हैलो
हैलो
एक बाग में रहता था एक घर। ख़ूबसूरत, मज़बूत,लकड़ी का – लट्ठे के ऊपर लट्ठा। सर्दियों में घर बर्फ के गर्म कंबल में दुबक कर सोता। सोता और देखता हरे-हरे सपने। हरे – इसलिए, कि घर को दुनिया में सबसे ज़्यादा चमकीला-हरा बसन्त और चटख-लाल गर्मियाँ पसन्द थीं। बसन्त में वह बाग,जिसमें घर रहता था, हरा होना शुरू हो जाता। घास की कोंपलें फूटतीं, सेब के, चेरी के, लिली के पेड़ों पर नन्हीं-नन्हीं पत्तियाँ प्रकट होती। फिर ये पत्तियाँ बड़ी-बड़ी पत्तियों में बदल जातीं और घास ऊँची, घनी। चमकदार हो जाती। चारों ओर की हर चीज़ हरी-हरी हो जाती। हर चीज़ - पोर्च के पास वाले लाल गुलाबों, एक खिड़की के नीचे सफ़ेद डेज़ी और दूसरी के नीचे वाले नीले फूलों को छोड़कर जिन्हें “बश्माच्की” (“नन्हे जूते” – अनु।) भी कहते हैं।
गर्मियों में घर में हँसमुख, ख़ुशमिजाज़ लोग आते। वे, जिन्हें सैलानी कहते हैं। सैलानियों ने खिड़कियों की फ्रेम्स को हरे रंग में रंगा। और बूढ़े साही को शक्कर के छोटे-छोटे , टुकड़े भी खिलाए। मैं ये बताना भूल गई, कि पोर्च के पास एक बूढ़ा साही अपने बिल में रहता था।
तो, ऐसे रहता था घर : हरे बाग में, ख़ुशमिजाज़ लोगों के साथ और पोर्च के पास वाले अपने बूढ़े साही के साथ। आराम से रहता था घर। सब कुछ अच्छा ही रहता अगर एक अजीब-सा, छोटा-सा इलेक्ट्रिक इंजिन न आया होता। बात ये थी, कि घर के सामने से रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं। या,अगर आप चाहें तो ये भी कह सकते हैं : घर रेल की पटरियों के पास था। ये महत्वपूर्ण नहीं है, कि कैसे कहा जाए, मगर, पुरानी पटरियों से गुज़रने वाली सभी रेलगाड़ियों से घर की दोस्ती थीं।
रेलगाड़ियाँ काफ़ी दिलचस्प बातें बताती थीं। ये आ रही है – साउथ एक्स्प्रेस। टुक्-टुक्-टुक् – पहिए खड़खड़ाते हैं। ये साउथ एक्स्प्रेस सुनाती है पीले नींबुओं और नीले समन्दर के बारे में। फ़िर से जानी पहचानी टुक्-टुक्-टुक् – ये है नॉर्थ एक्स्प्रेस। उसकी कहानी – नॉर्थ की चमचमाती बर्फ़ और काली चट्टानों के बारे में है।
काफ़ी सालों तक अच्छे पड़ोसियों की तरह हिल मिल कर रहे घर और रेल की पटरियाँ – उसकी रेलों समेत। सब कुछ अच्छा ही रहता, अगर एक छोटा-सा इलेक्ट्रिक इंजिन न प्रकट होता। ये एक असाधारण रूप से व्यस्त इलेक्ट्रिक इंजिन था। वह कई बार घर के पास से गुज़रता, कुछ भी नहीं कहता और बेहद कर्कश सीटी बजाता।
“कैसा अजीब है ये,” घर सोचता, “ वह बहुत व्यस्त है, उसके पास बहुत काम है। ये बात मैं समझता हूँ। मगर फ़िर इतनी ज़ोर से सीटी क्यों बजाता है?" अचरज से घर की चिमनी हिलने लगती। “जैसे ही मुझे देखता है, सीटी बजाने लगता है। बहुत अजीब है!”
घर ने बर्दाश्त किया, बर्दाश्त किया, मगर एक दिन उसके सब्र का बाँध टूट ही गया। उसने फ़ैसला कर लिया कि पुरानी, रिहायशी जगह को छोड़कर कहीं दूर चला जाएगा, जहाँ छोटे-से इलेक्ट्रिक इंजिन की सीटी न सुनाई दे। पोर्च राज़ी हो गया। तहखाना,अटारी और छत भी तैयार हो गए। मगर एक खिड़की बड़ी देर तक राज़ी नहीं हुई, वो, जो “बश्माकी” फूलों की ओर देखा करती थी। मगर आख़िरकार सबने मिलकर उसे मना ही लिया। भट्टी के पाइप ने अपनी परिचित गिलहरी से सलाह-मशविरा किया और पता लगाया कि बगल में ही, जंगल में एक बहुत अच्छा मैदान है। घर ने वहीं पर बसने का फ़ैसला किया।
जाने-पहचाने बाग से, हंसते-खेलते सैलानियों से, बूढ़े साही से जुदा होना बेशक बहुत बुरा लग रहा था। अफ़सोोस था, मगर इलेक्ट्रिक इंजिन काफ़ी दर्दभरी ज़ोरदार सीटी बजा रहा था। एक बार घर ने सकुचाहट से अपने फ़र्श को चरमराते हुए कहा भी:
“मेरे प्यारे बाग, और आप, हँसमुख लोगों, और तू, बूढ़े साही,समय आ गया है बिदा लेने का। मैं जंगल में जा रहा हूँ। वहाँ अकेला रहूँगा, क्योंकि इस छोटे इलेक्ट्रिक इंजिन ने मेरी बेइज़्ज़ती की है। वो मुझ पर सीटी क्यों बजाता ?!"
और घर ने निकलते हुए एक पोर्च उठाया। मगर ये क्या!।।।हरा-हरा बाग बुरा मान गया और सरसराते हुए बोला:
“बेश—क, बे—श—क।।।हरे-हरे जंगल में तू फ़ौरन मेरे बारे में भू-ऊ-ऊ-ऊ-ल जाएगा। क्योंकि जंगल,शायद, मुझसे, तेरे बाग से, ज़्यादा हरा है।”
और हँसमुख सैलानी उदास-उदास हो गए और बुरा मानते हुए बोले:
“बेहद अफ़सोस , मगर हमें तो अपने शहर के क्वार्टर्स में लौटना पड़ेगा। हम ऐसे घर में तो नहीं ना रह सकते, जो जंग़ल में हो। वहाँ रेलगाड़ी नहीं है। हम अपने काम के लिए शहर कैसे जाएँ?”
और वे लोग अपने-अपनी सूटकेस भरने लगे।
और बूढ़ा साही, जो पोर्च के पास रहता था, बोला:
“जाओ-जाओ, जिसे जाना है जाओ। मगर मैं तो यहीं रहूँगा। मेरा ख़याल हैै, कि अगर इलेक्ट्रिक इंजिन सीटी बजाता है, तो इसकी कोई-न-कोई वजह ज़रूर होगी।”
“हा,” घर ने सोचा, “गड़बड़ हो रही है। मैं लोगों की गर्मियाँ ख़राब कर रहा हूँ। और बाग भी अकेला रह जाएगा। और बूढ़ा साही, शायद, बुरा मान गया है। क्या रुक जाऊँ? ना जाऊँ?”
मगर इसी समय छोटा इलेक्ट्रिक इंजिन कानों को बहरा करते हुए सीटी बजाने लगा। और घर ने फिर से जाने के लिए पोर्च को उठाया। सिर्फ बूढ़े साही ने उसे रोका।
“ठहर,” उसने कहा, “थोड़ा ठहर। कहीं तू सचमुच तो नहीं जा रहा है?
“अरे, पता नहीं, मालूम नहीं कि क्या करना चाहिए!” बूढ़ा घर रोते-रोते चरमराया। “मुझे लगता हैै, कि इलेक्ट्रिक इंजिन मेरी हँसी उड़ाता है। सिर्फ हँसी उड़ाता है! वर्ना मुझे देखते ही वह सीटी क्यों बजाने लगता है?”
“आह,” बूढ़ा साही बोला। फिर उसने कहा – “ओय-ओय-ओय! आदरणीय घर, मेरा ख़याल है, कि तू बहुत बड़ी गलती कर रहा है। मैं अभी जाकर सारी बात का पता लगाता हूँ।”
बूढ़ा साही रेल-पटरियों की क्रॉसिंग के पास भागा और उसने चौकीदार से एक मिनट के लिए छोटे इंजिन को रोकने के लिए कहा। रेल के चौकीदार को बेहद अचरज हुआ। आज तक किसी भी साही ने उससे कुछ भी नहीं कहा था। अचरज तो हुआ, मगर वह राज़ी हो गया, क्योंकि वह अच्छा आदमी था।
तो, छोटा इलेक्ट्रिक इंजिन रुक गया, और बूढ़ा साही उससे आदर के साथ, धीमी आवाज़ में बातें करने लगा। जब इलेक्ट्रिक इंजिन को पता चला कि उसकी सीटी की वजह से कितनी मुसीबतें खड़ी हो सकती हैंतो वह बेहद परेशान हो गया।
“माफ़ कीजिये,” उसने सकुचाते हुए कहा, “मुझे माफ़ कर दीजिए। मेरा कुसूर भी नहीं है। बस,हम एक-दूसरे को समझ नहीं पाए। मैं आपके घर की तौहीन करने के लिए सीटी नहीं बजाता था। बात ये है, कि हम - इलेक्ट्रिक इंजिन, स्टीमर, कोयले के इंजिन – सीटियाँ या भोंपू बजाकर एक दूसरे से “हैलो!” कहते हैं। आपका घर रेल-पटरियों की बगल में ही रहता है, तो मैंने सोचा कि वह भी कुछ-कुछ रेलगाड़ी जैसा ही है। मैं सिर्फ सीटी नहीं बजाता था, बल्कि घर से “हैलो !” कहता था, और अब मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कि मुझे क्या करना चाहिए। सीटी बजाना मना है, मगर क्या “हैलो!” ना कहना अच्छी बात है?”
“सुन,” बूढ़ा साही बोला, "क्या तू हौले से हैलो नहीं कह सकता?”
“ऐसे?” छोटा इलेक्ट्रिक इंजिन बोला और उसने हल्की, ख़ुशनुमा सीटी बजाई।
“ये बात!! ये ही तो चाहिये,” बूढ़ा साही ख़ुश हो गया। और सब कुछ पहले जैसा ही रहा। घर अपने हरे बाग में ही रहता है। पोर्च के पास बूढ़ा साही रहता है। गर्मियों में सैलानी लोग आते हैं। और छोटा इलेक्ट्रिक इंजिन करीब से भागते हुए ख़ुश, हल्की आवाज़ में सीटी बजाता है।