प्यार
प्यार
पति को आफिस के लिये विदा करके,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढ़ने को अखबार उठाया, कि डोर बेल बज उठी।
"इस वक्त कौन हो सकता है!” सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानो साँप सूँघ गया। पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी। सामने प्रतीक खड़ा था।
"यहाँ कैसे?” खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होंठों पर आकर ठहरे थे।
"बनारस से हैदराबाद तुमको ढूँढते हुए बमुश्किल पहुँचा हूँ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था। सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था।
"आओ अंदर, बैठो, मैं पानी लाती हूँ।"
"नहीं, मुझे पानी नहीं चाहिए, मैं तुम्हें लेने आया हूँ, चलो मेरे साथ।"
"मैं कहाँ, मैं अब नहीं चल सकती हूँ कहीं भी।"
"क्यों, तुम तो मुझसे प्यार करती हो ना!”
"प्यार! शायद दोस्ती के लिहाज़ से करती हूँ।"
"तुम्हारी शादी जबरदस्ती हुई है। हमें अलग किया गया है। तुम सिर्फ मुझे प्यार करती हो।" "नहीं, तुम गलत सोच रहे हो प्रतीक। मै उस वक्त भी तुमसे अधिक अपने मम्मी - पापा से प्यार करती थी, इसलिए तो उनके प्यार के आगे तुम्हारे प्यार का वजूद कमजोर पड़ गया।" "लेकिन जिस इंसान से तुम्हारी शादी हुई उससे प्यार ..."
"बस, अब आगे कुछ ना कहना, वो मेरे पति है और मैं सबसे अधिक उन्हीं से प्यार करती हूँ। उनसे मेरा जन्मों का नाता है।"
"और मैं, मैं कहाँ हूँ?"
"तुम दोस्त हो, तुम परिकथाओं के राजकुमार रहे हो मेरे लिए, जो महज कथाओं तक ही सिमटे रहते हैं हकीकत से कहीं कोसों दूर।"