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Krishna Kaustubh Mishra

Drama Others

4.9  

Krishna Kaustubh Mishra

Drama Others

अविस्मरणीय सैर

अविस्मरणीय सैर

14 mins
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उस दिन बहुत जोरों की बारिश हुई, इतनी अच्छी की किसानों के चेहरे खिल खिला उठे थे। नदी नाले सब कल कल करते हुए वातावरण को आनन्दमय बना रहे थे। हल्की ठंडी पुरवैया भी अंदर के बचपन को कुरेदकर बाहर निकालने को उत्सुक थी। एक तरफ काले मेघा मयमन्द गज की तरह चिंघाड़ रहे थे तो दूसरी तरफ पीले ’मेघा’ टर्र टर्र की रट लगाए यूँ प्रतीत हो रहे थे मानो सरसों के फूल सावन में हवा से बातें कर रहे हों।

दोपहर ढल चुकी थी, बारिश भी थम चुकी थी। आसमान भी थोड़ा साफ हो चुका था।

दिन भर घर मे कैद जैसे हम इसी पल का इंतज़ार कर रहे थे। दूर कहीं से गाज़ों बाजों की ध्वनियाँ आ रही थीं।नन्हे कदमों में मानो नई स्फूर्ति सी आ गयी हो, अविलम्ब ही मैंने ध्वनि की दिशा में दौड़ लगा दी।

मौसम में नमी थी जो फुहारों के रूप में चेहरे पर महसूस हो रही थी। हर तरफ पानी ही पानी। थोड़ी ही समय मे मैं गांव के पुराने बागीचे में आ पहुंचा, जहां से वो ध्वनियाँ आ रही थीं।

बागीचे में एक बहुत पुराना और विशाल वटवृक्ष था, जो सैकड़ों जीवों का घर भी था।

उसकी छाया इतनी शीतल थी कि ग्रीष्मकालीन धूप में जब कोई किसान अपने काम से उधर की ओर से जाता तो वृक्ष की छांव में सुस्ता कर वह अपनी थकान को भूल कर संतृप्त हो जाता था। उसी पेड़ के नीचे कुलदेवी का पुरातन मन्दिर भी था, जिनमे गाँव वालों की अटूट श्रद्धा थी, कोई भी शुभ काम बिना उनके आशीर्वाद लिए बिना सम्पन्न नही होता था।

आज उस मंदिर पर चहलकदमी कुछ ज्यादा ही थी। लोग रंग बिरंगे कपड़ों में उल्लासमय मुद्रा में नगाड़ों पर थिरक रहे थे। उनके कपड़े कीचड़ के छींटों के साथ अत्यधिक श्रृंगारित लग रहे थे। वहां एक बारात को विवाह के लिए विदा किया जा रहा था। वो सभी लोग कुलदेवी के आशीर्वाद के लिए एकत्रित हुए थे।

कुछ लोग मोटर पर सवार थे तो कुछ नीचे अपनी साज सज्जा में व्यस्त थे, हर कोई सुंदर दिखने में व्यस्त था।बच्चे इस प्रक्रिया में लुटाई जाने वाली टॉफियों और खिलौनों के लिए एकत्रित थे।मैं भी उनके झुंड में शामिल हो गया। खिलौनों, टॉफियों और पैसों की जैसे बारिश हो रही थी। सभी बच्चों के चेहरे पर ऐसी खुशी दिख रही थी जैसे उन्हें कोई गड़ा खजाना मिल गया हो। मैंने भी लूट के कई असफल प्रयास किये पर क्या मैं हतोत्साहित था?

नही, बिल्कुल भी नही।

असफलता से भरे माहौल में मेरी नजर एक टॉफी पर पड़ी जिसपर किसी की काकदृष्टि नही पड़ी थी क्योंकि बरगद के एक पत्ते ने उसे अपने छत्रछाया में दुनिया की बुरी नज़रों से छीपा रखा था। मुझे ऐसा लगा मानो जैसे वो टॉफी पत्ते के छोटे से सुराख से मुझसे यह कह रहा था ‘मुझे खाने का हक़ सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा है’।

अगले ही पल वो टॉफी मेरे मुंह मे थी। पर यह क्या? टॉफी के नाम पर मुझे धोखा दे दिया गया। जहां मैंने खट्टे मीठे सन्तरे, आम और अमरूद के स्वाद वाले टॉफी के स्वाद रूपी नदी में जिह्वा रूपी नाव में सवार था पर वास्विकता यह थी कि मुझे मिला शक्कर से भी ज्यादा मीठा और सिर्फ मीठा टुकड़ा, जिसका स्वाद तनिक भी लुभावन न था पर मेरे लिए किसी राजा द्वारा जीते गए साम्राज्य से कम न था, आखिर इतने मेहनत का स्वादहीन फल था।

टॉफी खाते ही मैं झुंड से बेगाना हो चला, मेरी चाल तो ऐसे हो रखी थी मानो स्वयं काशी नरेश अपने क्षेत्र में विचरण कर रहे हों।

हमारा गाँव कोई वैश्विक गाँव न था, वहाँ आत्मीयता जीवित थी और हर कोई बहुत दयालु था। घर की महिलाएं सूप और मूसर से विभिन्न मान्यताओं का पालन करते हुए कुछ न कुछ मांगलिक क्रियाएं कर रहीं थी। पीछे कुछ औरतों का झुंड गर्दभ स्वर में लोकगीत का गायन कर रही थीं जो सुनने में कुछ कम मधुर पर भावपूर्ण था। कुछ महिलाओं की आँखें भी नम थी, शायद उनमें से एक दूल्हे की माँ भी थी जिसके आंखों की नमी ने मौसम में भी हलचल पैदा कर दी थी। उस माँ को जैसे यकीन ही नही हो रहा था कि कल तक जो बेटा इस मंदिर पर दूसरों की शादी में टॉफियों और खिलौने लूटा करता था,आज उसी की शादी है।

बड़े बुजुर्ग लोग खराब मौसम को देखते हुए कुछ ज्यादा ही जल्दी में थे। उतावल वश परिवार के मुखिया बारात को शीघ्रातिशीघ्र प्रस्थान करने के लिए दबाव बना रहे थे।

यह वह समय था जब बच्चों को स्कूल भेजने से पहले गृहशिक्षा दी जाती थी और हमारे परिवार का पड़ाव अध्ययन क्षेत्र से होने की वजह से वह गृहशिक्षा का ही योगदान था कि स्कूल शिक्षा शुरू होने से पहले ही मुझे शब्दों, मात्राओं और वाक्यों का ज्ञान हो चुका था, और उस ज्ञान को और प्रकाशित करने के लिए दुकानों , सड़कों और अन्य जगहों पर लिखे बोर्ड या इश्तेहारों को पढ़ता था। पढ़ने के उस क्रम और उत्सुकता में मेरी नज़र उस मोटर पर पड़ी जिसमे दूल्हा अपनी दुल्हन से परिणय सूत्र में बंधने को इतना बेताब था कि उसकी खुशी उसके चेहरे की भावभंगिमाओं को बदल देती थीं। रुपयों के माले के बोझ से दबा हुआ, माथे पर तिलक लगाए दूल्हा नई पारी को शुरू करने को उत्सुक था।

दूल्हे के मोटर पर लेख से आभास हुआ कि वहां ‘वीरेंद्र’ लिखा हुआ है।मन ही मन नई नई अभिलाषाएं अंकुरित होने लगीं। जान पड़ता था कि इस बारात से न जाने कौन सा रिश्ता था जो मुझे अपनी ओर खींच जा रहा था।

‘वीरेंद्र’

यह नाम बहुत खास था मेरे लिए क्योंकि यह मेरे मामा का भी नाम था और बालमन यह समझ बैठा की यह मोटर मेरे मामा जी की है, और मुझे उस मोटर में बैठ के मामा के यहां जाने से कोई मना नही करेगा।

बाल मन करत हठ हज़ार, फिरे उधर जिधर मन करे पुकार।।

चंचल मन को कोई तो समझा देता की ‘वीरेंद्र’ नाम का केवल एक ही व्यक्ति ही नही था दुनिया में।

बालमन बारात में जाने को दृढसंकल्पित हो चुका था पर घरवालों से आज्ञा लेना भी बहुत आवश्यक था, नन्हे कदमों ने घर की ओर फिर एक दौड़ लगाई। कुछ ही समय पश्चात मैं घर पर था।

दादी माँ के कमरे में उनके बिस्तर पर पैर की तरफ बैठ कर उनको मनाने का दौर शुरू हुआ। पैरों को धीरे धीरे दबाना शुरू किया तो दादी ने अपनी मुद्राओं को बदलते हुए मेरे सर पर हाँथ फेरते हुए पूछा।

दादी: क्या हुआ बेटा, आज दादी की सेवा की कैसे सूझी? जो बालक मेरे पास कभी 2 मिनट भी स्थिर न बैठता था आज उसका इतना विशाल हृदयपरिवर्तन। क्या बात है बेटा??

मैं: दादी मैं बारात में जाऊंगा।

दादी: लेकिन बच्चे अभी तो तुम्हारे बारात में बहुत समय है, और तुम अकेले थोड़ी ही जाओगे बारात में। तुम्हारे पिताजी, बाबा और सारे सदस्य भी जाएंगे तुम्हारी बारात में।

मैं: हट्ट दादी, तुम बहुत नादान हो कुछ समझती ही नहीं। जो बारात कुलदेवी के मंदिर से जा रही है मुझे उसमें जाना है।

दादी: तुम्हारे पिताजी और बाबा दोनों शहर गए हुए हैं और मैं भी बूढ़ी हो चली हूँ । ऊपर से मेरे पाँव का दर्द, चलते भी न बन रहा। इस बार नही पर जब कोई और बारात किसी और दिन जाएगी तो तुम्हें मन्दिर तक ज़रूर ले चलूंगी।

मैं: ‘माई’ तुम जानबूझकर सीधी बन रही हो, मुझे वहाँ जाना है जहाँ यह बारात जा रही है। यह बारात ‘बुंची’ जा रही है मेरे मामा के घर।

दादी: तुमको कैसे पता कि बारात तुम्हारे मामा के यहां ही जा रही है?

मैं:मैने मोटर पर पढ़ा, उसपर’वीरेंद्र’ लिखा हुआ था।

दादी: अरे! तो क्या सारे वीरेंद्र तुम्हारे मामा ही हैं क्या? और कोई ‘वीरेंद्र’ नही हो सकता क्या?

दादी के चेहरे से स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि व्यर्थ समय क्यों व्यतीत कर रहा है, मैं तो तुम्हें जाने न दूंगी। पर यह समय चेहरे की भंगिमाओं के छानबीन का न था, समय था कुछ जुगत बनाने का ताकि शादी में जाने का अवसर बन सके।

मुझे कुछ न सूझा, मैंने नंगे पाँव सरपट मन्दिर की ओर दौड़ लगा दी। मन आत्मविश्वास से ओतप्रोत, बस एक ही लक्ष्य था जिसे कोई मुझे हासिल करने से रोक नही सकता था।उम्र छोटी थी मगर इरादे हिमालय से भी ऊंचे।

हांफता हुआ मैं मन्दिर पर आ चुका था, कलेजे पर ऐसा महसूस हो रहा था मानो कोई गर्म छुरी फेर रहा हो।हड़बड़ाहट में मैंने यह भी सुनिश्चित नही किया कि यह पिछली बारात नही अपितु दूसरी बारात थी जिसका गन्तव्य कहीं और था। इनमें मेरी ग़लती नही थी सामान्य तौर पर सारे बारात का दृश्य सदियों से ऐसा ही रहा है बस ‘दूल्हे’ बदलते चले जाते हैं।

सारे मोटर और गाड़ियाँ लोगों से खचाखच भर चुकी थी। उनमें पैर रखने के लिए भी रिक्त स्थान नही था।मौसम कभी भी रौद्र रूप ले सकता था। चारों तरफ घुप्प अंधरे का साम्राज्य सबकुछ अपने आगोश में ले लेने को बेताब था। मुख्य विवाह अधिकारी यानी कि दूल्हे के पिताजी, इतनी जल्दी में थे मानो वो खुद ही मोटर चला के रवाना हो लेंगे। एक पुरानी महानगरी बस, छूटे हुए और गैरपारिवारिक लोगों को भर रही थी। मैंने भी बस के अगले दरवाज़े से अंदर की ओर घुसने का प्रयत्न किया और सफल भी हुआ। बस में भीतर प्रवेश करने पर यहां का मामला और भी गंभीरता के शिखर को छूने लगा। अगर सरसों के दानों को ऊपर से फेका गया होता तो शायद ही कोई दाना जमीन पर गिरता। इतनी भीड़ थी अंदर।

खैर मेरे अटल इरादों के आगे परिस्थितियों ने हार मान ली और मैं बस में सबसे पीछे के भाग में आ पहुंचा। वहां मेरी उम्र के कुछ और बच्चे भी थे, पर वो मुझे बिना चप्पल और नए कपड़ों को देख के अपना मुंह ऐसे बिचका रहे थे मैं किसी और दुनिया से अभी टपका होऊं।

खैर मौसम को देखते हुए बस को फौरन रवाना किया गया।

मन मे खुशी थी कि अब तो मैं मामा के यहां पहुँच ही जाऊंगा और विश्वाश बिल्कुल निश्छल।

बस चलती जा रही थी। बड़े बुजुर्ग आपस मे विभिन्न विषयों पर चर्चा कर रहे थे। कोई मौसम की भविष्यवाणी कर रहा था तो कोई खाने के स्वादिष्ट व्यंजनों की आस कर रहा था। एक बात तो स्पष्ट थी कि किसी का ध्यान मेरी तरफ नही गया। मैं भी नही चाहता था कि कोई मुझसे किसी भी विषय पर पूछताछ करे। ऐसे करते हुए हम आधा रास्ता तय कर चुके थे और कुछ बुजुर्ग लघुशंका के समाधान के लिए बार बार चालक पर दबाव बना रहे थे। खैर एक अंधेरी पर खुली जगह पर सारी गाड़ियाँ रुकी। लोग अपने अपने क्रियाकलापों में व्यस्त हो गए। झींगुर भी गीतों से बारात का स्वागत कर रहे थे। गाड़ियों से निकलती रोशनी अंधेरे को कुछ क्षीर्ण ज़रूर कर रही थी।

मैं बस में ही बैठा हुआ था, मुझे किसी मे भी कोई रुचि न थी। इस बीच किसी बुजुर्ग की नजर मेरे बदहाल अवस्था पर पड़ी और अगले ही पल उसने मेरे उपस्थिति पर प्रश्न कर कर दिया।

‘यह किसका बच्चा है और किसके साथ है?’

वहां उपस्थित लोगों ने मेरा साथ ठुकरा दिया।

लोग अपनी अपनी राय मुझे लेके बनाने लगे, कोई मुझे अनाथ और बारात में खाने का लालची बता रहा था तो कोई मुझे बिना निमन्त्रण आ जाने के लिए दोषारोपण कर रहा था। एक बुजुर्ग जो थोड़े शांत प्रवित्ति के थे उन्होंने मुझसे कहा- बेटा , दूल्हे की गाड़ी में जगह है। तुम जाओ उसकी गाड़ी में बैठ जाओ।

जिस प्रकार एक शिकारी शेर को पकड़ने के लिए जाल बिछाता है, ठीक उसी प्रकार उस बूढ़े काका ने शब्दों से निर्मित छद्म के चक्रव्यूह का निर्माण किया। मैं भी उनकी बातों के तीर से घायल हुआ माहौल में थोड़ा परिवर्तन की आस लिए गाड़ी से उतर गया। मैं भारी मन लिए धीरे धीरे दूल्हे के गाड़ी की तरफ बढ़ा। बाहर इक्का दुक्का लोग ही दिख रहे थे और वो भी गाड़ियों में चढ़ने के लिए बिल्कुल तैयार थे। मैं कुछ ही दूर चला होऊंगा की एक एक कर सारी गाड़ियों शुरू होने की आवाजें आने लगीं।

कितना बड़ा धोखा हुआ था मेरे साथ, ऐसी बात थी तो मुझे कुछ न देते खाने को मैं भूखा ही मामा के यहां चला जाता।

कहीं मैं इतनी रात को यहीं इस वीराने में ही न छूट जाऊं, ऐसे ख्यालों ने मेरे मन पर घाव करना शुरू कर दिया।

यह वक़्त शोक और डर का न था। जय बजरंगबली!

इतना कहते ही मैंने पूरी शक्ति के साथ ज़ोर की दौड़ लगाई और दूल्हे के गाड़ी के पास ही जा के ही रुका।

मैंने करुण स्वर में दूल्हे से कहा- ‘ मुझे भी अंदर आना है’

दूल्हे ने मुझे ऐसे घूर कर देखा जैसे चूहे को भूखी बिल्ली देखती है।

उसका चेहरा देखते ही मैं समझ गया था कि उसका उत्तर ना ही होगा। दूल्हे के आगे की गाड़ियाँ चलने लगीं थी। ज्यों ज्यों गाड़ियाँ गतिमान हो रही थी त्यों त्यों मेरे हृदय की गति भी बढ़ती जा रही थी। बुरे ख्यालों ने जैसे जकड़न सी पैदा कर दी मेरे नाजुक मन मे। दूल्हे से निराश होकर मैं पीछे खड़ी बस की ओर भागा जो चलने के लिए बिल्कुल तैयार थी। मेरे उसके पास पहुंचते पहुंचते बस भी गतिमान हो चुकी थी। मुझे लगा कि सारा प्रयास व्यर्थ हो गया अब मैं इस बस को कभी पकड़ नही पाऊंगा। बस धीरे धीरे मेरे सामने से जाने लगी। मैने बस के अगले दरवाज़े को पकड़ने की कोशिश की पर ढीली पकड़ होने के कारण वह मेरे हाथ से छूट गया। उसी वक़्त मुझे अपने बाजुओं पर किसी मजबूत पकड़ का अहसाह हुआ। किसी ने दौड़ते हुए मुझे बस में चढ़ा दिया। सब कुछ इतनी जल्दी हो गया कि मैं उस व्यक्ति को देख भी न सका।

शायद वह सर्वशक्तिमान स्वयं ईश्वर ही थे वरना इतनी रात को इस बीहड़ में कोई कैसे मेरी स्तिथि का सही आकलन करते हुए मुझे अपना कृपापात्र बनाता।

बस में पीछे अपनी सीट पर जाते हुए लोग मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे वो कह रहे हो कि मैं नीचे ही छूट गया होता तो अच्छा होता।

थोड़ी देर चलने के बाद बारात अपने गंतव्य तक पहुँच चुकी थी। बारात का ज़ोरदार स्वागत किया गया। मेरे मन मे अटूट विश्वाश था कि मैं बुंची में ही हूँ और मेरी किस्मत का खेल देखिये की सचमुच बारात बुंची में ही थी। इस बात की पुष्टि वहां मौजूद उपस्थित कुछ एक चेहरों ने किया था जिनका उठना बैठना मेरे ननिहाल में था। उन चेहरों में एक चेहरा मेरे ननिहाल में बर्तन धोने वाली लड़की ‘ नीता ‘ का भी था जिसको मैं बहुत अच्छे से पहचानता था। इतने लोगों की भीड़ में भी मैने उसे पहचान लिया, जो बारात देखने आई थी। मैं तुरन्त उसके पास जाकर मैंने उससे अपने ननिहाल जाने की विनती की। उसने मेरी विनती स्वीकार कर ली और मुझे लेकर मेरे वास्तविक गन्तव्य की ओर चल पड़ी।

ननिहाल पहुंचा तो आधी रात हो चुकी थी। घर के बाहर पालतू कुत्ते ‘ मोती’ ने भौंकना शुरू कर दिया।

‘ मोती’ ‘ मोती’ मैं हूँ। मोती मेरा बहुत ही अच्छा मित्र था।

मोती ने मेरी गन्ध ली और भौंकना बन्द कर दिया। लेकिन उसके भौंक से सभी लोग जाग चुके थे।

नाना की चारपाई बरामदे में लगी थी, मैं तुरन्त उनके पास जा पहुंचा। नाना भी आधी नींद में मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे थे पर उम्र के उस पड़ाव पर भी मुझे उन्हें पहचानने में देर नही लगी।

अपनी मच्छरदानी को हटाते हुए मेरे माथे पर हाँथ फेरते हुए बोले, ‘ अरे बच्चा इतनी रात को वो भी अकेले’

मैने बोला बारात में यहां आया था तो सोचा आपसे भी मिलता चलूं। सच कहूं तो बारात की फिक्र मुझे तनिक भी न थी नही तो इतने स्वादिष्ट पकवान छोड़कर भूखे भला कौन आता?

मन मे खुशी के ज्वार पक रहे थे। आखिर मैं ‘बुंची’ आ गया था।

घर के सारे सदस्य जाग चुके थे और मुझे घेरकर कुशलक्षेम कर रहे थे। आधी रात को मेरे भोजन का प्रबंध किया गया। भोजन ग्रहण करने के पश्चात मैं भी नाना के बगल में सो गया।

घर से इतनी दूर, सारी चिंताओं से मुक्त ।

इधर घर पर कोलाहल मचा हुआ था। लोग मुझे लेके तनाव में थे। मेरी माँ का रो रो कर बुरा हाल हो रखा था।

बाबाजी सबको ढांढस बांधते बांधते खुद को नही रोक पा रहे थे और अश्रुधारा उनकी आंखों से फूटे मटके के जल के समान गिरते ही चले जा रहे थे।

इतनी छोटी उम्र का बच्चा आखिर कहां चला गया होगा। किसी अनहोनी की आशंका सबको खाई चली जा रही थी।

शाम को जब पिताजी आये और उन्हें इस बात का पता चला तो वो मुर्छितावस्था में चले गए। शोक में डूबे हुए, निराश पर हिम्मत से परिपूर्ण। वो इतनी जल्दी हार मान लेने वालों में से नही थे। आस पड़ोस, पूरा गाँव छान मारा गया पर मेरा कुछ पता न चला। दादी ने पापा से शाम के बीच मेरी और दादी की वार्तालाप का भी जिक्र किया और मेरे बुंची जाने की ज़िद का भी वर्णन किया। पड़ोस में एक बारात बुंची ही गयी थी। पिताजी ने तुरंत अपनी स्कूटर निकली और बुंची जाने के लिए तैयार हो गए। स्कूटर को टेढ़ा किया, और स्टार्ट कर ज्यूँ ही आगे बढ़े की स्कूटर डगमगाने लगा। स्कूटर पंचर हो चुका था। किसी ने सही ही कहा है कि सारी विपत्तियाँ एक साथ ही आती हैं। पिताजी परेशान हो उठे, वो स्कूटर ही उनकी आखिरी आस थी, वो स्कूटर सही होने तक रुक नही सकते थे। वो मेरे महान पिता थे, जो अपने पितृकर्तव्य के निर्वहन के लिए किसी भी समस्या से जूझने को तैयार थे। पिताजी दूर गाँव के अपने पुराने मित्र के यहाँ गए और उनसे सारी स्थिति बताई। उनके मित्र ने अपनी राजदूत निकाली और दोनों ने बुंची की ओर प्रस्थान किया।

अभिषेक!(धीमी आवाज़)

अभिषेक!!( थोड़ी तेज़ आवाज़)

अभिषेक!!! (तेज़ आवाज़)

मेरी नींद खुल गयी।

देखा तो आंखों के सामने पिताजी का गुस्से से लाल चेहरा। मैं डर गया था। पिताजी बहुत गुस्से में थे और उनका गुस्सा जायज भी था, पर एक संतुष्टि की झलक उनके गुस्से के हावभाव को तरोड़ मरोड़ रही थी। वह संतुष्टि उन्हें मुझे सकुशल देख लेने के बाद हुई थी। संयमित डाँट पड़ी। नाना ने मेरा बचाव करते हुए पापा को ऐसा करने से रोका। वह बोले, अभिषेक अपने नाना से मिलने आया था। पिताजी मुझे अपने साथ घर ले आये।घर पर सभी लोग परेशान थे पर मुझे देख के उनकी परेशानी थोड़ी कम ज़रूर हुई थी पर रोना धोना और बढ़ गया था। बाबा को देखते ही मैं उनसे लिपट गया। उनसे लिपट कर मेरा मन बिल्कुल हल्का हो गया था। घर मे जाने पर माँ मुझे पकड़ कर और भी रोने लगी थी। उन्होंने न जाने कितने देवी देवताओं से मन्नते मेरी सकुशल वापसी के लिए मांग रखी थी और उन्हें पूरा करने का समय शुरू हो चुका था।


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