विध्वंस
विध्वंस
कल की गुल-ए-गुलज़ार, हल दिल अजी़ज कोठी की रौनक़, महफिल-ए-शान नीलिमा की जान आज उसकी नवासी नन्ही सी कली शाजि़या में अटकी हुई थी। उसके सहयोग से सबके विरोध के बावजूद उसकी बेटी तबस्सुम ने उसको इस क़ाबिल बना दिया था कि वह अपनी इसी पारम्परिक कला से सबको सभ्य समाज में सिर उठाने लायक सम्मान दिला सके।
सामनें की छोटी गोल मेज पर नृत्य नाटिका का आमन्त्रण पत्र रखा हुआ था, जिसमें नवासी का नाम सुन्दर अक्षरों में नृत्य कला सम्राज्ञी के रूप में लिखा हुआ था। ‘कभी इसी कला के पोषक राजे-रजवाड़े लोगों के मध्य हमें हेय दृष्टि से देखा जाता था। पर आज बदलते समय में ध्वस्त होती मान्यताओ के कारण लोग उसी कला में पारंगत होने पर सिर माथे पर बिठा रहे हैं।’ सोंच रही थी बूढ़ी रक्कासा नीलिमा।
आँखों से बहते खुशी के आँसू पोंछ विध्वंसक उपालम्भो को पीछे छोड़ सिर को झटक नये प्रतिमानों का स्वागत करनें के लिये आगे बढ आज इस विशाल सभागार में बेटी संग विचारमग्न बैठी वह करतल ध्वनि की तेज गड़गड़ाहट से ध्यान भंग होने पर उठ कर खुशी से जोर जोर ताली बजाने लगी।