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विवेक वर्मा

Inspirational

5.0  

विवेक वर्मा

Inspirational

मेरी पहली पतंग

मेरी पहली पतंग

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ये बात है आज से करीब आठ-दस साल पहले की। जाड़े के दिन थे, जनवरी का महीना था। उन दिनों लोगों को खाने से कम अपनी रजाई और बिस्तर से ज्यादा मोहब्बत होती थी। आठ - नौ बजे से पहले कोई उठता नही था। आज का दिन मकर संक्रांति का था। छोटे बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े तक सब लोग अपने घर की छतों से लेकर , बड़े फैले मैदानों में जाकर पतंग उड़ा रहे थे। आज का दिन बाकी दिनों से बहुत अलग था। वैसे तो ये त्यौहार हर साल मनाया जाता था पर इस साल की बात कुछ अलग थी। मेरे लिये ये जगह नई थी। मैं और मेरा परिवार हाल ही में यहां आये थे। लोग पतंग कम उड़ा रहे थे शोर ज्यादा मचाते थे। किसी की पतंग काटती थो तो लगता था जैसे सूखे में बारिश हो गयी हो सालों बाद। इतना उत्साह बढ़ जाता था और शोर उससे भी कहीं ज्यादा अधिक। ये कटी वो कटी की आवाज़ मेरे कानों में आकर मुझे परेशान कर रही थी। धीरे-धीरे मेरा मन भी पतंग उड़ाने को लेकर लालायित होने लगा। पर उसके लिये पैसा चाहिये था। तो मैं दौड़ कर पापा के पास गया और बोला कि मुझे पतंग उड़ानी है।

पापा ने पहले मना किया पर मेरे जिद करने पर एक 10 का नोट निकाल के दे दिये। उन दिनों 10 रुलाये में आप तीन जिलों का दौरा करके वापस आ सकते थे। पैसे मिल गये, खुशी से उछलते कूदते मैं बाजार गया पांच पतंगे खरीदी वो भी एकदम बढ़िया वाली जो एक रुपये की एक मिलती थी और बाकी पांच रुपये का मैंने कुछ मांझा और धागा खरीद लिया। दुकान वाले भैया से सारे पतंग की कन्नी बनवा ली क्योंकि मुझे आती नही थी और मुझे पापा पर भरोसा नही था कि वो बना पाएंगे। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैंने उनको कभी पतंग उड़ाते देखा नही था। इसलिए मुझे लगा कि उन्हें नही आती होगी कन्नी बनाना। और मुझपे पतंग उड़ाने का भूत अलग सवार था ही। इसलिए मैंने फटाफट कन्नी बनवाई और जो वहां से भगा तो सीधा घर आकर रुका।

पतंग वगैरह लेकर मैं घर वापस आ गया। मेरे घर के सामने ही बहुत खुली जगह थी वही पर मैं पतंग उड़ाने लगा। बहुत कोशिश की लेकिन मेरी पतंग बाकी लोगों जैसे नही उड़ पाई । जैसे उनकी ऊंची-ऊंची उड़ रही थी। इस चक्कर में मैंने अपनी ४ पतंगे फाड़ डाली। जानबूझकर नही फाड़ी, फट गई अपने आप। कभी तेज से खींचने के चक्कर में तो कभी किसी पेड़ की डाल में फंसकर तो कभी टेलीविजन के ऐन्टेना में अटककर। जैसा कि में छोटा था तो किसी ने भी मेरी पतंग काटी नही, या फिर शायद उतनी ऊंची उड़ी ही ना थी कि कोई काटता।

अब मेरे दिमाग में एक तरकीब आया। मैंने खूब ढेर सारा धागा छोड़ा पतंग को जमीन पर रखा और एक छोर से धागा लेकर दौड़ गया पतंग सरसराकर आसमान में जाने लगी और उड़ने की आवाज़ मेरे कानों में सुनाई देने लगी। मैंने मेरे चरखी का सारा धागा खोल दिया।

मेरी पतंग और सभी के पतंगों की तरह आसमान का सीना नापने को तैयार थी। एकदम रौब में थी, उड़े जा रही थी । तभी हवा का दबाव शायद कम हुआ होगा पतंग थोड़ी-थोड़ी गिरने लगी तो मैं परेशान हो गया मैंने देखा लोग अपने हाथ आगे पीछे करके अपने अपने पतंग को सहारा दे रहे हैं मैं भी वही करने लगा। फिर थोड़े देर में मेरी पतंग एक बार फिर से आसमान की राह टटोलने लगी। बहुत शाम हो चली थी और मैं भी थक गया था फिर मैंने उसे पास के ही एक खूंटे में बांध दिया और वापस जाकर खाना खाकर सो गया।

सुबह उठते ही सबसे पहले मैं अपने पतंग को देखने गया तो वहाँ मुझे सिर्फ मेरी घिरनी और कुछ धागा ही मिला। शायद पतंग आसमान में कहीं दूर किसी राह में अपने सफर पर चली गयी थी। वो भी खुश थी, शायद बहुत खुश। बिल्कुल मेरी तरह।

कहानी सुनने में बहुत ही साधारण लगी होगी आप सब को लेकिन इस कहानी से जो सीख मुझे मिली वो बहुत ही असाधारण थी। जो आज भी मेरे साथ है और मेरे जीवन में मेरे उद्देश्यों की पूर्ति करने में मेरी सहायता कर रही है। उस दिन पतंग उड़ाना एक खेल था लेकिन उस खेल ने मुझे सिखाया की कैसे अगर आप किसी चीज़ को करने की जिद ठान लेते हैं,वो कितनी भी छोटी बड़ी क्यों न हो, आपने उसे कभी किया हो या ना किया हो, कितना भी अजीब और असहज हो आप उसे करने की तरकीब जरूर ढूँढ निकालते हैं। फिर उस तरकीब में अपनी लगन, निष्ठा और भरोसे के इस्तेमाल से उसे साकार कर लेते हैं। जिसमें दुकान वाले भैया की जगह आपका प्रारंभिक ज्ञान, घिरनी की जगह आपका वातावरण, आपके आस पास के लोग, धागा आपका समाज और पतंग आप खुद होते हैं। और जो पतंग उड़ा रहा होता है वो आपका अपना आत्मविश्वास होता है, जिसका खुद पर अटूट भरोसा होता है कि कभी न कभी कैसे ना कैसे करके मैं यह जरूर कर लूंगा।

जिसमें धागा नामक समाज आपको तभी तक बांध कर रख पाता है जब तक आप खुद उड़ने में सक्षम नही हो जाते। एक बार जब आप उड़ना सीख जाते हैं, तो कोई भी धागा आपको बांधे नही रख पाता। उसे आपको छोड़ना ही पड़ता है। और अगर वो आपको नही छोड़ता तो आप उसको तोड़कर आगे निकल जाते हैं। और वह उस धागे की तरह धरासायी होकर जमीन पर पड़ा रहता है। और धागे का वो हिस्सा तो आपको उड़ाने में सहायक होता है, आपके साथ जुड़ा हुआ उड़ता चला जाता है। ये वही कुछ लोग होते हैं जो हमेशा आपके साथ, आपके लिये खड़े रहते हैं, सबसे लड़ते हैं। ये हमारा परिवार हमारे मित्र ही होते हैं। 


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