आखेट
आखेट
पिता कम बोलते, सोचते ज्यादा। पिता मिट्टी के खिलौने बनाते और उन्हें गाँव से नदी पार कर उस कस्बे में बेचने जाते। उनके पास अपनी एक छोटी सी नाव थी जिससे वो नदी पार करते। उसी में वो अपनी खिलौनों की टोकरी रखकर ले जाते। दिन भर में जितने खिलौने बिक जाते उन्हें बेच वो शाम तक गांव वापिस लौट आते। माँ रोजाना एक छोटी सी सूती कपडे की थैली में आटे की बनी गोलियाँ पिता के साथ रख देतीं जो वो खाली वक़्त में बैठी बनाया करती थीं। पिता नाव खेते हुए थैली की सारी गोलियाँ धीरे धीरे नदी में उलटते जाते। मछलियों का ज़लज़ला सा आसपास आ जाता ...छपाक छपाक ....और वो तटस्थ व संतुष्ट भाव से मछलियों को चारा खिलाया करते। ये नित्य कर्म था। खिलौने बेचने दूसरे कस्बे आने जाने जितना ही ज़रूरी और बेनागा। पिता को मछलियाँ बड़ी निरीह और निश्छलप्राणी लगतीं। कहते ये दुनिया के सब जीवों में सबसे ईमानदार और सीधा जीव होता है। तभी तो जाल में फंस जाती हैं! इसके इसी भोलेपन ने दुनिया की एक तिहाई आबादी के लिए रोजगार और भोजन मुहैया करवा रखा है। उन्हें मछलियों से हमदर्दी थी।
मेरी माँ बिना पढ़ी लिखी, मेहनती, घर की परवाह करने वाली और थोड़ी जिद्दी औरत थी। घर कच्चे छोटे और पुराने थे। हमारा घर विभिन्न जीवों-जंतुओं की पनाहगाह थी यानी हमारा परिवार कीट पतंगों, सड़कछाप पशुओं और पक्षियों को मिलाकर एक बड़ा संयुक्त परिवार था। हमारी खुशियाँ, सुख सुविधाओं और कामनाओं के अधीन नहीं थीं। पिता काम के अलावा मौन और मौन के बावजूद आँखों में सपने भरे रहते। उनके मौन में एक अजीब सी राहत भरा प्रेम था जिसकी गर्म हथेलियों के नीचे मैं और माँ एक सुरक्षा और संतुष्टि भरा ठौर पाते। मैं पिता के पास बैठी उन्हें खिलौने बनाते देखा करती। मिट्टी गलाने, उसमें खडिया गोंद और गेरू मिलाने, गूंथने और उसे सूखी सी हथेलियों के बीच देर तक नर्म करने के बाद उससे चिड़िया, पेड़, मछली, गुडिया, फूल आदि में ढालने, सूखने और उन पर रुई को पतली डंडी में लपेट रंगने तक.....भगवान की मूर्तियां, घर आदि जैसे कठिन खिलौने बनाने के लिए उनके पास निश्चित सांचे थे जिनमे गीली मिट्टी भर देने से सूखने पर वो उसी शेप के हो जाते ऐसे सांचे वाले खिलौने वो कई कई एक जैसे बनाते।
कभी कभी गांव में मौसम अचानक बदल जाता जिसका बदलना नदी से शुरू होता मानों पहले नदी में स्नान करता हो और फिर वहां से घरों पेड़ों छतों मुंडेरों पशु-पक्षियों तक फ़ैल जाता हो। हवाओं की लपटें इतनी विकट उठतीं कि लगता जैसे खपरैल की छत, बड़े दरख्त, बखरी, आंगन, मुर्गियाँ बकरियां जैसे पालतू पशु-पक्षी सब बटोर कर ले जायेगी और नदी में डुबा देंगी। माँ खिड़की के सींखचे पकड़े नदी की ओर एकटक देखती रहतीं बहराई आँखों से जब पिता ना लौटे होते, लेकिन पिता कहीं ना कहीं खुद को महफूज़ रख ही लिया करते। उनके सही सलामत लौटने पर ही माँ अपनी देर से बचाई अधूरी साँसें पूरी लेतीं लेकिन एक दिन साफ़ चमकीले दिन और उसके बाद नर्म धुंधलाती शाम तक भी पिता नहीं लौटे, वो रात भी पिता के बिना बीत गई ...और फिर बीतने का एक क्रम बन गया। उनके ना लौटने ने हम सबकी इस आशंका पर पक्की मुहर लगा दी कि पिता कहीं चले गए थे पता नहीं कहाँ? क्यूँ और कैसे? उन्हें क्यूं नहीं आया लौटना रोज की तरह, मैं सोचती रहती। पसीने से लथपथ कंधे पर टोकनी रखे नदी तक पहुँचने के वो रास्ते, कच्ची पगडंडियाँ, जो उन्हें रोज घर तक लौटा भी लाती थी, उन्होंने अपनी दिशाएँ बदल लीं या पिता के स्वयं के पद-चिन्हों ने अपने निशान? मैं रोज उनके "आने’’ को आँखों में भरे कुछ दूर रास्तों तक जाती और उनकी याद की सड़कों को उम्मीद से सींच कर वापस लौट आती। मेरे पैर तब उन बड़े रास्तों के लिए काफी छोटे थे, जब मैंने पिता को खोया किसी ने कहा "आंधी तूफ़ान भी नहीं था, नदी जो डुबो देती, उन्हें किसी ने डूबते हुए देखा भी नहीं, मन में कोई तूफ़ान लिए भी नहीं गए थे वो! इसलिए हौसला रखो, और माँ ने अपनी उम्मीद हौसलों के खूंटे पर टांग दी पर पिता नहीं लौटे।
किसी ने कहा कि पिता किसी निर्मोह साधु की बातों में आकर घर बार छोड़ जंगल चले गए होंगे तो निरीह माँ "देवा’’ करके ज़ोर से चीख पड़ीं शायद यही उनके वश में रह गया था और, मैं उन्हें चीखते हुए देखती रही जो मेरे हिस्से के वश में शेष बचा था। माँ के विकृत चेहरे को देखती रही थी देर तक, सोच रही थी काश माँ की इस भीषण चीख का कोई सिरा पिता के ह्रदय को छू ले और वे उस छोर को थामे लौट आयें ....पर पिता नहीं लौटे।
माँ जवान, समझदार और सुन्दर थीं कैसे गुजारेंगी वो दैत्याकार ज़िंदगी ..पहाड़ से दुःख ...। पंचों ने फैसला किया कि उनकी शादी करवा दी जाये, माँ न सधवा थीं ना विधवा। पिता के विकल्प से मैं अनभिज्ञ थी जैसे माँ के विकल्प से, लिहाज़ा मुझे माँ की शादी किसी त्यौहार या आयोजन से अधिक कुछ नहीं लगी माँ ब्याह दी गईं। पिता के ना होने की विवशता को मुट्ठी और निचुड़ी आँखों में भींचे।
पिता बदल गए, घर वही था पिता के आने जाने, सोने, खाने, पीने, और माँ के पिटने तक के समय और तरीके भी बदल गए अपने पिता को मैंने माँ को मारते हुए जीवन में केवल एक बार देखा था जब वो किसी वैवाहिक समारोह से नशे में धुत्त होकर लौटे थे, वे नशे के आदी नहीं थे माँ बीमार थी। देखकर हतप्रभ रह गई थी जब बहुत कम बोलने और हमारी परवाह करने वाले पिता ने मेरे सामने माँ को एक जोरदार चांटा मारा था, जो सीधे पिता के प्रति मेरे विश्वास में धंस गया था ...पता नहीं किस बात पर। दुबली पतली माँ लहराकर दीवार से टकराकर गिर पडी थीं। मैं मारे डर के दूसरे कमरे के कोने में छिप गई थी और रात भर वहीं नीचे पड़ी सुबकती रही। सुबह माँ के गोरे और भरे हुए शरीर पर खरोंचों की ताज़ी लाल नीली लकीरें थीं जिनमें से खून की छलछलाहट झाँक रही थी। माँ की आंखें लाल और सूजी हुई थीं लेकिन उसके बाद मैंने कभी पिता को ऐसा करते नहीं देखा, बल्कि उस घटना के बाद वो अपराधबोध से आँखें झुकाए से कुछ ज्यादा ही माँ से सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने लगे थे।
मेरे नए पिता शराब के आदी थे और उनकी पहली पत्नी का देहांत हो चुका था। जब से उनसे माँ की शादी हुई थी माँ का पिटना रोजमर्रा के ज़रूरी कामों में शामिल हो गया था। मैं और माँ इसके अभ्यस्त हो गए थे। माँ बिना बात पिटने की और मैं उन्हें बिना बात पिटते हुए देखने की। ज़ख्म सूखने के पहले दूसरा हरिया जाता उनकी देह में और मेरे दिल में हम दोनों के वजूद माँ की शादी के कुछ वक़्त बाद ही हरे भरे हो गए थे। मेरे नए पिता सब्जी बेचने के अलावा ज्यादातर अपने घर रहते या आवारागर्दी करते इधर-उधर घूमते रहते और माँ गांव वालों के यहाँ बीनन- छानन करने बड़ी पापड बनाने, छोटी मछली सुखाकर डिब्बों में भरने और इसी तरह के कुछ छोटे-मोटे काम करने जाती। वो कभी कभी मुझे भी साथ ले जाती बाकी दिन, मैं खिड़की के सींखचों को पकडे नदी की ओर ताका करती अपने पिता के आने का सतत इंतज़ार करती हूँ उनका ना जाने क्यूँ मुझे यकीन था कि एक दिन पिता ज़रूर लौटेंगे।
फिर माँ रात में गायब होने लगीं। वो मुझे घर में ताले में बंद करके कहीं चली जातीं और अलस्सुबह बिलकुल निढाल हुई लौटतीं। आकर अपने पल्लू के छोर में से निकालकर आले में पैसे रख देतीं जिसे नए पिता सोकर उठकर गिनते और अपनी जेब में रख बाहर निकल जाते। जिस दिन आले में रखे पैसे पिता को नहीं मिलते उस दिन वो दारू के लिए तडप जाते और उस दिन माँ को दिन भर में कई कई बार पिटना होता। माँ का सुन्दर चेहरा पीला और उदास रहने लगा। मैं रात में बाहर से बंद घर के कमरे की खिड़की पर बैठी नदी देखा करती जिसमे अपने खोये पिता के लौटने के दृश्य सबसे गहरे रंगों के होते। एक दिन माँ रात में गईं रोज की तरह पर सुबह समय पर नहीं लौटीं मुझे अब किसी के घर से जाने के बाद उनके ना लौटने का डर हमेशा बना रहता और माँ सचमुच नहीं लौटीं उनकी लाश नदी में तैरती मिली।
लोगों ने दुखी होकर कहा “वो भी चली गई अपने पति के पास” पर उनके पति ही तो मेरे पिता थे? उनके पास कैसे जा सकती हैं? क्या मेरे पिता जानते थे कि वो कहाँ जा रहे हैं? क्या माँ जानती थीं उनका पता जो उनके पास चली गईं? यदि जानती थीं तो पहले ही क्यूँ नहीं चली गईं अपने जीते जी? मेरे नए पिता वापस अपने पुराने घर चले गए थे, मैं उनसे नफरत करती थी उनसे, नफरत करना मेरे अपने पिता की स्मृति और प्यार के बेहद करीब था।
मैं जैसे जैसे बड़ी होती जा रही थी पिता की ईमानदारी और भोलापन इस दुनियां से बहुत पीछे छूटता जा रहा था पर खुद के भीतर मैंने पिता के उन गुणों को मजबूती से जकड रखा था।
मैंने एक नाव बनवाई अपने लिए, मैं नदी में दूर तक जाती पिता को ढूँढ़ने, नाव के आसपास झिमट आती मछलियों से, मैं पिता का पता पूछती मुझे याद आया एक बार मेरे जन्मदिन पर हम तीनों नदी के उस पार बने मंदिर तक गए थे.....मैं पिता और माँ। लौटते वक़्त मछलियों को हमने आटे की गोलियाँ खिलाई थीं, मछलियों में एक तूफ़ान सा आ गया था। खूब सारी रंग बिरंगी मछलियाँ नाव के आसपास उछल कूद मचाने लगी। मुझे वो दृश्यफ़ बेहद अचंभित करने वाला और रोमांचक लगा। मैं ज़ोर ज़ोर से तालियाँ पीटने लगी। माँ ने पल्लू के दोनों छोर उँगलियों से पकड उन्हें प्रणाम किया और कहा “जल की देवी होती हैं मछलियाँ” लेकिन कुछ दिनों बाद एक और बार जब हम नाव से नदी पार कर रहे थे और पिता ने गोलियाँ डालीं तो एक भी मछली नहीं आई। पिता उदास हो गए कुछ नहीं बोले, मैं पिताजी के उदास होने और नहीं बोलने को देर तक देखती रही फिर मैं भी कुछ नहीं बोली। उसी के दूसरे दिन बेहद बरसात हुई थी और नदी में बाढ़ आ गई थी। पड़ोस में रहने वाला कुट्टू मछुआरा उसकी चपेट में आकर बह गया था।
बाद में पिता ने बताया था कि नदी में एक दैवीय शक्ति है और वो हमें हमारे प्रश्नों का ज़वाब संकेतों से देती हैं मछलियाँ उसी की भाषा हैं।
अब मेरी नाव ज़र्ज़र हो रही थी उसके कील कांटे ढीले पड़ने लगे थे। नदी में कुछ दूर चलने पर वो हिचकोले खाने लगती और, मैं अविलम्ब उसे वापस किनारे की ओर मोड़ लेती। मेरी आँखों पर मोटे ग्लास का चश्मा चढ़ गया था। बालों पर सफेदी आने लगी थी पर पिता आँखों में अब भी जवान ही थे जैसा वो हमें छोड़कर गए थे। मैं प्रतिदिन छड़ी टेकती हुई नदी तक जाती और वहां रेत पर बिछी लगभग अपनी ही उम्र की ज़र्ज़र लकड़ी की बेंच पर पर बैठी दूर दूर तक नाव खेते मछली मारते मछुआरों को देखती रहती। वो मछुआरे मेरे पिता की उम्र के नौजवान ही होते। कभी कभी मैं ज़ोर से आवाज़ देती “पिताजी ...कहाँ हैं आप” पर मेरी चीख का दायरा बहुत छोटा और कमज़ोर हो गया था, मैं अपनी आत्मा में चीखती।
उस दिन ...शाम रोज की तरह दिन से विदा ले रही थी। सूरज अपनी लाल पीली छटा से नदी की सतह पर तैरने लगा था जो कुछ देर बाद डूब जाता रोज की तरह। पक्षी अपने नन्हें नन्हें पंखों की पतवार से आकाश की नदी पार कर रहे थे। सफ़ेद बगुलों की बनती मिटती कतारें आकाश पर ढंकी सिंदूरी शाम को और विरक्त बना रही थीं।
मैं उस शफ्फाक और चिकनी नदी के किनारे एक बेंच पर बैठी एकटक उसमें तैरते जल पांखी के झक्क सफ़ेद पंखों को गुलाबी होते और नदी की लहरों को दूर तक फैलते और फिर सिमटते हुए देख रही थी। शाम यहाँ हौले हौले ऐसे ही रंगीन होती थी। मैंने देखा दूर से एक छोटी सी नाव चली आ रही है। नाव अपनी काली परछाईं पर सिंदूरी रंग की रोशनी में हिचकोले खाती बढ़ रही थी। मैं उसे आंखें गड़ाये देखने लगी। वैसे ये कोई नई बात नहीं थी। ये वक़्त कई मछेरों का अपना जाल समेट वापस लौटने का भी होता, लेकिन ना जाने क्यूं जैसे जैसे नाव निकट आ रही थी मेरे दिल की धडकन बढ़ती जा रही थी। जब वो कुछ और पास आई तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना ना रहा ...वो मेरे पिता थे। जवान, शांत और संतुष्ट पिता। करुणा, ईमानदारी और भोलेपन के चमकीले इंद्रधनुषी रंग चेहरे पर बिखरे हुए थे, लेकिन ज्यूँ ज्यूँ नाव निकट आ रही थी सारे रंग जैसे लाल रंग में डूबते जा रहे थे। शायद उनकी आँखों में जाती शाम का सिंदूरी रंग भर गया था। क्यूँकि वो चमक रही थीं एक ऐसी चमक जो मैंने जीवन में पहली बार देखी थी उनके वस्त्र सिकुड़े और मैले थे। बाल अस्त व्यस्त माथे पर घोंसले की तरह पड़े थे। वो धीरे-धीरे नाव खेते मेरी ओर आ रहे थे। उनके चेहरे पर हमेशा की तरह एक गहरी शान्ति और तटस्थता थी। मैं जैसे संज्ञा शून्य हो गई थी। गहन मौन था वहां सिवाय चप्पू से नाव को खेने की छप छप आवाज़ के। मैं उठकर खड़ी हो गई पिता के स्वागत के लिए और मुस्कुराने लगी। अचानक वहां ढेर सारी बड़ी बड़ी मछलियाँ पिता की नाव के इर्द गिर्द झिमत आईं। पिता घबराकर ज़ोर ज़ोर से चप्पू चलाने लगे पर मछलियों ने उन पर बुरी तरह आक्रमण कर दिया और नाव डूबने लगी। वो पिता की देह पर टूट पड़ीं और फिर....मुझ तक पानी के छींटें पड़ने लगे, जो लाल रंग के थे। मैं चीखने लगी ज़ोर ज़ोर से "बचाओ...मेरे पिता को कोई मछलियों से बचाओ...तभी किसी ने मेरे कन्धों को थपथपाया। मैं चौंक कर उठ बैठी। मैंने खुद को नदी के किनारे बेंच पर बैठे हुए पाया
“आप सपना देख रही थीं’’ मेरे कंधे पर एक नौजवान का हाथ था नौजवान मुस्कुरा रहा था।
“ओह क्षमा करना बेटा .....हाँ एक बुरा सपना था वो’’ मैंने कहा।
चलिए, मैं आपको आपके घर तक पहुंचा देता हूँ।
नहीं नहीं, मैं खुद चली जाउंगी ...घर ज्यादा दूर नहीं ...मैंने कहना चाहा, पर नहीं कहा।
वो नौजवान अब मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे ले जा रहा था। घर लौटते वक़्त मुझे लग रहा था मेरी उम्र वापस लौट रही है मेरे बचपन में।
मैं और पिता घर लौट रहे थे ....