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श्राद्ध - एक परम्परा

श्राद्ध - एक परम्परा

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कार शहर को पीछे छोड़ अब बाहरी रास्ते पर दौड़ रही थी। सुबह हुयी बेटे से बहस के बाद उनकी हिम्मत नही हो रही थी कि बेटे से पूछे कि वह उन्हें कहाँ लेकर जा रहा हैं ? सुबह की बातें एक बार फिर उनके कानों में गूंजने लगी थी ।

"ओह बाऊजी, आप समझ क्यों नही रहें हैं ? ये फ़ॉरेन हैं, यहाँ श्राद्ध जैसे ढकोसले करने का लोगों के पास समय नही हैं।" बेटा झुंझलाहट में था ।

"लेकिन बेटा अपने पितरों की मुक्ति के लिए ये जरूरी हैं ।"

"आप भी वर्षों से कैसे आडंबरों को ढोये चले जा रहे हैं बाऊजी, अब यहां के लोग ये सब नही करते तो क्या उनके पूर्वज़ो की मुक्ति नही होती ?"

"पर बेटा, ये सब हमारी आस्था और परम्परा "

“बस बाऊजी !" बेटे ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी। "रहने दीजिये सुबह-सुबह ये बहस, मुझे और भी कई जरूरी काम हैं ।"

"बाऊजी, बाहर आईये ।" कार किसी वृद्धाश्रम जैसी इमारत के बाहर खड़ी थी और बेटा उन्हें बाहर बुला रहा था ।

उनकी आँखों में एक क्षण में बेटे से जुड़े जीवन के सारे लम्हें गुजर गए। सुबह हुयी बहस के बाद बहु का बेटे को अंदर बुलाकर बहुत कुछ समझाने का रहस्य अब उनकी समझ में आ गया था, उनकी आँखें नम होने लगी थी ।

"लगता हैं आप अभी तक नाराज हैं ।" बेटा कह रहा था और वह विचारमग्न थे । "अरे बाऊजी ये देखिये इस इमारत की ओर, ये हैं 'पैराळायसिस होम'। और इस बार हम अपने पूर्वजों का श्राद्ध यहां रहने वाले लाचार लोगों की सेवा करके ही मनाएंगे बाऊजी ! आपकी बहु का कहना हैं कि जरूरतमंदों और बीमारों की सेवा करना भी तो एक तरह का धर्म और पुण्य.....।" बेटा अपनी बात कहे जा रहा था और बाऊजी की नम आँखों में कुछ देर पहले अपनी बहु को गलत समझ बैठने के प्रायच्छित स्वरूप कुछ आंसू आशीर्वाद के ढलक आये थे ।


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