द्वंद्व युद्ध - 05
द्वंद्व युद्ध - 05
रमाशोव बाहर ड्योढ़ी में आया। रात और गहरा गई थी और ज़्यादा काली और गर्म हो गई थी। सेकंड लेफ्टिनेन्ट बागड के सहारे टटोल टटोल कर चल रहा था और अपनी आँखों के उस अंधेरे का अभ्यस्त होने का इंतज़ार कर रहा था। तभी निकोलाएव के किचन का दरवाज़ा अचानक खुला और अंधेरे में धुंधले पीले रंग का पट्टा बिखर गया। कोई कीचड़ में छप-छप चल रहा था, और रमाशोव ने निकोलाएव के अर्दली स्तेपान की चिड़चिड़ाहटभरी आवाज़ सुनी, “आ जाता है, आ जाता है, हर रोज़। और क्यों आता है, शैतान ही जाने !”
और दूसरे सिपाही की, सेकंड लेफ्टिनेन्ट के लिए अपरिचित, आवाज़ ने उदासीनता से, लम्बी जमुहाई लेते हुए जवाब दिया, “ काम होता है, मेरे भाई। ये सब चर्बी के कारण होता है। चलो, अलविदा, स्तेपान।”
“अलबिदा बाउलिन। जब जी चाहे आ जाना।”
रमाशोव बागड़ से चिपक गया। तीव्र लज्जा से उस अंधेरे में भी वह लाल हो गया; उसका पूरा शरीर पसीने से नहा गया, पीठ और पैरों में मानों हज़ारों सुइयाँ बेशक ! अर्दली भी हँसते हैं”, उसने पीड़ा से सोचा। उसकी आँखों के सामने आज की पूरी शाम घूम गई और मेज़बानों द्वारा कहे गए विभिन्न शब्दों से, उनके बातें करने के अंदाज़ से, आपस में नज़रों ही नज़रों में किए जा रहे इशारों से उसके सामने अचानक बहुत सारी छोटी छोटी बातें, जिनकी ओर पहले कभी उसका ध्यान नहीं गया था, स्पष्ट हो गईं, जो बोर करने वाले मेहमान की भर्त्सना करते हुए, उसका मख़ौल उड़ाते हुए उसके प्रति उनकी नाराज़गी प्रकट करती थीं।
“कैसी शर्मनाक बात है, आह, कैसी शर्मनाक बात है !” सेकण्ड लेफ्टिनेन्ट अपनी जगह से हिले बिना फुसफुसाया। “इस हद तक जाना कि कोई तुम्हारा आना मुश्किल से बर्दाश्त करे। नहीं, बस, अब मुझे अच्छी तरह से मालूम हो गया है, कि यह बहुत हो चुका !”
निकोलाएव के ड्राइंग रूम की रोशनी बुझ गई। "वे बेडरूम में हैं रमाशोव ने सोचा और असाधारण स्पष्टता से कल्पना करने लगा कि कैसे सोने की तैयारी करते हुए वे एक दूसरे के सामने ही उदासीनता से एवम् बिना किसी संकोच के, जैसा कि काफ़ी समय से विवाहित जोड़ों के साथ होता है, कपड़े बदलते हुए वे उसके बारे में बातचीत कर रहे हैं। वह केवल एक स्कर्ट में आइने के सामने बैठी रात के लिए बाल सँवार रही है। व्लादीमिर येफीमविच नाइट शर्ट में पलंग पर बैठा हुआ जूते उतार रहा है और इस कोशिश के कारण गुस्साए और उनींदे स्वर में कह रहा है, “ शूरच्का , जानती हो, मुझे तुम्हारे इस रमाशोव ने इतना बोर कर दिया है ! मुझे अचरज होता है कि तुम उसे कैसे बर्दाश्त करती हो और शूरच्का दाँतों से पिन निकाले बिना और उसकी ओर मुड़ॆ बगैर आइने में ही ग़ुस्से से जवाब देती है “वह बिल्कुल मेरा नहीं है, तुम्हारा ही है !”
इन कड़वे और दर्दनाक ख़यालों से परेशान रमाशोव ने जब तक आगे चलने का निश्चय किया, तब तक पाँच मिनट बीत चुके थे। निकोलायेव के घर को घेरती हुई बागड़ की बगल से वह छुप छुपकर, अत्यंत सावधानीपूर्वक कीचड़ में से पाँव निकालते हुए चल रहा था, मानो डर रहा हो कि उसे कोई सुन लेगा और ग़लत बात करते हुए पकड़ लेगा। घर जाने का उसका मन नहीं था: अपने तंग और लंबे, एक खिड़की वाले कमरे के बारे में, जिसकी नफ़रत की हद तक उकताने वाली चीज़ों के बारे में सोचने से ही डर लग रहा था, घृणा हो रही थी। “उसे जलाने के लिए नज़ान्स्की के पास जाऊँगा," उसने अचानक निश्चय किया और इससे उसे फ़ौरन किसी प्रतिशोधात्मक आनन्द की अनुभूति हुई। –“उसने नज़ान्स्की के साथ दोस्ती रखने के लिए मेरी भर्त्सना की थी, तो, जले ! भाड़ में जाए !।”
आसमान की ओर आँखें करके और सीने पर हाथ रखते हुए, उसने तैश में आकर अपने आप से कहा: “कसम खाता हूँ, क़सम ख़ाता हूँ कि यह आख़िरी बार मैं उनके घर गया था। फिर कभी ऐसा अपमान नहीं झेलूँगा। क़सम खाता हूँ !”
और फ़ौरन ही, अपनी आदत के मुताबिक़ ख़यालों में आगे उसकी काली, भावपूर्ण आँखें निश्चय और नफ़रत से चमकने लगीं !”
हाँलाकि उसकी आँखें बिल्कुल भी काली नहीं थीं, बल्कि अत्यंत साधारण थीं- पीली सी, हरी किनार वाली।
नज़ान्स्की ने अपने सहयोगी, लेफ्टिनेन्ट ज़ेग्र्झ्त के घर में किराए पर एक कमरा लिया था। यह ज़ेग्र्झ्त, शायद समूची रूसी सेना में सबसे पुराना लेफ्टिनेन्ट था, अपने बेदाग़ सेवा-रिकार्ड और तुर्की युद्ध में भाग लेने के बावजूद। न जाने किस दुर्भाग्य के कारण उसकी पदोन्नति नहीं हो पाई थी। वह विधुर था, अपनी अड़तालीस रुबल्स की तनख़्वाह में चार छोटे-छोटे बच्चों के साथ किसी तरह गुजर-बसर करता था। वह बड़े बड़े फ्लैट्स किराये पर लेता था और कुँआरे अफ़सरों को एक एक कमरा किराए पर दिया करता था, पेइंग गेस्ट रखता था, मुर्गियाँ और टर्की पाला करता, ख़ास सस्ती दरों में, और समय रहते लकड़ियाँ खरीदा करता। अपने बच्चों को वह स्वयँ एक टब में नहलाया करता, अपनी घरेलू दवा की सन्दूकची से उनका इलाज करता और स्वयँ सिलाई मशीन पर उनके लिए कच्छे, निक्कर्स और कमीज़ें सिया करता। शादी के पहले से ही जेग्र्झ्त को, अन्य अनेक कुँआरे अफ़सरों की भाँति महिलाओं द्वारा की जाने वाली हस्त कला में दिलचस्पी थी, मगर अब तो ज़रूरत के कारण उसे यह करना पड़ता था। बुरी ज़ुबाने तो यहाँ तक कहती थीं कि वह हाथों हाथ, चुपके चुपके अपनी बनाई चीज़ें बेचा करता है।
मगर बचत की दृष्टी से किए गए इन सब कामों से ज़ेग्र्झ्त को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। घरेलू पंछी महामारी से मर गए, कमरे ख़ाली हो गए, बुरे खाने की शिकायत करके पेइंग गेस्ट उसका पैसा डुबाने लगे, और साल में चार बार लम्बे, दुबले-पतले, दाढ़ी बढ़ाए ज़ेग्र्झ्त को पसीने में डूबे, बदहवास चेहरा लिए शहर में कहीं से पैसा मांगने के लिए परेशानी में घूमते हुए देखा जा सकता था, उसकी पैनकेक जैसी हैट सिर पर तिरछी पड़ी रहती, और निकोलाय के समय का प्राचीन कोट, जो युद्ध से पूर्व सिया गया था, उसके कंधों पर हवा में पंखों की तरह फड़फड़ाया करता।
इस समय उसके यहाँ कमरों में बत्ती जल रही थी, और, खिड़की की ओर आते हुए, रमाशोव ने ख़ुद ज़ेग्र्झ्त को ही देखा। वह छत से लटकते हुए बल्ब के नीचे गोल मेज़ पर बैठा था और अपने गंजे सिर और झुर्रियों वाले, सौम्य, थके हारे चेहरे को झुकाए, उभरे हुए लाल कागज़ को अस्तर जैसे किसी कपड़े पर सी रहा था,-शायद मालाया रूस के किसी कुर्ते का सीना था वह। रमाशोव ने खिड़की के काँच पर टक्-टक् की। ज़ेग्र्झ्त काँप गया, उसने काम एक ओर रख दिया और खिड़की की ओर आया।
“मैं हूँ, ऎडम इवानोविच। एक मिनट के लिए खिड़की खोलिए न,” रमाशोव ने कहा।
ज़्ग्र्झ्त खिड़की की सिल पर चढ़ गया और उसने छोटे रोशनदान से अपना गंजा माथा और एक ओर को झुकी हुई विरल दाढी बाहर निकाली।
“क्या यह आप हैं, सेकंड-लेफ्टिनेन्ट रमाशोव ? क्या बात है ?”
“नज़ान्स्की घर पर है ?”
“घर में, घर में ही है। वह कहाँ जाएगा ? ऎ ख़ुदा,” छोटे रोशनदान में ज़ेग्र्झ्त की दाढ़ी हिली, “ मेरा दिमाग़ ख़राब कर दिया तुम्हारे नज़ान्स्की ने। दो महीनों से उसे खाना भेज रहा हूँ, और वह है कि बस, वादा ही करता है पैसे चुकाने का। जब वह यहाँ आया था तो मैंने उसे ज़ोर देकर कहा था कि देखो कोई कटुता मत पैदा करना ...”
“ हाँ, हाँ, हाँ ...यह ...वाक़ई में ...” रमाशोव ने अनमनेपन से उसकी बात काटी। “बताइये तो, कैसा है वह ? क्या मैं उससे मिल सकता हूँ ?”
“शायद, मिल सकते हैं ...लगातार कमरे में घूमता रहता है,” ज़ेग्र्झ्त ने एक सेकंड आहट लेते हुए कहा। “अभी भी चक्कर लगा रहा है। आप समझ रहे हैं मेरी बात, मैंने उससे साफ़-साफ़ कहा था: किसी भी तरह की कटुता को टालने के लिए यह तय करते हैं कि पैसे ...”
“माफ़ कीजिए, ऍडम इवानोविच, मैं अभी,” रमाशोव ने उसे रोकते हुए कहा। “अगर आप इजाज़त दें, तो मैं फिर आऊँगा। बहुत ज़रूरी काम है ...”
वह आगे बढ़ा और नुक्कड़ पर मुड़ गया। सामने वाले बगीचे की गहराई में, नज़ान्स्की के कमरे में रोशनी दिखाई दे रही थी। एक खिड़की पूरी तरह खुली थी। ख़ुद नज़ान्स्की, बग़ैर कोट के, केवल कमीज़ पहने तेज़ तेज़ क़दमों से कमरे में चक्कर लगा रहा था; उसकी सफ़ेद आकृति और सुनहरे बालों वाला सिर कभी खिड़की की रोशनी में दिखाई देते, कभी खंभे के पीछे छिप जाते। रमाशोव बागड़ फाँद कर अंदर आया और उसे बुलाने लगा।
“कौन है ?” बड़े सुकून से, जैसे उसे इस आवाज़ का इंतज़ार था, नज़ान्स्की ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए पूछा। “आह, ये आप हैं, गिओर्गी अलेक्सेइच ? रुकिए: फ़ाटक से आपको दूर पड़ेगा और अंधेरा भी है। खिड़की में चढ़ जाइए। अपना हाथ दीजिए।”
नज़ान्स्की का कमरा रमाशोव के कमरे से भी बदतर था। खिड़की के निकट की दीवार से लगा एक पलंग पड़ा था, सँकरा, ख़ूब नीचा, गड्ढे जैसा झोल पड़ा, इतना पतला मानो उसकी लोहे की फ्रेम पर सिर्फ़ एक पतला गुलाबी कंबल पड़ा हो; दूसरी दीवार के पास एक सीधी सादी, बेरंग मेज़ और दो भद्दे स्टूल पड़े हुए थे। कमरे के एक कोने में दीवार पर लकड़ी की एक छोटी सी, सँकरी शेल्फ टँगी थी। पलंग के पैरों के बीच में चमड़े की भूरी सूटकेस पड़ी थी, जिस पर जगह जगह रेल्वे वालों के लेबल्स चिपके हुए थे। इन चीज़ों के अलावा, अगर मेज़ पर रखे लैम्प को छोड़ दिया जाए, तो कमरे में और कोई चीज़ नहीं थी।
“नमस्ते, मेरे प्यारे,” गर्मजोशी के साथ रमाशोव से हाथ मिलाकर अपनी विचारमग्न, ख़ूबसूरत, नीली आँखों से सीधे रमाशोव की आँखों में देखते हुए नज़ान्स्की ने कहा। “बैठिए न यहाँ, पलंग पर। आपने सुना कि मैंने अपनी बीमारी की रिपोर्ट भेज दी है ?”
“हाँ, मुझे अभी अभी इस बारे में निकोलायेव ने बताया।”
रमाशोव को फिर अर्दली स्तेपान के भयानक शब्द याद आ गए, और उसके चेहरा पीड़ा के कारण ऐंठ गया।
“आह ! क्या तुम निकोलायेवों के यहाँ गये थे ?” अचानक ज़िन्दादिली और ज़ाहिर दिलचस्पी से नज़ान्स्की ने पूछा। “तुम अक्सर उनके यहाँ जाते हो ?”
इस प्रश्न के विशिष्ठ लहज़े ने सावधानी की एक अस्पष्ट प्रेरणावश रमाशोव को झूठ बोलने पर मजबूर कर दिया, और उसने बेफ़िक्री से जवाब दिया, “ नहीं, अक्सर नहीं। बस, ऐसे ही चला गया था।”
कमरे में आगे पीछे घूमते हुए नज़ान्स्की ने शेल्फ़ के निकट रुक कर उसे खोला। उसमें वोद्का की बोतल रखी थी, पतली पतली एक सी फाँकों में कटा हुआ एक सेब भी पड़ा था। मेहमान की ओर पीठ किए उसने फ़ौरन अपने लिए एक जाम भरा और पी गया। रमाशोव ने पतली लिनन की कमीज़ के नीचे उसकी पीठ को ऐंठते-थरथराते देखा।
“कुछ लोगे ?” नज़ान्स्की ने सेब की ओर इशारा करते हुए पूछा। “ साधारण सी चीज़ है, मगर, यदि भूख लगी हो तो ऑमलेट का इंतज़ाम कर सकता हूँ। हमारे जर्जर ऍडम को मनाया जा सकता है।”
“धन्यवाद। बाद में।”
नज़ान्स्की जेबों में हाथ डाले कमरे में घूम रहा था। दो चक्कर लगाने के बाद वह बोला, मानो अपनी अधूरी बात आगे बढ़ा रहा हो, “ हाँ। मैं, बस घूमता रहता हूँ और सोचता रहता हूँ। और, जानते हो, रमाशोव , मैं बड़ा भाग्यवान हूँ। कल फ़ौज में सब कहेंगे कि मुझे पीने का दौरा पड़ा है। और, क्या।।।बात ठीक ही है, मगर यही पूरा सच नहीं है। इस समय मैं भाग्यवान हूँ, और ज़रा भी बीमार नहीं हूँ, न ही मुझे कोई तकलीफ़ है। सामान्य परिस्थितियों में मेरी बुद्धि और मेरी इच्छा शक्ति कुंद हो जाती है। उस समय मैं एक भूखा, भीरू आम इन्सान बन जाता हूँ ; नीच, स्वयँ को ही अप्रिय लगने वाला, बुद्धिमान, संजीदा। मिसाल के तौर पर, मैं फ़ौजी नौकरी से नफ़रत करता हूँ, मगर नौकरी किए ही जा रहा हूँ। आख़िर क्यों ? शैतान ही जाने क्यों ! क्योंकि बचपन से ही यह बात मेरे दिमाग़ में ठूँस ठूँस कर भरी गई थी, और अब मेरे इर्द-गिर्द सभी कहते हैं कि ज़िंदगी में सबसे महत्वपूर्ण बात है – नौकरी करना और भरपेट खाना तथा अच्छे कपड़ॆ पहनना। और फ़िलॉसोफ़ी, कहते हैं, बड़ी बेहूदा चीज़ है; यह बस निठल्लों के लिए ही ठीक है, उनके लिए जिनकी माँ विरासत में जायदाद छोड़ गई है। और मैं, बस वो ही चीज़ें किये जाता हूँ, जिनमें मेरा ज़रा भी दिल नहीं लगता, जान के डर से उन आज्ञाओं का पालन किए जाता हूँ जो मुझे क्रूर और कभी कभी बेतुकी प्रतीत होती हैं। मेरा जीवन बस एक ही ढर्रे पर चल रहा है - नीरस, उकताहटभरा, जैसे कि यह फेन्सिंग; इतना बदरंग है, जैसे सिपाही के कपड़े। प्यार, ख़ूबसूरती, इन्सानों से अपने संबंधों के बारे में, प्रकृति , लोगों के सुख और उनकी समानता के बारे मैं, कविता के बारे में, ख़ुदा के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता - इन पर बहस करने की बात तो मैं कह ही नहीं रहा। वे सब हँसते हैं: हा-हा-हा, ये सब फ़िलॉसोफ़ी है ! ...बड़ी मज़ाक़िया और बड़ी वाहियात सी बात है, और पैदल फौज के अफ़सर को ऐसे उदात्त विचारों के बारे में सोचने की इजाज़त भी नहीं है। इस तरह ये फ़िलोसोफ़ी, शैतान ले जाए, - निरर्थक, निठल्लेपन की, बेहूदगी भरी बकवास है।”
“मगर यह – ज़िन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण है,” ख़यालों में डूबे डूबे रमाशोव ने कहा।
“और अब मेरे लिए वह समय आ रहा है, जिसे वे सब इतना भयानक नाम देते हैं,” नज़ान्स्की बिना उसकी बात सुने कहता रहा। वह लगातार आगे पीछे घूम रहा था और बीच बीच में, रमाशोव की ओर नहीं, बल्कि सामने के दो कोनों की ओर, जहाँ तक वह बारी बारी से जा रहा था, देखते हुए मानो दृढ़ निश्चय से भरे इशारे भी करता जा रहा था।- “यह समय है मेरी आज़ादी का, रमाशोव, आत्मा की, इच्छा की, बुद्धि की आज़ादी का ! तब मैं, शायद, एक विचित्र मगर गहरा, आश्चर्यजनक, आंतरिक जीवन जिऊँगा। ऐसा परिपूर्ण जीवन ! वह सब, जो मैंने देखा है, जिसके बारे में पढ़ा या सुना है, सब मेरे भीतर जीवित हो जाएगा, सब कुछ एक असाधारण चमचमाते प्रकाश से आलोकित होकर एक गहरे, अनंत अर्थ को प्राप्त कर लेगा। तब मेरा स्मृति-भंडार- मानो बिरले आविष्कारों का संग्रहालय बन जाएगा। समझ रहे हो – मैं रोथशील्ड हूँ ! जो भी चीज़ पहले मेरे सामने पड़ती है, उसके बारे में विचार करता हूँ, बड़ी देर तक, पूरी बारीक़ी से, आनन्द उठाते हुए। लोगों के बारे में, मुलाक़ातों के बारे में, चरित्रों के, पुस्तकों के, औरतों के बारे में - आह, ख़ास तौर से औरतों के बारे में और उनके प्यार के बारे में ! ...कभी कभी मैं उन महान व्यक्तियों के बारे में सोचता हूँ, जो हमारे बीच नहीं हैं; सोचता हूँ विज्ञान की ख़ातिर शहीद हुए लोगों के बारे में, विद्वानों के, महान नायकों के बारे में, उनके विस्मयकारी विचारों के बारे में। मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करता, रमाशोव, मगर कभी कभी मैं संतों के, फ़क़ीरों के, शहीदों के बारे में सोचता हूँ और पवित्र किताबों की याद ताज़ा कर लेता हूँ। मेरे प्यारे, आख़िर मैं सेमिनारी में पढ़ा हूँ और मेरी याददाश्त लाजवाब है। मैं इस सब के बारे में सोचता हूँ, और ऐसा हो जाता है कि मैं दूसरों की प्रसन्नता को, उनकी पीड़ा को या किसी काम की अनश्वर सुन्दरता को अनुभव करने लगता हूँ, इस हद तक कि बस घूमने लगता हूँ, इधर से उधर, अकेला ...और रोता हूँ, - बेतहाशा, दयनीयता से रोता हूँ ...”
रमाशोव हौले से पलंग से उठा और पैर ऊपर करके खुली खिड़की में इस तरह बैठ गया कि उसकी पीठ और पंजे आमने सामने की चौखट से टिक गए। यहाँ से, प्रकाशित कमरे से, रात और भी ज़्यादा काली, गहरी और रहस्यमय प्रतीत हो रही थी। गर्माहट लिए हवा के तेज़, मगर ख़ामोश झोंके खिड़की के नीचे छोटी छोटी झाड़ियों के काले पत्तों को सहला रहे थे। और बसन्त की अजीब अजीब ख़ुशबुओं से सराबोर इस नर्म हवा में, इस ख़ामोशी में, अंधेरे में, इन चटकीले, गर्म सितारों में – महसूस हो रही थी एक रहस्यमय और आशाभरी भटकन, आभास हो रहा था मातृत्व की प्यास का और पृथ्वी की, पौधों की, पेड़ों की - समूची प्रकृति की भरपूर समृद्धता का।
और नज़ान्स्की लगातार कमरे में घूम रहा था और रमाशोव की ओर बिना देखे बोले जा रहा था, मानो वह कमरे की दीवारों और कोनों से बातें कर रहा हो।
“ऐसे समय में विचार इतनी तेज़ी से, इतनी बेताबी से, और इतने अनपेक्षित रूप से भागते हैं। बुद्धि पैनी और स्पष्ट हो जाती है, कल्पना – मानो सैलाब हो ! सारी चीज़ें और सारे चेहरे, जिन्हें मैं याद करता हूँ, इतने आराम से और इतनी स्पष्टता से मेरे सामने खड़े हो जाते हैं, मानो मैं उन्हें किसी धुंधले कॅमेरे में देख रहा हूँ। मैं जानता हूँ, मैं जानता हूँ, मेरे प्यारे कि यह विचारों का पैनापन है, यह सब आत्मा का प्रकाशित होना है,- आह ! - यह कुछ और नहीं, बल्कि शराब का स्नायु तंत्र पर हो रहा प्रभाव है। आरंभ में, जब मैंने पहली बार इस आंतरिक उत्तेजना को महसूस किया तो मैंने सोचा कि यह - स्वयँ आत्मोन्नति है। मगर नहीं: इसमें कोई सृजनात्मकता नहीं है, कोई स्थायित्व भी तो नहीं है। यह बस एक बीमार सी प्रक्रिया है। यह बस अचानक आए ज्वार की तरह है, जो हर बार तल को अधिकाधिक खा जाता है। हाँ। मगर फिर भी यह मतिहीनता मुझे बड़ी मीठी लगती है, और ...भाड़ में जाए जीवन को बचाने की सावधानियाँ और साथ ही शैतान ले जाए सौ साल जीने की और लंबा जीवन पाने वाले बिरले उदाहरण के रूप में अख़बार की चौखट में समाने की उम्मीद को ...मैं ख़ुश हूँ – और बस, यही काफ़ी है !”
नज़ान्स्की फिर शेल्फ की ओर गया और एक घूँट पीने के बाद उसने शेल्फ का दरवाजा सावधानी से बन्द कर दिया। रमाशोव अलसाहट से, लगभग अनजाने ही, उठा और उसने भी वही किया।
“मेरे आने से पहले आप किस बारे में सोच रहे थे, वासिली नीलिच ?” उसने वापस अपनी खिड़की की चौखट पर बैठते हुए पूछा।
मगर नज़ान्स्की ने उसका सवाल क़रीब क़रीब सुना ही नहीं।
“ मिसाल के तौर पर, औरतों के बारे में सोचने से कैसी ख़ुशी मिलती है !” वह दूर वाले कोने की ओर जाकर, इस कोने को तेज़ तेज़ हाव भाव सहित संबोधित करते हुए चहका। “नहीं, सोचना गंदा नहीं है। किसलिए ? आदमी को कभी भी, ख़यालों में भी, बुराई में और उससे भी बढ़कर, गंदगी में सहभागी नहीं बनाना चाहिए। मैं अक्सर नाज़ुक, साफ़-सुथरी, गरिमायुक्त महिलाओं के बारे में सोचता हूँ, उनकी उजली और आकर्षक मुस्कान के बारे में सोचता हूँ, जवान, पवित्र माताओं के बारे में सोचता हूँ, प्रियतमाओं के बारे में सोचता हूँ, जो प्यार की ख़ातिर अपनी जान क़ुर्बान कर देती हैं, बर्फ़ जैसी बेदाग़ आत्मा वाली निष्पाप और स्वाभिमानी लड़कियों के बारे में सोचता हूँ, जो सब कुछ जानती हैं और किसी भी चीज़ से डरती नहीं हैं। ऐसी औरतें हैं ही नहीं। मगर, हो सकता है, मैं गलत हूँ, शायद, रमाशोव , ऐसी औरतें हैं, मगर हम तुम उन्हें कभी न देख पाएं। तुम तो शायद देख भी लो, मगर मैं- नहीं देख पाऊँगा।”
अब वह रमाशोव के सामने खड़ा था और सीधे उसके चेहरे की ओर देख रहा था, मगर उसकी आँखों के खोएपन से, उसके होठों के चारों ओर खेल रही अनबूझी मुस्कुराहट से साफ़ नज़र आ रहा था कि वह उसे देख नहीं रहा है। रमाशोव को नज़ान्स्की का चेहरा कभी भी, बेहतरीन और संजीदा घड़ी में भी इतना सुन्दर और इतना दिलचस्प प्रतीत नहीं हुआ था। ऊंचे, साफ़-सुथरे माथे पर सुनहरे, घुंघराले बालों की लटें; घनी, भूरी चौकोर लहर जैसी, चुन्नटदार, छोटी सी दाढ़ी; उसका मज़बूत, दिलकश सिर, ख़ूबसूरत पेंटिंग जैसी खुली हुई गर्दन समेत, किन्हीं ग्रीक नायकों या बुद्धिमान लोगों के सिर जैसा था, जिनके शानदार तराशे हुए बुत रमाशोव कभी देख चुका था। साफ़, कुछ कुछ नम, नीली आंखें सजीवता से, बुद्धिमत्ता से, शरारत से देख रही थीं। इस ख़ूबसूरत, तराशे हुए चेहरे का रंग भी अपने नज़ाकत भरे गुलाबी रंग से आकर्षित कर रहा था, और सिर्फ एक अनुभवी आँख ही पहचान सकती थी कि इस ऊपरी ताज़गी में, नाक-नक्श की कुछ सूजन के साथ साथ, शराब के कारण उत्तेजित हुए ख़ून का परिणाम भी शामिल है।
“प्यार ! औरत के लिए ! कैसी गहरी रहस्यमय बात है ! कैसा आनन्द और कैसी चुभती हुई, मीठी पीड़ा !” नज़ान्स्की अचानक उत्तेजना से चहका।
उसने उत्तेजना से दोनों हाथों से अपने बाल पकड़ लिए और वापस कोने की तरफ़ लपका, मगर वहाँ तक जाते जाते रुक गया और रमाशोव की ओर मुँह करके ठहाका मारते हुए हँस पड़ा। सेकंड लेफ्टिनेन्ट बेचैनी से उसकी ओर देखता रहा।
“एक मज़ाहिया क़िस्सा याद आ रहा है,” नज़ान्स्की ने सहृदयता और सरलता से बताना शुरू किया। “ आह, ख़याल तो मेरे दिमाग़ में कैसे छलाँगें लगा रहे हैं ! ...एक बार मैं र्याज़ान प्रांत में ‘ओका’ स्टेशन पर बैठकर स्टीमर का इंतज़ार कर रहा था। क़रीब चौबीस घंटों तक इंतज़ार करना पड़ा, - बसंत की बाढ़ आई हुई थी,-और मैंने – आप समझ सकते हैं – मानो रेस्टारेंट में घोसला बना लिया था। काउंटर के पीछे एक लड़की खड़ी थी, क़रीब अठारह साल की, - ऐसी बदसूरत, चेचकरू, मगर बड़ी फ़ुर्तीली, काली आँखों वाली, ग़ज़ब की मुस्कुराहट और सबसे बड़ी बात यह कि वह बड़ी अच्छी लड़की थी। और स्टेशन पर केवल हम तीन थे: वह, मैं और सफ़ेद से बालों वाला छोटा सा टेलिग्राफ़िस्ट। हाँ, उसका बाप भी तो था, जानते हो – ऐसा लाल, मोटा, भूरे, घाटी जैसे बालों वाला थोबड़ा, मानो एक बूढ़े, वहशी कुत्ते का थोबड़ा हो। मगर बाप तो मानो परदे के पीछे था। दो मिनिट के लिए बाहर आता और उबासियाँ लेता रहता, अपने कोट के अंदर पेट खुजाता रहता, आँख़ें खोल ही नहीं पाता। फिर वापस सोने के लिए चला जाता। मगर टेलिग्राफिस्ट बार-बार आ जाता। याद है मुझे, वह काउंटर पर कोहनियाँ टिकाकर ख़ामोश खड़ा हो जाता। वह भी चुप रहती, खिड़की से बाहर बाढ़ को देखने लगती। फिर अचानक वह नौजवान गाने लगता:
प्याSSर – क्या होता है ?
क्या होता है प्यार ?
अहसास एक ख़ुदाई,
जो लाए खून में ख़ुमार।
और वह फिर ख़ामोश हो जाता और पाँच मिनट बाद वह तान छेड़ देती:प्याSSर – क्या होता है ? क्या होता है प्यार ?” जानते हो ऐसी फूहड़ सी शब्द रचना। शायद उन दोनों ने इसे किसी ऑपेरा में या स्टेज पर सुना था। शायद जान बूझ कर पैदल शहर में गए थे। हाँ, थोड़ा सा गाते और फिर चुप हो जाते। और फिर वह, जैसे अनजाने में, लगातार खिड़की में देखती और मानो अपना हाथ काउंटर पर रख कर भूल जाती, और वह उस हाथ को अपने हाथों में ले लेता और उंगलियाँ सहलाने लगता। और दुबारा: “प्याSSर– क्या होता है।
बाहर आंगन में- बसंत, सैलाब, अलसाहट थी और वे चौबीसों घंटे यही करते रहते। उस समय इस “प्यार” ने मुझे पूरी तरह बोर कर दिया था, मगर अब, जानते हो, उसे याद करके भावविह्वल हो जाता हूँ। शायद मेरे आने के दो हफ़्ते पहले से वे इसी तरह प्यार कर रहे थे, और शायद मेरे जाने के एक महीने बाद तक करते रहे होंगे। मैं बस बाद में ही महसूस कर पाया कि कैसी है यह ख़ुशी, कैसी प्रकाश की किरण है उनकी अभावपूर्ण, संकुचित-संकुचित ज़िंदगी में, जो हमारी फूहड़ ज़िंदगी से कहीं ज़्यादा बंधनों में जकड़ी हुई है – ओह, कहाँ ! – सौ गुना हमसे ज़्यादा !।।।मगर, ख़ैर।।।ठहरिए, रमाशोव । मेरे ख़याल उलझ रहे हैं। यह टेलिग्राफ़िस्ट वाली बात मैं कहाँ से ले बैठा ?”
नज़ान्स्की दुबारा शेल्फ़ की ओर गया। मगर इस बार उसने पी नहीं, बल्कि रमाशोव की ओर पीठ फेर कर खड़ा हो गया, पीड़ा से उसने अपना माथा पोंछा और दाहिने हाथ की उंगलियों से कनपटियों को ज़ोर से भींच लिया। इस हावभाव में कुछ दयनीय सा, हतबल सा, लाचार सा था।
“आप औरत के प्यार के बारे में – अंतहीनता के बारे में, रहस्य के बारे में, आनंद के बारे में बात कर रहे थे,” रमाशोव ने याद दिलाया।
“हाँ, प्यार !” नज़ान्स्की प्रसन्नता से चहका। उसने जल्दी से जाम पी लिया, जलती हुई आँखों से मुड़ कर शेल्फ से दूर हटा और शर्ट की आस्तीन से उसने अपने होंठ पोंछे। “प्यार ! कौन समझ पाया है इसे ? इसे विषय बनाया गया गंदे, ग़लीज़ ऑपेरा का, अश्लील तस्वीरों का, ओछे चुटकलों का, भद्दी-भद्दी कविताओं का। यह किया है हमने, हम अफसरों ने। कल मेरे पास दीत्स आया था। वह इसी जगह पर बैठा था जहाँ अभी तुम बैठे हो। वह अपने सुनहरे चश्मे से खेलता रहा और औरतों के बारे में बातें करता रहा। रमाशोव , मेरे प्यारे, अगर जानवरों में, मिसाल के तौर पर कुत्तों में, आदमी की भाषा समझने की योग्यता होती और अगर उनमें से कोई एक कल दीत्स की बातें सुनता, तो ख़ुदा क़सम, शरम के मारे कमरे से भाग जाता। आप जानते हैं – दीत्स अच्छा आदमी है, और, वाक़ई सभी अच्छे हैं, रमाशोव , बुरे आदमी हैं ही नहीं। मगर वह औरतों के बारे में किसी और तरह से बात करने से शर्माता है, इस डर से शर्माता है कि एक सिरफिरे, चरित्रहीन, विजेता के रूप में जो प्रसिद्धी उसे प्राप्त है वह खो न जाए। ये एक आम क़िस्म की धोखाधड़ी है, एक कृत्रिम मर्दानी बड़ाई, औरतों के प्रति एक शेख़ीभरी घृणा है। और यह सब इसलिए क्योंकि प्यार में पड़े हुए अधिकांश मर्दों के लिए औरत को हासिल कर लेने में, समझ रहे हो न, पूरी तरह उस पर क़ाबू पाने में निहित है – जानवरों जैसी कोई उजड्ड, कोई अहं जैसी चीज़, सिर्फ़ अपने लिए, एक छुपी हुई निकृष्ट सी चीज़, उलझन भरी और शर्मनाक – छि: - मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता। और इसीलिए तो इस क़ाबू पाने के बाद आता है ठंडापन, तिरस्कार, दुश्मनी का भाव। इसीलिए तो लोगों ने प्यार करने के लिए रात ही निश्चित की है, उसी तरह जैसे चोरी और हत्या के लिए की है ... यहाँ, मेरे प्यारे प्रकृति ने ही मानो लोगों के लिए जाल बिछाया है।
“यह सच है,” रमाशोव ने दुखी होते हुए हौले से सहमति जताई।
“नहीं, झूठ है !” नज़ान्स्की ज़ोर से चिल्लाया। “ मैं तुम से कहता हूँ कि झूठ है। प्रकृति ने यहाँ भी, अन्य बातों की तरह, बड़ी अक्लमन्दी से काम लिया है। यही तो बात है कि जहाँ लेफ्टिनेंट दीत्स को प्यार के बाद घृणा का और संतृप्ति का एहसास होता है, वहीं दान्ते के लिए प्यार एक आकर्षण है, सम्मोहन है, बसंत है ! नहीं, नहीं, सोचो मत: मैं प्यार के बारे में सीधे सीधे, शारीरिक दृष्टि से बात कर रहा हूँ। मगर वह – गिने चुने क़िस्मत वालों को ही हासिल होता है। एक और मिसाल पेश करता हूँ: सभी लोगों को संगीत की पहचान होती है, मगर लाखों लोगों में वह यूँ होती है, जैसे कि स्टॉक मछली में, या जैसे स्टाफ़-कैप्टन वासिलचेन्को में, और इन लाखों लोगों में से एक होता है - बेथोवेन। यही बात और जगह भी है: कविता में, कला में, अक्लमन्दी में ...और प्यार की, मैं तुम्हें बताता हूँ, अपनी ऊँचाइयाँ होती हैं, जो लाखों लोगों में से किसी एकाध को ही प्राप्त होती हैं।
वह खिड़की के क़रीब गया, रमाशोव के निकट की दीवार के कोने से माथा टेकते हुए खड़ा हो गया और, ख़यालों में डूबकर बसंती रात के गर्माहट भरे अंधेरे की ओर देखते हुए गहरी, कंपकंपाती, दिल को छूती हुई आवाज़ में कहने लगा:
“ ओह, हम क्यों नहीं कर पाते तारीफ़ उसके सूक्ष्म, अदृश्य से आकर्षणों की; हम - फूहड़, सुस्त, अदूरदृष्टि वाले। क्या तुम समझ सकते हो कि एक अविभाजित, आशाहीन प्यार में कितना रंगबिरंगा सुख और कितनी सम्मोहक पीड़ा है ? कुछ साल पहले मुझ पर एक ही धुन सवार थी: एक ऐसी औरत से प्यार करना जो अप्राप्य हो, ख़ास हो, ऐसी जिसके साथ मेरा कभी कोई मुक़ाबला ही न हो। उससे प्यार करना और पूरी ज़िन्दगी, तमाम ख़यालात उसकी नज़र कर देना। कोई फ़रक नहीं पड़ता: उसका अर्दली बन जाने में, उसका दास बन जाने में, कोचवान बन जाने में – वेष बदल लेता, सभी तरह की चालाकियाँ करता, सिर्फ़ साल में एक बार, संयोगवश, उसे देखने की तमन्ना में, सीढ़ियों से गुज़रते उसके पद चिह्नों को चूमने की हसरत से,–ओह, कैसी दीवानगी भरी ख़ुशी है !- ज़िन्दगी में एक बार उसकी पोषाक को छू लेने की ख़्वाहिश से।”
“और पागल हो जाता,” निराशा से रमाशोव ने कहा।
“आह, मेरे प्यारे, क्या एक ही बात नहीं है !” नज़ान्स्की ने उत्तेजना से प्रतिवाद किया और फिर से निराशा से कमरे में दौड़ने लगा। “हो सकता है, -क्या मालूम ?- कि तुम कभी इस परी कथाओं वाले सुखमय जीवन में प्रवेश कर लो। ठीक है: तुम इस आश्चर्यजनक, असंभव प्यार से पागल हो जाते हो, और लेफ्टिनेन्ट दीत्स भी पागल हो जाता है बढ़ते हुए लकवे से और ऐसी ही अन्य किन्हीं बीमारियों से। इनमें बेहतर क्या है ? सिर्फ इतना सोचो, कितना सुख है-पूरी रात सड़क के दूसरे किनारे पर, छाया में खड़े रहकर, प्रियतमा की खिड़की में देखते रहना। लो, अब उसमें उजाला हो गया है, परदे पर एक छाया चल फिर रही है। कहीं ये वही तो नहीं है ? वह क्या कर रही है ? क्या सोच रही है ? रोशनी बुझ गई। शांति से सो जाओ, ओ, मेरी ख़ुशी, सो जाओ, मेरी जान ! ...और दिन पूरा हो जाता है – यह जीत है ! दिनों तक, महीनों तक, सालों तक नए नए तरीक़े सोचते रहो, अपनाते रहो, ज़िद से डटे रहो, और लो, एक बहुत बड़ी, सिर चकराने वाली ख़ुशी तुम्हें मिल जाती है: तुम्हारे हाथ में उसका रुमाल आ जाता है, या चॉकलेट का फेंका हुआ रैपर, या फटा हुआ इश्तेहार। उसे तुम्हारे बारे में कुछ भी मालूम नहीं है, वह तुम्हारे बारे में कभी भी कुछ भी नहीं सुनेगी, उसकी आँखें तुम्हारे जिस्म पर फिसलती हैं, बगैर तुम्हें देखे, मगर तुम वहीं हो, बगल में ही, हमेशा उसकी पूजा करने वाले, उसके लिए – नहीं, उसके लिए क्यों – उसकी छोटी से छोटी सनक के लिए, उसके पति के लिए, प्रेमी के लिए, उसके प्यारे कुत्ते के लिए –निछावर करने को तैयार हो अपनी ज़िन्दगी, अपनी इज़्ज़त, और वह सब कुछ जो निछावर किया जा सकता है ! रमाशोव, ख़ूबसूरत और स्त्री प्रेमी पुरुष ऐसी ख़ुशी महसूस नहीं कर सकते।”
“ओह, कितना सच कहा है ! कितना अछा लगता है वह सब जो तुम बोलते हो !” उत्तेजित रमाशोव ने कहा। वह कब का खिड़की की सिल से उठ गया था और नज़ान्स्की की ही तरह लंबे, सँकरे कमरे में चक्कर लगा रहा था, हर घड़ी उससे टकराते हुए और रुकते हुए। “तुम्हारे दिमाग़ में कैसे ख़याल आते हैं ! मैं तुम्हें अपने बारे में बताता हूँ। मुझे प्यार हो गया था एक।।।औरत से। ये यहाँ की बात नहीं है, यहाँ की नहीं है ...मॉस्को की है ...मैं तब था ...कैडेट. मगर उसे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। और मुझे उसके नज़दीक बैठकर बड़ी अजीब सी ख़ुशी मिलती थी, और जब वह कोई कसीदाकारी किया करती तो हाथ में रेशम की डोर पकड़ कर हौले से अपनी ओर खींचना बड़ा प्यारा लगता। बस, इतना ही। वह इसे देखती नहीं थी, बिल्कुल नहीं देखती थी, और मेरा सिर ख़ुशी के मारे चकराने लगता।”
“हाँ, हाँ, मैं समझता हूँ,” नज़ान्स्की ने बड़े प्यार से प्रसन्नता पूर्वक सिर हिलाते हुए कहा। “मैं तुम्हें समझ रहा हूँ। ये, जैसे कोई कंटीला तार हो, जैसे बिजली का करंट हो ? है, ना ? कोई नाज़ुक सा, नफ़ासत भरा संवाद हो ? आह, मेरे प्यारे, ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है ! ...”
नज़ान्स्की ख़ामोश हो गया, अपने ही ख़यालों ने उसे झकझोर दिया था, और उसकी नीली आँखें आँसुओं के कारण झिलमिलाने लगीं। रमाशोव को भी एक अनजान, नर्माहटभरी दयनीयता और हल्के से भावोन्माद ने दबोच लिया। ये भावनाएँ ख़ुद अपने लिए भी थीं और नज़ान्स्की के लिए भी।
“ वासीली नीलिच, मुझे आप पर ताज्जुब होता है,” उसने नज़ान्स्की के दोनों हाथ अपने हाथों में कस कर पकड़ते हुए कहा। “आप-इतने होनहार, दूरदृष्टि वाले, जानकार व्यक्ति हैं, मगर...जानबूझकर अपने आप को ख़त्म किए जा रहे हैं। ओह, नहीं, नहीं, आप को ओछी नैतिकता का पाठ देने की हिम्मत मैं नहीं कर सकता ...मैं ख़ुद भी ... मगर, यदि आपको ज़िन्दगी में कोई ऐसी औरत मिली होती, जो आपको सही सही समझ पाती और आपके योग्य होती। मैं अक्सर इस बारे में सोचता हूँ ! ...”
नज़ान्स्की रुक गया और बड़ी देर तक खुली खिड़की से बाहर देखता रहा।
“औरत ...” ख़यालों में खोकर उसने कहा। “हाँ ! मैं तुम्हें बताऊँगा !” अचानक वह निर्णयात्मक ढं ग से चहका। “मैं ज़िन्वह प्यार के क़ाबिल थी, और वह उससे प्यार करता था, मगर वह प्यार के क़ाबिल नहीं था, और वह उससे प्यार नहीं करती थी। उसने मुझसे इसलिए नफ़रत की क्योंकि मैं पीता था ...मगर, मुझे मालूम नहीं, मैं शायद इसलिए पीता हूँ, क्योंकि वह मुझसे नफ़रत करने लगी थी। वह...यहाँ नहीं है ...यह सब बहुत पहले हुआ था। आप तो जानते हैं कि मैंने पहले तीन साल तक काम किया, फिर चार साल रिज़र्व में रहा, उसके बाद, तीन साल पहले मैं फिर से बटालियन में आ गया। हमारे बीच कोई रोमान्स-वोमान्स नहीं था। कोई दस-पन्द्रह मुलाक़ातें, पाँच-छह बार घनिष्ठता से बातें, बस। मगर क्या तुमने कभी भूतकाल की अदृश्य, गहरी पकड़ के बारे में सोचा है ? यही वह बात है, ये मासूम, छोटी-छोटी बातें ही मेरी ज़िन्दगी का ख़ज़ाना हैं। मैं अभी तक उससे प्यार करता हूँ। रुको, रमाशोव ।।।तुम इसके पात्र हो। मैं तुम्हें उसका इकलौता ख़त पढ़कर सुनाता हूँ – पहला और आख़िरी ख़त, जो उसने मुझे लिखा था।
वह सन्दूक के सामने पालथी मार कर बैठ गया और बेसब्री से उसमें रखे कुछ कागज़ उलट-पुलट करने लगा। साथ ही वह बोलता भी जा रहा था:
“ शायद, उसने अपने अलावा कभी भी किसी और से प्यार नहीं किया। वह, जैसे एक सैलाब है हुक़ूमतपसन्दी का, किसी दुष्टता का और घमंड का। साथ ही वो – इतनी प्यारी, इतनी नाज़ुक, इतनी भली है। जैसे उसमें दो व्यक्ति उपस्थित हों: एक – नीरस, अहंकारी दिमाग़ वाला, दूसरा – जिसका दिल बहुत नाज़ुक, बहुत प्यार करने वाला हो। यह रहा, रमाशोव , पढ़ो। ऊपर – बेकार की बातें हैं,” नज़ान्स्की ने ऊपर की कुछ पंक्तियाँ मोड़ दीं। “ये, यहाँ से। पढ़ो”
रमाशोव को ऐसा लगा कि मानो किसी चीज़ ने उसके सिर पर चोट की है, और उसकी आँखों के सामने पूरा कमरा लड़खड़ाने लगा। ख़त बड़े बड़े, पतले, घबराहटभरे अक्षरों में लिखा गया था, ऐसी लिखाई सिर्फ़ अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना की ही हो सकती थी – अपनी ही तरह की, झुके हुए अक्षरों वाली, शानदार। रमाशोव, जिसे उससे अक्सर लंच के या ताश खेलने के निमंत्रण की चिटें मिला करती थीं, इस लिखाई को हज़ारों ख़तों के बीच भी पहचान सकता था।
“ ... बड़ा दुख और बोझिलपन महसूस हो रहा है यह कहने में,” उसने नज़ान्स्की के हाथ के नीचे से पढ़ा। “ मगर, हमारी जान पहचान के इस दुखद अन्त के ज़िम्मेदार आप ख़ुद ही हैं। मुझे ज़िन्दगी में अगर किसी चीज़ से शर्म आती है तो वह है झूठ, वह झूठ जो कायरता और निर्बलता के कारण पैदा होता है, और इसीलिए मैं आपसे झूठ नहीं बोलूँगी। मैंने आपसे प्यार किया था, और अभी भी करती हूँ, और जानती हूँ कि इस अहसास को जल्दी और आसानी से न भुला पाऊँगी। मगर आख़िर में मैं उस पर क़ाबू कर ही लूँगी। अगर मैं कुछ और करती तो क्या होता ? यह सच है कि मैं एक इच्छाहीन, गर्त में गिरे, मानसिक रूप से बिखरते हुए व्यक्ति की पथ प्रदर्शक, परिचारिका बनने की सामर्थ्य और त्याग की भावना जुटा सकती थी, मगर बेचारगी की, लगातार दया दिखाने की भावना से नफ़आप मुझमें जगाएँ। मैं नहीं चाहती कि आप सहानुभूति की और कुत्ते जैसी वफ़ादारी की भीख पर पलते रहें। और, कुछ और तो आप हो नहीं सकते, अपनी बुद्धि और ख़ूबसूरत आत्मा के बावजूद। पूरी ईमानदारी और सच्चाई से बताइए, नहीं न हो सकते ? आह, प्रिय वासिली नीलिच, काश, आप हो सकते ! काश ! मेरी सारी आशाएँ, मेरा पूरा दिल आप की ओर खिंचा जाता है, मैं आपसे प्यार करती हूँ। मगर आपने ही मेरी तमन्ना नहीं की। आख़िर प्रिय व्यक्ति के लिए सारी दुनिया का रुख मोड़ा जा सकता है, और मैंने तो आप से बस छोटी सी बात की माँग की थी। क्या आप यह नहीं कर सकते ?
अलबिदा। अपने ख़यालों में आप का माथा चूमती हूँ ...जैसे किसी मुर्दे को चूमा जाता है, क्योंकि मेरे लिए आप मर चुके हैं। कृपया इस ख़त को नष्ट कर दें। इसलिए नहीं कि मुझे किसी बात का डर है, बल्कि इसलिए, कि समय के साथ साथ वह दुख का और पीड़ादायक यादों का स्त्रोत बन जाएगा। फिर से दुहराती हूँ ....”
“आगे तुम्हारे लिए कोई दिलचस्प बात नहीं है,” नज़ान्स्की ने रमाशोव के हाथ से ख़त खींचते हुए कहा, “यह मेरे लिए उसका इकलौता ख़त था।”
“उसके बाद क्या हुआ ?” बड़ी मुश्किल से रमाशोव ने पूछा।
“उसके बाद ? उसके बाद हम कभी नहीं मिले। वह ....वह कहीं चली गई, और, शायद उसने शादी कर ली ...एक इंजीनियर से। यह कोई ख़ास बात नहीं है।”
“और क्या आप कभी अलेक्सान्द्रा पेत्रोव्ना के घर नहीं जाते हैं ?”
रमाशोव ने ये बात बिल्कुल फुसफुसाकर कही थी, मगर उनसे दोनों अफ़सर काँप गए और बड़ी देर तक एक दूसरे से आँखें न हटा पाए। इन कुछ क्षणों में उन दोनों के बीच मानवीय चालाकी के, बनावट के, अभेद्यता के सारे बाँध टूट गए, और वे आज़ादी से एक दूसरे की आत्माएँ पढ़ने लगे। उन्हें एकदम सैकड़ों चीज़ें समझ में आ गईं, जो उन्होंने अपने भीतर छुपा कर रखी थीं, और उनकी आज की बातचीत ने अचानक एक विशेष, गहरा, शोकपूर्ण अर्थ धारण कर लिया।
“क्या ? और तुम – भी ?” आँखों में एक बदहवास डर लिए आख़िर नज़ान्स्की ने हौले से कहा।
मगर वह फौरन ही संभल गया और एक ओढ़ी हुई मुस्कुराहट से चहका:
“फु:, कैसी ग़लतफ़हमी हो गई ! हम अपने विषय से बिल्कुल भटक गए। वो ख़त जो मैंने तुम्हें दिखाया, सौ साल पहले लिखा गया था, और यह औरत अब कहीं दूर, शायद कॉकेशस पार रहती है।।।तो, हम कहाँ रुके थे ?”
“मुझे घर जाना है, वासिली नीलिच। बहुत देर हो गई है,” रमाशोव ने उठते हुए कहा।
नज़ान्स्की ने उसे नहीं रोका। उन्होंने बगैर किसी ठंडेपन से, बगैर रुखाई के, मगर जैसे एक दूसरे से शर्माते हुए बिदा ली। रमाशोव को अब और भी ज़्यादा यक़ीन हो गया था कि ख़त शूरच्का ने ही लिखा था। घर लौटते हुए वह इसी ख़त के बारे में सोचता रहा और यह न समझ पाया कि उसने उसके अपने दिल में कैसी भावनाएँ जगा दी हैं। इनमें नज़ान्स्की के प्रति प्रतिद्वन्द्विता की ईर्ष्या थी – ईर्ष्या उसके भूतकाल से, और एक दुष्ट सहानुभूति थी निकोलाएव के प्रति, मगर साथ ही कोई एक नई उम्मीद भी करवट ले रही थी – अनजान सी, धुंधली सी, मगर मीठी मीठी, आकर्षक सी। मानो इस ख़त ने उसके हाथ में भविष्य की ओर जाती हुई एक रहस्यमय, अदृष्य सी डोर थमा दी हो।
हवा थम गई थी।
रात गहरी ख़ामोशी से सराबोर थी, और उसका अंधेरा नर्म गर्माहट वाली मख़मल जैसा प्रतीत हो रहा था। मगर इस जागती हुई रात में, अनदेखे पेड़ों की ख़ामोशी में, धरती की ख़ुशबू में रहस्यमय सृजनात्मक जीवन का अनुभव हो रहा था। रमाशोव रास्ते को न देखते हुए चला जा रहा था, और उसे हर पल ऐसा लग रहा था, कि बस, अभी कोई शक्तिशाली, ताक़तवर मगर प्यारे से आदमी की गर्म गर्म साँसें वह अपने चेहरे पर महसूस करेगा। उसकी आत्मा में था ईर्ष्याभरा दुख - अपने अतीत के, बचपन के, सुनहरे, लौट कर न आने वाले बसन्तों के प्रति, थी कड़वाहट से मुक्त ईर्ष्या - अपने साफ़-सुथरे, नाज़ुक अतीत के प्रति...
घर पंहुचने पर उसे रईसा अलेक्सान्द्रव्ना पीटर्सन का दूसरा ख़त मिला। उसने बकवासपूर्ण, आडंबरयुक्त शब्दों में उसकी कपटपूर्ण धोखेबाज़ी के बारे में लिखा था, यह कि वह सब कुछ समझ रही है, और प्रतिशोध की भयानकता के बारे में भी लिखा था, जो एक नारी का टूटा हुआ दिल ले सकता है।
“ मुझे मालूम है कि मुझे अब क्या करना है !” ख़त में लिखा था। “बस, अगर मैं तुम्हारे इस नीच व्यवहार के कारण तपेदिक से न मर जाऊँ, तो, यक़ीन मानो कि मैं तुमसे भयानक बदला लूँगी। आप शायद यह समझ रहे हैं कि इस बारे में कोई नहीं जानता कि आप हर शाम कहाँ जाते हैं ? अंधे हो ! दीवारों के भी कान होते हैं। मैं आपके हर क़दम के बारे में जानती हूँ। मगर, ख़ैर, अपनी शक्ल और मीठी मीठी बातों से तुम्हें वहाँ कुछ भी हासिल नहीं होने वाला, सिवाय इसके कि एन। आपको कुत्ते के पिल्ले की तरह उठाकर दरवाज़े से बाहर फेंक देगी। और, मैं सलाह देती हूँ कि, मेरे साथ ज़रा संभलकर ही रहिएगा। मैं उन औरतों में से नहीं हूँ, जो अपमान को माफ़ कर देती हैं:
खंजर चलाना मुझे भी आता है, कफ़्काज़ के पास जन्मी हूं मैं !
पहले आपकी, अब किसी की नहीं रईसा। अगले शनिवार को मीटिंग में ज़रूर आइए। हमें बात करनी चाहिए। मैं आपके लिए तीसरी काद्रिल बचा कर रखूंगी, मगर, अब उसका कोई मतलब नहीं है।
यह फूहड़ और बकवास भरा ख़त मानो रमाशोव पर बेवकूफ़ीभरी, नीचताभरी, कस्बाई कीचड़ जैसी और ज़हरीली अफ़वाहों की फुफकार छोड़ रहा था। उसे ऐसा लगा मानो वह सिर से पैर तक भारी, न छूटने वाले कीचड़ में नहा गया हो, जिसे एक अप्रिय औरत के साथ हुए इस संबंध ने डाला था- वह संबंध जो पिछले छह महीनों से घिसट रहा था। हताश होकर, मानो आज के दिन की घटनाओं के बोझ तले दब गया हो, वह बिस्तर में लेट गया, और, सोते हुए, शाम को नज़ान्स्की के मुँह से सुने हुए वाक्य को याद करके अपने बारे में सोचने लगा, उसके विचार इतने धुँधले थे मानो फ़ौजी कोट हो।
वह जल्दी ही सो गया, नींद तनाव भरी थी। और, जैसा कि गंभीर मानसिक तनाव के कारण उसके साथ पिछले कुछ समय से हो रहा था, उसने अपने आप को बालक के रूप में देखा।न तो था कीचद्अ, न दुख, न जीवन की एकसारता, शरीर में फुर्ती महसूस हो रही थी, आत्मा थी साफ़, प्रकाशमान और सहज आनंद से ओतप्रोत। पूरी दुनिया साफ़-सुथरी और प्रकाशमान थी, और उसके बीच में थे मॉस्को के प्यारे-प्यारे, जाने-पहचाने रास्ते , जो इतनी प्यारी आभा से चमक रहे थे, जो केवल सपने मेंं ही दिखाई देती है। मगर इस चमकीली दुनिया की कगार पर, दूर कहीं क्षितिज में, एक काला, दुष्ट दाग रह गया था - वहाँ दुबका था एक धुँधला, अलसाया कस्बा, भारी और उकताहटभरी सेना के अस्तित्व वाला, सैनिक स्कूलों वाला, मीटिंगों में हो रहे नशे में धुत, तिरस्कार भरे और बोझिल प्रेम संबंधों तले दबा, पीड़ा और अकेलेपन को अपने आप में समेटे। पूरी ज़िंदगी ख़ुशी से दमक रही थी, खिलखिला रही थी, मगर वह काला दुष्ट धब्बा, रहस्यमय तरीके से, काली छाया की भाँति, रमाशोव को दबोचने के लिए दुबका खड़ा था और अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। और अकेले ही छोटा रमाशोव - साफ़-सुथरा, बेफिक्र, निर्दोष - अपने बड़े प्रतिरूप के लिए ज़ार-ज़ार रो रहा था, जो लुप्त हो रहा था। मानो इस दुष्ट अँधेरे में समा रहा था।
बीच रात में उसकी नींद खुल गई और उसने महसूस किया कि उसका तकिया आँसुओं से गीला हो गया है। वह उन्हें फ़ौरन रोक नहीं पाया और वे उसके गालों पर गर्म, गीली, तेज़ धाराओं के रूप में बहते रहे।