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ज़िंदगी की दूसरी तरफ

ज़िंदगी की दूसरी तरफ

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"ह्म्म ह्म ह्म आहान...मुसाफिर जाएगा कहाँ.... हूंम्म ह्म.... ऐसे ही गाते थे ना?" कह कर अम्मा धीरे से हँसी| 
'हाँ', मैने अम्मा को बिना देखे ही बोला| 
"पूरा गाना क्या था? गाएगी?" अम्मा बोली| 
"रात के २ बज रहे हैं, सो जाओ|" मैने झेंप कर अम्मा से बोला|
पर अम्मा ने जैसे कुछ सुना ही नही, अम्मा गुनगुनाती रही| और खिड़की के पास जाकर बैठ गयी|

खिड़की के पास इतनी ठंड में बैठने का क्या तुक है| कोई देखेगा तो क्या सोचेगा?

मैं आँखें बंद करके सोने का नाटक करती रही| गुनगुनाते गुनगुनाते अम्मा रोने लगी| मुझे पता था यही होने वाला है| यही हो रहा है पिछले ३ महीनो से, जबसे अब्बू गुज़र गये हैं, अम्मा रोती ही रहती है| हर दम उनकी बातें करती रहती है| कुछ भी कह लो, कितना भी कह लो, कुछ समझना ही नही चाहती|

"हो गया अम्मा तुम्हारा, तो अब सो जाओ" मैने आँखें बंद रखे हुए ही अम्मा से बोला| 
"ना....नींद नही आ रही" अम्मा बोली|
"आज फिर नींद की दवा नही खाई ना?"
"नही, मुझे नही खानी"
और अम्मा फिर गुनगुनाने लगती है|
३ महीने से अम्मा, अम्मा जैसी नही रही| या तो रोती है या ऊल जलूल बातें करती है|

"अगर सोएगी नही तो ऐसे ही पागल हो जाएगी" यही कहा था डॉक्टर ने| पर जबसे ये नींद की गोलियाँ शुरू की हैं, तबसे कहती है तेरे अब्बू सपने में आए थे| दूसरी तरफ हैं,  मुझे अपने पास बुला रहे हैं|" 
मुझे अम्मा की बातें सुन कर पहले तरस आता था अब गुस्सा| अम्मा ऐसे कैसे बात कर सकती है, अम्मा लॉजिकल है, अम्मा साइंटिस्ट है| घर में कभी किसी को कुछ भी होता था, तो अम्मा ही सबका सपोर्ट थी| पर अब अम्मा बदलती जा रही है |

पिछले ६-७ दिन से अम्मा की हालत ज़्यादा खराब है| रोज़ रात में नींद से उठती है और बोलती है "वो उस तरफ अकेले हैं, मुझे जाना पड़ेगा|"

शोक वाजिब है, पागलपन नही| अम्मा और अब्बू को मैने कभी हाथ पकड़े हुए भी नही देखा| जब आपस में बातें भी करते थे तो सिर्फ़ मेरे बारे में| कभी फोटो की बात हो तो, साथ में पास पास खड़े होने को भी बार बार बोलना पड़ता था| चाय भी पीते थे तो दोनो अलग अलग अख़बार पढ़ते हुए चुप बैठकर|
अब अम्मा जब गाने गाती है उनके लिए, तो बहुत अजीब लगता है|

मैं कुछ बोलती नही पर मुझे गुस्सा आता है| मैं क्या क्या सम्हालूँ? घर को, पढ़ाई को, खुद को और अम्मा को.. क्यो थोड़ा सहारा अम्मा नही बन सकती? जैसे पहले कुछ भी होता था तो सब सम्हाल लेती थी|

आज रात मेरी नींद खुली, तो अम्मा कोई किताब पढ़ रही थी| 
"क्या पढ़ रही हो इतनी रात को?"
"कुछ नही, बस ऐसे ही... सोच रही थी कल तेरे लिए खीर बना देती... पर याद ही नही आ रहा कैसे बनाती थी, तो उसकी रेसिपी पढ़ रही थी" | 
जैसे ३ महीने बाद मैने अम्मा को कुछ नॉर्मल बात करते सुना|
"अरे वाह अम्मा ! खीर मुझे बहुत पसंद है, थोड़ी ज़्यादा बना देना, हम खाला के पास जाएँगे , उनको भी खिलाएँगे|"
"ज़्यादा तो बना दूँगी, पर बस तेरे लिए ही ..और किसी के लिए नही|"
मुझे हँसी आई - "ठीक है| किसी को नही देंगे, बस हम दोनो खाएँगे|"
"सिर्फ़ तू खा लेना, अभी सो जा, कल बहुत काम है|"
अगले दिन सुबह से अम्मा किचन में ही थी| मुझे लगा ज़िंदगी धीरे धीरे वापस अपने रास्ते आने लगी है|
शाम को आकर देखा तो सारे बर्तन खीर से भरे पड़े हैं| हर छोटे बड़े बर्तन में खीर|
अम्मा और खीर बना रही है| 
"अम्मा क्या है ये?"
"खीर है, तुझे पसंद है ना?"
"इतनी सारी?"
"हाँ, मैं चली गयी, तो तुझे भूख लगेगी ना?"
"कहाँ जा रही हो तुम?"
"तुझे कितनी बार बताया है, तेरे अब्बू उस तरफ अकेले हैं, मुझे बुला रहें हैं वो, मुझे जाना है|" अम्मा की आँखों में अजीब सा विश्वास था|

"बहुत हो गया अम्मा, बस कर दो, अब नही झेला जाता तुम्हारा पागलपन| कोई नही बुला रहा तुमको| ये सब तुम्हारे दिमाग़ में है|" 
मैने अब्बू का फोटो अम्मा के हाथ में रखते हुए बोला- "मर गये हैं ये| हमारी आँखों के सामने दफ़नाया गया था इनको| मरा हुआ आदमी किसी को नही बुलाता| तुम पागल हो चुकी हो|" मैने लगभग चिल्लाते हुए और रोते हुए अम्मा से बोला|

"पता है मुझे मर गये हैं वो, पर मुझे ये भी पता है की वो गये नही हैं| दूसरी तरफ खड़े हैं, हमारा इंतेज़ार कर रहें हैं|" अम्मा असहाय सी बैठते हुए बोली|
"अम्मा, कोई दूसरी तरफ नही है, ये ही सच है| वहाँ कोई नही है| सब तुम्हारे दिमाग़ में है| पागल हो जाओगी डॉक्टर ने कहा था, मुझे लगता है हो गयी हो|" कह कर मैं फूट फूटकर रोने लगी|
"वो हैं...." कहकर अम्मा चुपचाप बैठ गयी|

जब मैं अम्मा को नींद की दवा दे रही थी, तब मन भारी हो रहा था|| उस रात पता नही मुझे क्यो ऐसा लगा कि मैं अम्मा को खोने वाली हूँ|मैं सारी रात सोई हुई अम्मा से अपने पास रुकने की मिन्नतें करती रही| माफी मांगती रही| तरह तरह के लालच देती रही| अपने अकेले होने का डर बताती रही|
पर अगली सुबह अम्मा नही उठी| मैं रोती रही पर अम्मा नही उठी|

आज अम्मा को गये हुए ३ दिन हो गये हैं| मुझे धीरे धीरे नींद आ रही है|

सामने अम्मा खड़ी है, बोल रही है-
"मुझे माफ़ कर दे| तू सच कह रही थी, यहाँ कोई नही है| तेरे अब्बू यहाँ नही हैं| मुझे बहुत डर लग रहा है, तू मेरे पास आजा..... तू सच कह रही थी ..|"

झटके सें मेरी नींद खुलती है|

ह्म...आहान..ह्म... निंदिया. रे..ऐसा ही कोई गाना था जो अम्मा गाती थी| 
क्या गाना था? 
सोचते हुए वो खिड़की के पास बैठ जाती है|

 

 


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