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Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama Romance

5.0  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama Romance

प्रेम की पगडंडियां

प्रेम की पगडंडियां

8 mins
507


प्रेम करने का दावा, अमूमन हर इंसान कभी न कभी ठोक ही देता है। हर एक को यही गलतफहमी रहती है कि बस उसी का प्रेम सच्चा है। अनूठा , विलक्षण और अनमोल। सब अपने -अपने अंदाज में प्रेम करते है। कोई डंके की चोट पर; तो कोई छुप -छिपा कर, जैसे कोई बच्चा फ्रिज से चुपके से रसगुल्ला निकाल कर खाता है। 


प्रेमी कई तरह के होते हैं। कई बरसाती मेंढकों की तरह, जहाँ किसी ने हल्का सा स्नेह बरसाया -वहीं प्यार के गीत टर्राना शुरू कर देते हैं। कुछ पूर्णिमा की चाँद में रातभर रखी खीर की तरह धीर गंभीर, जो जिस से दिल लगा बैठें फिर सालों उस एक प्यार की मिठास में ही डूबे रहते हैं। 


कौन सा प्रेमी सच्चा प्रेमी कहलायेगा इस पर विवाद हो सकता है। किसी को मजनूं , रोमियो या फरहाद सच्चे प्रेमी लग सकते हैं तो किसी को लहनासिंह। किसी को अपने पति में सच्चा प्रेमी दिख सकता है तो किसी को दूसरे के पति में। 


प्रेम कथाएं पढ़ -पढ़ और अपने आस पास प्रेम संबंधों की हरी -भरी या फिर सूखी पड़ी फसलें देखते हुए, हम तो एक ही नतीजे में पहुंचे की सच्चा प्रेमी तो दिलावर ही है। 


अब आप पूछेंगे कौन दिलावर ? सच ही है नाम से तो किसी सी -ग्रेड हिंदी फिल्म के खलनायक सा ही लगता है। छुटपन में जब पहली बार नाम सुना था अपनी अम्मा के मुँह से तो हमें भी लगा था की कोई छह फुट लम्बा , चौड़े कन्धों वाला, बड़ी- बड़ी मूँछ वाला होगा। ऐसी छवि बना लेने के बाद , जब दिलावर को साक्षात देखा तो हमारी हँसी रोके न रुकी। नाम दिलावर था पर शक्ल सूरत एक मासूम बच्चे जैसी। दाढ़ी -मूँछ विहीन गोरा चिकना चेहरा। सुनहरे बाल और छरहरा बदन। सुंदर शब्द लड़कों के लिए इस्तेमाल करना विचित्र लगता है। पर दिलावर सच में सुंदर था बेहद सुंदर। वो कोटा से पढाई पूरी कर पांच साल बाद वापस आया था। पढ़ने में बेहद होशियार था। 


यूँ तो हम से दस साल बड़ा था पर जाने कब और कैसे हम दोनों उस वक्त गहरे दोस्त हो गए। हम बस पंद्रह साल के थे और दिलावर पच्चीस साल का। पर हम दोनों का कद बराबर था। हम दोनों रोज ही एक -दो घंटे आपस में बातें कर के बिताते। हम छोटे थे पर प्रेम का भाव मन में पनपने लगा था। अपने आंगन से सामने सड़क पर गुजरती हमारी आयु वाली हर लड़की पर हमारी नजर अनायास ही पड़ने लगी थी। उन्ही में से किसी से हमें एक न एक दिन प्रेम हो जाएगा ये हमारे मन का पक्का विश्वास था। 


दिलावर तो हमसे दस साल बड़ा था सो उसको अभी तक किसी लड़की से प्रेम नहीं हुआ ये हमें बेहद अजीब लगता था। शुरू -शुरू में हमें शक था की शन्नों ही उसकी प्रेमिका है। ओहो ! हमने शन्नों के बारे में तो कुछ बताया ही नहीं। 


शन्नों दिलावर की पड़ोसी थी। दिलावर के पिता और शन्नों के पिता गहरे दोस्त थे। दिलावर और शन्नों दोनों हमउम्र थे। बचपन से साथ खेले और बड़े हुए। दसवीं तक साथ ही स्कूल भी गए । शन्नों वैसी ही थी जैसी हर पच्चीस साल की लड़की होती है -थोड़ी सुंदर , थोड़ी असुंदर , थोड़ी चंचल, थोड़ी गंभीर और थोड़ी परेशान। परेशान इसलिए की जिस ज़माने की यह बात है, उस ज़माने में लड़कियों का ब्याह पच्चीस साल से पहले ही निपटा लिया जाता था। पच्चीस हो जाना माने -पड़ोसियों और रिश्तेदारों को ये पूछने का लाइसेंस मिल जाना, कि वो कौन सा कारण है कि लड़की अभी भी मायके में ही डेरा डाले हुए है ?


अब शन्नों और दिलावर की शादी में धर्म , जाति या गोत्र की कोई अड़चन तो थी नहीं सो हमें यही सही लगता था कि शन्नों और दिलावर को आपस में प्रेम कर विवाह लेना चाहिए। जब हमने पहली बार दिलावर से ये बात कही थी तो वो बहुत हँसा था। जिस शन्नों को उसने कमीज की बांह से नाक पोंछते देखा था , जो शन्नों आज तक एक रोटी पूरी गोल नहीं बेल पायी थी , जो शन्नों उससे एक -दो इंच ऊंची ही थी, जो शन्नों बस दसवीं तक पढ़ी थी -उससे प्रेम कर विवाह करने की सोच दिलावर को हँसी आयी थी । शन्नों और वो पड़ोसी और दोस्त हैं -ये सत्य था। पर प्रेम नाम का भाव उनके बीच में है जिसे विवाह में परवर्तित होना चाहिए -ये विचार दिलावर को विचित्र ही लगा था । 


उस दिन के बाद हमने कभी उन दोनों के बीच प्रेम की संभावना पर कोई बात नहीं की। 


अगले पांच -छह महीने में बहुत कुछ अचानक बदल गया। शन्नों की शादी तय हो गयी। दिलावर को सरकारी नौकरी मिल गयी और वो दिल्ली चला गया। 


दिल्ली जाने के छह महीने बाद जब दिलावर वापस आया तो सूट -पैंट और हल्की मूंछों में बिलकुल लाट -साहब लग रहा था। हमारे लिए वो बुशर्ट लाया था और शन्नों के लिए एक गुलाबी साड़ी। अपने माँ -बाबूजी के लिए तो संदूक भर के सामान लाया था। दिलावर के वापस आने तक हमें शन्नों के बारे में पता चलना बंद हो गया था। हाँ ये पता था कि शादी तय होने के आठ महीने बाद भी शन्नों की शादी न होने से, मोहल्ले में सभी औरतों को दोपहर में मटर छीलते और मेथी छांटते हुए गपियाने के लिए अच्छा विषय मिल गया था। 


दिलावर से ही पता चला की लड़के वालों ने शादी से पहले ही दहेज़ में तीस हजार मांग लिए हैं। तीस हजार मिलने के बाद ही बारात आएगी और डोली उठेगी -ये संदेसा दो महीने पहले ही आ चुका है। शन्नों के पिता जी सब जगह से जोड़ -जाड कर भी बस पच्चीस हजार जुटा पाएं हैं। पांच हजार अभी और जुटाने हैं। 


दिलावर से मिल कर शन्नों फूट फूट कर रो पड़ी थी। उसके दहेज़ की रकम जुटाने में लगे पिता की हालत देख कर माँ अपना गुस्सा शन्नों पर ही निकालती थी। अक्सर उसे कोसती। सूरज की तरह आग बरसाती -

" काश तू बिलकुल गोरी चिट्टी सुथरी होती। चाँद का टुकड़ा होती तो ये लोग खुद मांग ले जाते तुझे। दस हजार दहेज़ में बात बन जाती। पर तेरा रंग भी दबा -दबा और सिक्का भी मामूली, उस पर बस दसवीं तक किसी तरह पढ़ पायी हो । अब तेरा दहेज़ जुटाने में ही तेरे बाबूजी के सारे बाल दो महीने में सफ़ेद हो गए हैं। अभी भी पूरा दहेज़ नहीं जुटा पाए हैं। तू भी जाने किस-किस के आगे अपने बाबूजी का सर झुकवायेगी " 


दिलावर ने शन्नों को ढाढस बंधाया। गुलाबी साड़ी दी तो एक पल के लिए शन्नों के चेहरे पर मुस्कान आयी। ठीक उसी वक्त हम दिलावर को ढूंढते हुए वहां पहुंचे थे। हमरे कानों ने जो सुना उस पर हमें विश्वास नहीं हुआ। शन्नों ने गुलाबी साड़ी सर पर ओढ़ ली थी और नजरें झुकाकर दिलावर से बोली थी 

"ऐसा नहीं हो सकता क्या की अब हमारे लिए हर साड़ी बस तुम ही लाओ। "

बस इतना कह वह वहां से उठ, सरपट घर की तरफ भाग चली। 


दिलावर सन्न सा बैठा रह गया। हमसे नजरें मिली तो वो अचकचा गया। हम भी मौके की नजाकत भांप वहां से चलते बने। अचानक ख्याल आया की कल को गीता का भी ब्याह तय होगा। हमसे नहीं तो किसी और से। 


अगले एक हफ्ते हमने दिलावर से मिलने की कोशिश नहीं की। घर में माँ -बाबूजी की आपस में हो रही बातचीत से ही पता चला की दिलावर ने अपने घर में ऐलान कर दिया है की वह शन्नों से ही शादी करेगा और वो भी बिना किसी दान दहेज़ के। दिलावर के माँ बाबूजी उसके ब्याह से कम से कम एक लाख रुपए का दहेज़ मिलने के सपने संजाये बैठे थे। अपने लाडले द्वारा उन सपनों पर किये तुषारापात से वो बुरी तरह भड़क गए थे। शन्नों के घर जा कर उसके माँ -बाबूजी पर दिलावर को बहलाने -फुसलाने का इल्जाम लगा आये थे। इस इल्जाम से तिलमिला कर शन्नों के माँ बाबूजी ने शन्नों की खूब पिटाई की। उधर जिस लड़के से शन्नों का विवाह तय हुआ था वो भी अब सरकारी चपरासी बन चुका था। लड़के वालों ने दहेज़ की मांग तीस से बढ़ा कर पचास हजार कर दी थी। 


फिर पता चला की दिलावर गांधी जी का अनुसरण करते हुए अनशन पर बैठ गया है। सुबह से शाम बैठक में बिना किसी से बात किये चुपचाप बैठा रहता। न खाना खाता न पानी पीता। शन्नों भी ऐसा ही कर रही थी। छुट्टियां ख़त्म होने पर भी दिल्ली जा कर नौकरी ज्वाइन न करने के कारण उसके खिलाफ विभागीय कार्यवाही का नोटिस भी आ गया। इकलौते बेटे का कठोर और अटल हठ देख कर आखिर माँ -बाबूजी कब तक न पिघलते। अंततः मान गए और फिर एक सप्ताह के अंदर दिलावर और शन्नों का विवाह संपन्न हो गया। बिना किसी दान दहेज़ के शन्नों सिर्फ विवाह के जोड़े में ससुराल आयी। आगे पहनने के लिए साड़ियां खुद दिलावर ही खरीद कर लाया। 


शादी के बाद शन्नों और दिलावर दिल्ली चले गए। कुछ महीने बाद दिलावर आ कर माँ -बाबूजी को भी साथ ले गया। उनके घर में बस एक बड़ा ताला लटका रहता था। 


हम भी धीरे -धीरे बड़े हो गए और दिलावर को भूल गए। पढ़ लिख कर हमने भी दिल्ली में सरकारी नौकरी पा ली। ऑफिस ज्वाइन किया तो आश्चयचकित रह गए की वहां सबसे ऊँचे अफसर के पद पर दिलावर ही था। हम हिचकते हुए उसके कमरे में दाखिल हुए तो उसने झट से हमें गले लगा लिया। शाम को घर भी बुला लिया। 


एक किलो मिठाई का डब्बा हाथ में ले हम उसके घर पहुंचे तो बड़े से घर के बाहर दिलावर और शांति का नाम पट्ट देखते रह गए। शन्नों का असली नाम शांति हो सकता है ये कभी हमने सोचा ही नहीं था। घंटी बजाने पर शन्नों नहीं- नहीं - शांति जी ने ही दरवाजा खोला। हमें बिठा कर चाय नाश्ता मंगवाया। इतनी देर में दिलावर के माँ -बाबूजी भी शाम की सैर से वापस आ गए। हमसे मोहल्ले की ख़बरें पूछ डाली। उन्ही से हमें पता चला की दिलावर ने शांति को आगे की पढ़ाई करवाई। आज शांति भी सरकारी स्कूल में पढ़ाती है। दो बच्चे हैं और दोनों ही पढ़ाई में अच्छे। 


दिलावर आया तो एक बार फिर हम से गले निकल गया। बस यूँही इधर उधर की बातें होती रही और अपने घर से दूर दिलावर के घर के कोने कोने में बसी प्रेम की महक से हमारा दिल भी महक गया। 


रात का भोजन कर हमने सबसे विदा ली तो चाँद की शीतल चांदनी देख, हमने दिलावर को याद दिलाया 

"हम कहते थे न कि आप और भाभी जी प्रेमी- प्रेमिका हैं "


दिलावर मुस्कुरा दिया। हमारी पीठ थपथपा कर बस इतना बोला "प्रेम का तो पता नहीं पर उन्हें ऐसे रोता हुआ कैसे देख सकता था। "


वो दिन और आज का दिन जब भी किन्ही सिरफिरे प्रेमी -प्रेमिका के बारे में पढता सुनता हूँ जो प्रेम के नाम पर एसिड अटैक, हत्या या आत्महत्या करते हैं तो मन करता है उन्हें जा कर सच्चे प्रेमी का नाम बताऊँ। दिलावर से सच्चा प्रेमी न कभी हुआ है न होगा। जिसने कभी प्रेम होने की डींगें नहीं हाँकी, प्रेमी होने की छाती नहीं पीटी पर प्रेम करने वाली की आंख से आँसूं नहीं बहने दिए। उसके जीवन का सूरज बना और उसके जीवन को रोशनी से भर दिया। 



 तो हमारे लिए तो दिलावर ही प्रेम के आकाश का सूरज भी है और चाँद भी। रोमियो, फरहाद, मजनूँ और लहनासिंह बुरा मानें तो मानें। 








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