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एक जोड़ी चप्पल

एक जोड़ी चप्पल

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भान सिंह के एक ही संतान थी, पुत्र जिसका नाम ख़ुशी से उदल रखा था अपने वीर पुरखों की याद में। भान सिंह के पास दो बीघा से थोड़ा सा ज्यादा ज़मीन थी और एक झोपड़ी। अब उस झोपड़ी में भान सिंह उसकी पत्नी और उसका बेटा, दो बैल नरसा और परमा ही रहते थे। भान सिंह को बहुत प्यारे थे अपने दोनों बैल, भान सिंह की पत्नी का नाम वैसे तो केसरी था अब वो उनके वजूद की तरह ही सिकुड़ कर केसों हो गया था। थोड़ी सी खेती और मजदूरी से दोनों पति पत्नी रोटी का जुगाड़ कर लेते थे परन्तु वर्ष के कुछ दिन वो भी नहीं होता था। भान सिंह अनपढ़ था लेकिन अपने बेटे को पढ़ा रहा था सरकारी स्कुल में, सोचता था कि पढ़कर कोई नौकरी कर लेगा तो इस जिन्दगी से उसे तो छुटकारा मिलेगा। जिस बुन्देलखंड के इतिहास को वहाँ के वीरों और वहाँ की खान के हीरों ने स्वर्णिम बनाया था अब वो धरा दरिद्र थी। सूखे की मार लगभग हर वर्ष, बहुत ही कम सिंचित भूमि, कृषि पूरी तरह से मौसम पर निर्भर और उद्योग भी ना के बराबर। यहाँ ना कृषि में करने को कुछ है और ना ही रोज़गार। यहाँ के गाँव में युवा कम ही हैं क्योंकि युवा अन्य राज्यों में जाकर रोज़गार तलाशते हैं। परन्तु भान सिंह अपने थोड़े से ज़मीन के टुकड़े से और अपने दो बैलो से इतना बंधा था कि गांव छोड़कर नहीं जाता था और वैसे भी वो देखता था कि कैसे दूसरे राज्यों से उसके प्रदेश के लोगो को कभी भी भगा दिया जाता था। उसे अजीब लगता था वीरों की भूमि बुंदेलखंड के युवाओं का ये हश्र। वो बुन्देलखंड की बिखर चुकी ऐतिहासिक शान को संजोये पड़ा था अपनी झोपड़ी में। उसे बस एक उम्मीद थी, बेटा पढ़कर नौकरी करेगा तो दरिद्रता दूर होगी। गाय भी काल का ग्रास बन गयी थी, अब खाने को बस रोटियाँ और अच्छी बारिश की आशा थी। भान सिंह अपने दोनों बैलो की मालिश करके झोपडी में आया, उसकी पत्नी ने दो रोटी रख दी। सुखी रोटियों को देखकर भान सिंह बोला “मोड़ा लाने रखो कछु”पत्नी ने सहमती में सर हिलाया।

भान सिंह ने खाना प्रारंभ किया खाते खाते बोला “अबकी बरसा ख़ूब हुइओ तो मोड़ा लाने नवा कपडालत्तां बनवा दई”

उसकी पत्नी ने मुस्कुराकर कहा “पहले बाई तो खाले फेर बायनो बाटियों”

भान सिंह ने उसकी तरफ देखा और चुप रहा

भान सिंह ने आज भी आधे पेट खाना खाया था। ऐसा पिछले कई दिनों से चल रहा था, अब उसकी हिम्मत अपनी पत्नी से ये पूछने की भी नहीं होती थी कि उसके लिए कुछ बचा क्या? दोनो का प्रयास रहता था कि उदल को भर पेट रोटी मिले, सुखी रोटी, इतना हो रहा था वो इसे भी ईश्वर का वरदान मानकर स्वीकार कर लेते थे ।

भान सिंह को अगले दिन भोर ही खेत जाना था जुताई को, तो वो जल्दी सो गया।

प्रात: शीघ्र ही भान सिंह उठा, उठते ही उसके पैर में वेदना हुई, इस वेदना को वो पिछले 10 दिन से सह रहा था। एक ज़ख्म था एडी में जिसमें मवाद भी हो गयी थी, बस घरेलु नुस्खे अपना रहा था, ये ही पीड़ा नहीं थी उसका स्वस्थ्य भी खराब था और वो पिछले कई दिन से आधे पेट खाने पर जी रहा था। उसने दोनों बैलो को खोला उसने देखा परमा (बैल) सुस्त है परन्तु और दिन की भांति अनदेखा कर दिया। परमा के माथे को चूमकर बोला “एक बार मोड़ा पढ़कर मुनीम बन जा फेर कछु मुसीबत ना हो, इतै बैठ कई आराम करेंगे सब” बैल उसके इस स्नेह भरे स्पर्श को समझते थे। इस सुस्ती और अस्वस्थता के बाद भी बैल चंचल हो गया और उठ लिया।

भान सिंह चलते हुए बोला “आज इत्ती पीड़ ना पैर में, ठीक हो चला अब” और बैल हांक दिए।

भान सिंह की पत्नी भी मजदूरी को चली गयी थी। वहीँ पर उसके पास उसके पड़ोसी आये, वो हड़बड़ाये हुए थे, “केशो तेरा भान सिंह” इतना कहकर वो ग्रामीण चुप हो गया। केशो को अनिष्ट की आशंका हो गयी थी इतने से ही, फिर दूसरा ग्रामीण बोला “उतई चल... खेत पै”

केशो भागी हुई अपने खेत पर आयी। भान सिंह का निर्जीव शरीर पड़ा था, पास ही उसके बैल का शरीर भी अपने प्राण छोड़ चुका था। दूसरा बैल उनके शव के पास खड़ा था, उस पशु को भी शायद आभास था इस अनिष्ट का, वो उदास था केशो ने देखा भान सिंह शांत था केशो ने जड़वत खड़े हुए बस एक शब्द बोला “उदल”एक ग्रामीण ने कहा “स्कूल गये हैं... उसे लेनै ”भान सिंह के शरीर पर उसकी फटी धोती और एक फटा कुर्ता लिपटा था, पैरो में उसकी टूटी-फटी चप्पल थी। वो चप्पले कई जगह से प्लास्टिक के धागों और रस्सी से सिलकर पहनने लायक बनायी हुई थी, पैर में पीड़ा होने के कारण आज भान सिंह ने वो चप्पल पहन ली थी। जिस कारण आज उसका बेटा बिना चप्पलो के-नंगे पैर स्कूल गया था।


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