अहिल्यादेवी
अहिल्यादेवी
राजमाता पुण्यश्लोक अहिल्या होलकर, इन्होंने बड़ी ही चतुराई से राज्य का भार किया, मालवा साम्राज्य की अहिल्या देवी महारानी थी। मध्य प्रदेश अहमदनगर उन्हें इंदौर घराने की बहू बनाकर लाया गया था। वह तेजस्वी, होशियार भोलेनाथ शंकर जी की महाभक्त थी, कुछ वर्षों बाद युद्ध में उनके पति का निधन हुआ, तब अहिल्या विधवा हो गई थी। तब समाज में सती प्रथा थी, वह अंदर से बहुत टूट गई थी लेकिन उन्होंने चितापर सती जाने से साफ मना किया, उनके निर्णय पर उनके श्वसुरजी को गर्व हुआ। अहिल्या के श्वसुर बहुत अच्छे समझदार इंसान थे, उन्होंने अहिल्या को बहुत आधार दिया उन्हें समझा बुझाकर राज्य कार्य भार संभालने का हौसला दिया था। अब अहिल्या ने बड़े उदास मन से समाज कार्य करने हेतु आगे कदम बढ़ाया।
वह धार्मिक पथ पर आगे बढ़ी, उस जमाने में स्त्रियों को कोई महत्व नहीं था। वह गुलाम की तरह रहती थी। तब पुरुष सत्ता का साम्राज्य था,उस जमाने में अहिल्या ने स्त्री होकर आत्म विश्वास से कार्य करके इस कलंक को धोया एवं राजगद्दी संभाली, उनके हाथ में सदा शंकरजी की पींड़ी होती थी, वह न्याय ज्ञानी साम्राज्ञी धार्मिक कार्य में आगे थी, उन्होंने कई मंदिरों का धार्मिक मठों का,तथा वास्तुओं का निर्माण किया एवं जलसंवर्धन को भी महत्व दिया। सनातनी कर्मठ व्यवस्था का विरोध किया। किसानों को खेती-बाड़ी के लिए पानी सिंचन की व्यवस्था तथा अनेक कुंओं का निर्माण करवाए गया एवं खेती-बाड़ी के लिए बीज, खत, सामान राजकोश की ओर से दिया गया।
किसानों ने बहुत अच्छी तरह से खेती-बाड़ी तैयार कर अनाज की पैदावार की तथा अनेक नदियों पर तथा तालाबों पर पक्के घाट बनाए, वह बांध काम इतना मजबूत है कि 300 वर्षों के बाद भी ज्यों का त्यों है। यह सभी उत्कृष्ट कामों की हकदार अहिल्या देवीने करवाया है और उस जमाने में भी वास्तु शास्त्र के हिसाब से बांध काम किया गया था। तुळजापुर, सातारा, शिंगणापुर बड़े-बड़े कला कौशल्यपुर्ण मंदिर बनवाए। जानवरों के लिए पानी पीने के लिए हौद बनवाए। सभी काम कोरीव पत्थरों से एवं मजबूती से करवाए गए थे।
रानी अहिल्याबाई ने अपने साम्राज्य महेश्वर और इंदौर में काफी मंदिरों का निर्माण किया एवं धर्मशालाएं बनाई। गुजरात कोद्वार का, काशी विश्वनाथ, वाराणसी का गंगा घाट, उज्जैन के कई मंदिर, नासिक विष्णुपद मंदिर, बैजनाथ के आसपास, शिवजी का सोमनाथ मंदिर बनवाये।
अहिल्या देवी ने स्त्रियों के हित के लिए कई निर्णय लिए। सती प्रथा के विरोध में आवाज उठाई। घुड़सवारी तलवारबाजी, पट्टा चलाया। युद्ध के दौरान वह खुद सेना में शामिल होकर युद्ध करती थी। वहां एक कुशल तीरंदाज थी। उन्होंने कई युद्धों में अपने सेना का नेतृत्व किया एवं हाथी पर सवार होकर वीरता के साथ लड़ी। राजकीय व्यवस्था को धार्मिक व्यवस्था की जोड़ देकर न्याय निपुणता से निर्णय लेकर राज्य कार्यभार संभाला, अंधविश्वास तथा रूढिया परंपरापर बहुत श्रद्धा थी। उन्हें बहुत तकलीफों का सामना करना पड़ा, फिर भी उनके उत्कृष्ट विचारों ने एवं नैतिक आचरण से उन्हें समाज में देवी का दर्जा दिया गया इसीलिए वह राजगद्दी की हकदार बनकर कई वर्ष कार्यभार संभाल कर रनरागिनी कहलाई गई। जनता में अहिल्यादेवी को अवतार भी समझा गया। अहिल्यादेवी किसी बड़े राज्य की रानी नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में जो कुछ किया वह आश्चर्यचकित करने वाला कार्य था।
जिस सती प्रथा का उन्होंने विरोध किया था, लेकिन वही बात उनके बेटी पर लागू नहीं हुई। जब उनका दामाद खत्म हुआ, बेटी को सती जाने से नहीं रोक पाई। यह बेहद दुख भरा सामना उन्होंने अपने जीवन में किया, इस बात की वजह से, उन्हें अपार दुखों के खाई में धकेला, अंदर ही अंदर उन्हें यह दुख सताता रहा। यह दुख लेकर ही उनका स्वर्गवास हुआ। सन १७९५ मे एक ज्वलंत तारा पृथ्वी छोड़कर स्वर्ग की शान बना।