज की तरह अपनी प्रगति मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा समझकर नागमणि उसे रास्‍ते से हटाने का यत्‍न करने लगे। मनुष्‍य के मन में जब एक बार पाप समा जाता है तब उसके मन की शांति भंग हो जाती है। वह सदैव षड़यंत्र रचने में ही उलझा रहता है। भाई ही अपने भाई का शत्रु बन जाता है। वह उसकी जान तक लेने पर उतारू हो जाता है। नागमणि भी अमर को मारने की खातिर दिन-रात बड़ बेचैन रहने लगे। उनकी रातों की नींद न जाने कहाँ उड़ गई। अपने मकसद में कामयाब होने के लिए वह एक से बढ़कर एक उपाय खोजने लगे। अपने इस मंतव्‍य को उन्‍होंने अपनी पत्‍नी नागेश्‍वरी को भी बता दिया। इस अधर्म को अंजाम देने के लिए उसने भी खुशी से हामी भर दी। वह चाहती तो नागमणि को ऐसा करने से रोक सकती थी पर, रोका नहीं। शायद जमीन-जायदाद के लालच में उसके अंदर की माँ और उसकी ममता मर गई।

अपने षड़यंत्र की सफलता की खातिर नागमणि ने तृप्‍ति देवी और अमर से अपना दिखावटी व्‍यवहार पहले से और अधिक दर्शाना शुरू कर दिया। इससे माँ-बेटे उनके झाँसे में आते गए। वे उन पर असीमित रूप से विश्‍वास करने लगे। उन्‍हें यह आभास तक न हुआ कि नागमणि वास्‍तव में किसी न किसी दिन उनके लिए एक विषैला नाग ही साबित होंगे। वह उन्‍हें डस लेंगे। तृप्‍ति देवी ने स्‍वप्‍न में भी न सोचा कि जो चाचा आज अपने भतीजे पर इतनी जान छिड़क रहा है वही किसी दिन उसकी मौत का सौदागर बन जाएगा। वह उसका चाचा नहीं बल्‍कि साक्षात यमराज है। वह उसे काल का ग्रास बनाने को तैयार बैठा है। मौका पाते ही वह अमर को बाज की तरह धर दबोचेगा।

तृप्‍ति देवी और अमर का विश्‍वास जीत लेने के बाद नागमणि को अपने मन की मुराद पूरी होती दिखाई देने लगी। उनके चेहरे पर वह कुटिल मुस्‍कान छा गई। उनका हृदय मारे खुशी के हिलोरें मारने लगा। वह नादान पक्षी को फँसाने के लिए दिन-रात जाल बुनने में जुट गए।

एक रोज की बात है इतवार का दिन होने की वजह से तृप्‍ति देवी भी घर पर ही थीं। लालच मनुष्‍य से जो चाहे सो करवा ले। लालच वाकई बहुत बुरी बला है। बढ़िया अवसर देखकर नागमणि ने अपने मन के भावों को आसानी से छिपाकर बड़ी चालाकी से बहाना बनाते हुए अमर से कहा- "बेटा अमर ! तनिक एक काम कर दो। मुझे कहीं बहुत जरूरी काम से बाहर जाना है। मैं अभी वहाँ जा रहा हूँ। तुम ऐसा करो रामनगर के चंद्रकांत वर्मा जी के पास चले जाओ। वह कुछ पैसे देंगे उसे ले आओ। उनसे कहना कि चाचा जी ने भेजा है।"

यह सुनते ही अमर बड़ी मासूमयित के साथ बोला- "चाचाजी! आप फिक्र न कीजिए। मैं अभी चला जाता हूँ। आपको जहाँ जाना है आराम से जाइए।"

नागमणि को कहीं जाना तो था नहीं वह तो अपना शिकार दबोचने की फितरत में थे। किसी को कोई शक न हो इसलिए साइकिल उठाकर कहीं और जाने के बहाने चुपचाप मार्ग बदलकर रामनगर की ओर चल पड़े। सायंकाल का समय था। अंधेरा होने में कुछ ही वक्‍त बाकी था। नागमणि एक निर्जन और सुनसान स्‍थान पर गुपचुप छिपकर अमर के आने का बड़ी बेताबी से इंतजार करने लगे।

अमर बेचारे को उनकी मंतव्‍यता के बारे में कुछ अता-पता तो था नहीं वह निर्द्वंद्वमन से बेखटके अपनी मंजिल की ओर गुनगुनाते हुए चला जा रहा था। उसे देखते ही नागमणि दबे पाँव उसके पीछे-पीछे चलने लगे। फिर उसके निकट पहुँचकर मुस्‍कराकर बोले- "अमर! रूक जाओ। आज वहाँ मत जाओ। वर्मा जी आज घर पर नहीं हैं। वह कल मिलेंगे। मैंने मोबाइल पर उनसे बात किया तो पता चला कि वह कहीं बाहर गए हैं। इसलिए मुझे जहाँ जाना था वहाँ नहीं गया। तुम्‍हें बताने यहाँ आ गया। ऐसा करना फिर कभी चले जाना। आज रहने दो।"

तत्‍पश्‍चात वह अमर से फिर बोले- "आओ थोड़ा सुस्‍ता लेते हैं। बडी अच्‍छी ठंडी-ठंडी हवा चल रही है। इसके बाद घर चलेंगे।" नागमणि पास में ही स्‍थित एक पुलिया पर अमर के साथ बैठकर अंधेरा होने की प्रतीक्षा करने लगे। अब शिकार पूरी तरह बहेलिया के कब्‍जे में था। इसके बाद नागमणि बड़े प्‍यार से गपशप करते हुए अमर की गर्दन पर शेर जैसे अपने मजबूत पंजे को घुमा- फिराकर टोह लेने लगे कि इसे दबाने के लिए कितनी ताकत लगाने की जरूरत है।

अमर के गर्दन की थाह पाते ही बेहतर मौका देखकर नागमणि ने एक ही झटके में उसे इतनी क्रूरता से दबा दी कि वह बेचारा हाथ-पैर भी न चला सका। उन्‍हें उस पर तनिक भी तरस न आया। अमर छटपटाता ही रह गया। पलक झपकते ही उसके प्राणपखेरू उड़ गए। वह अपनी विधवा माँ को छोड़कर हमेशा के लिए एकदम शांत हो गया। वह असमय ही बहुत दूर चला गया। इकलौते बेटे के चले जाने से तृप्‍ति देवी इस निष्‍ठुर दुनिया में अकेली रह गईं।

अमर को काल के गाल में पहुँचाकर नागमणि ने उसकी लाश को ले जाकर नजदीक ही स्‍थित जंगल के एक गहरे पानी भरे गड्‌ढे में दबा दिया। जिसे रात में खोदकर खूँखार जंगली जानवर उठा ले गए। अमर को पूर्णतया ठिकाने लगाने के पश्‍चात निश्‍चिंत होकर रात के दस बजे तक घर वापस पहुँच गए और अपनी पत्‍नी नागेश्‍वरी से बोले- "अरे! अमर अभी तक लौटा नहीं ? ऐसा लगता है वर्माजी ने रात्रि का समय होने से उसे वहीं पर रोक लिया। चलो कोई बात नहीं सुबह आ जाएगा। उस वक्‍त उनकी ओर किसी ने गौर नहीं किया और बात आई गई हो गई।"

रात व्‍यतीत हो गई। फिर सवेरा हो गया। नागमणि अपने भतीजे अमर का पता लगाने के नाम पर घर से निकल गए और ज्‍यों के त्‍यों शाम तक घर वापस पहुँचकर पुनः बहानेबाजी बनाने में जुट गए। अमर को गायब होते देख तृप्‍ति देवी का हाल रो-रोकर बहुत बुरा हो रहा था। उन पर मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा। वह बिलखते-बिलखते बेहोश-सी हो गईं। नागमणि को टालमटोल करते-करते समय इसी प्रकार बीतता रहा। आजकल-आजकल कहते लगभग एक पखवाड़ा बीत गया। फिर बीस दिन भी गुजर गए परंतु अमर का कहीं पता न चला। तदंतर यह मानकर कि अमर अपनी पढ़ाई वगैरह त्‍यागकर कहीं चला गया तृप्‍ति देवी मन मारकर रह गईं।

अमर की हत्‍या हो गई और नागमणि का बाल भी बाँका न हुआ। वह एकदम साफ-साफ बच गए। पुलिस में रिपोर्ट करने पर वह भी अमर का पता लगाने में नाकाम रही। उसके हाथ कहीं कुछ भी न लगा। वह भी उसे न ढूँढ़ पाई। आखिर नागमणि के कारनामों पर पड़ा पर्दा पड़ा ही रह गया। नागमणि के सामने सच्‍चाई दबकर ही रह गई। मगर, नागमणि पति-पत्‍नी यह बात भूल गए कि आत्‍मा अजर अमर होती है। वह कभी मरती नहीं है। उन्‍होंने बस यही समझा कि अमर की आत्‍मा मर गई। यद्यपि ऐसा न हुआ। अमर की आत्‍मा अमर ही रही।

वक्‍त गुजरने के साथ अमर की आत्‍मा पच्‍चीस-छब्‍बीस वर्ष की जवान हो गई। जवान होते ही वह नागमणि और नागेश्‍वरी को तरह-तरह से सताने लगी। उसने उनकी नाक में दम कर दिया। वे उससे बहुत तंग आ गए। धीरे-धीरे वह उन पर हावी होने लगी। नागमणि और नागेश्‍वरी परास्‍त होते नजर आने लगे। यह देखकर वह चिकित्‍सकों के साथ नामीगिरामी तांत्रिकों का सहारा भी लेने लगे। किन्‍तु कहीं कोई फायदा न हुआ।

अब उन्‍हें अपनी करनी पर पछतावा होने लगा। वे मन ही मन पछताने लगे। उन्‍हें अनुभव होने लगा कि हमने अमर को मारकर बहुत बुरा किया। हमने बहुत अधर्म का काम किया। यदि ऐसा न किसा होता तो आज यह दिन हरगिज न देखना पड़ता। अब तो लगता है अमर की आत्‍मा हमारी जान लेकर ही शांत होगी। अंततः नतीजा यह निकला कि अमर की प्रेतात्मा ने उन्‍हें पटक-पटककर मार डाला। उसने उनसे अपना बदला ले लिया। नागमणि ने अमर की हत्‍या की थी और अमर ने उन्‍हें यम की गोद में भेज दिया। इससे उसकी आत्‍मा को शांति मिल गई। उसने उधम मचाना त्‍याग दिया।


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