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प्रेम की डोर

प्रेम की डोर

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दरवाजे की घंटी बजी तो मीरा ने जाकर दरवाजा खोला। बाहर मिठाई का डब्बा लिए मोहन खड़ा था। इतने में भीतर से आवाज़ आई ..... 

"अरे कौन है।"

"बाबू जी मोहन आये हैं।"

"अरे आओ आओ मोहन बेटा आओ।"

मोहन मास्टर जी को प्रणाम करके संकोचवश खड़ा ही रहा। तो मास्टर जी बोले-

"अरे अरे बेटा, खड़े क्यों हो बैठो बेटा बैठो, तुमने तो हमारे कस्बे ही नहीं, जिले और राज्य का नाम, पूरे देश में रोशन कर दिया। मीरा तुम क्या खड़ी खड़ी मुंह ताक रही हो, मोहन के लिए जलपान का प्रबंध नहीं करोगी। अपने हाथों की अदरक वाली कड़क चाय नहीं पिलाओगी।"

"जी बाबू जी अभी लाई।"

मीरा के जाने के बाद मास्टर जी फिर मोहन से बात करने लगे .......

"आज सवेरे ही अखबार में पढ़ लिया था, मोहन कुमार ने भारतीय प्रशासनिक सेवा में पूरे देश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। तब से ही बहुत खुशी और गर्व हो रहा था। तुम जैसे होनहार लड़के पर कौन गर्व नहीं करेगा।"

उधर रसोई में चाय बनाते बनाते मीरा अतीत में खो गई मीरा जब दसवीं में थी और मोहन बारहवीं में, आते जाते मोहन, मीरा को देखता रहता था। कुछ कहने का प्रयास भी करता लेकिन बोल नहीं पाता। बोर्ड की फाइनल परीक्षा का टाइम टेबल आ चुका था। मोहन की अधीरता बढ़ती जा रही थी। मीरा भी समझ चुकी थी मोहन क्या कहना चाहता है। एक दिन लाइब्रेरी में पढ़ते हुए मोहन की नज़र मीरा पर पड़ी जो कोई किताब लेना चाहती थी पर मिल नहीं रही थी। मोहन ने हिम्मत करके पूछ लिया ......

"कौनसी बुक चाहिए तुम्हें," मीरा के नाम बताने पर मोहन ने कहा- 

"अरे ये तो मेरे पास रखी है, शाम को देने आ जाऊंगा तुम्हारे घर।"

मोहन शाम का इंतजार करने लगा और किताब लेकर मीरा के घर पहुंच गया ....

दरवाजे पर ही मीरा के पिता मास्टर जी मिल गए और पूछा कैसे आना हुआ मोहन। इस तरह किताबों का आदान प्रदान होने लगा और एक दिन मोहन ने अपने मन की बात मीरा को कह डाली .....

"मीरा मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ और शादी करना चाहता हूं।"

मीरा बिन माँ की समझदार और दुनियादारी में निपुण लड़की थी उसने मोहन को स्पष्ट कह दिया .....

"देखो मोहन, मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ लेकिन अभी तो तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई और हमारी भिन्न जातियों के कारण ये समाज और घर के लोग कभी राजी नहीं होंगे। माँ के गुजरने के बाद बाबूजी का मेरे सिवा कोई नहीं ऐसे में, मैं उन्हें कोई तकलीफ देना नहीं चाहती।"

उसके बाद मोहन ने कभी मीरा से कुछ नहीं कहा और फाइनल परीक्षा के बाद शहर चला गया। तीन साल बीत चुके थे मीरा बस मोहन के बारे में अखबार में ही पढ़ती रहती थी। जब उसने बोर्ड की परीक्षा और स्नातक की परीक्षा में टॉप किया तो उसके पिता ने खुश हो कर ये खबर मीरा को बताई थी।

तभी बाबूजी की आवाज़ से मीरा की तंत्रा टूटी ....

"अरे बेटी मीरा क्या हुआ, चाय नहीं बनी क्या अभी तलक, मोहन इंतजार कर रहा है।"

जल्दी से चाय और नाश्ता लेकर मीरा बैठक में आती है 

हंसते हुए मास्टर जी कहते है "लो कलक्टर साहब इतने इंतजार के बाद चाय आ ही गई।"

झेंपते हुए मीरा और मोहन भी हंस पड़ते हैं, चाय खत्म करके मोहन जाने को खड़ा होता है और मास्टर जी से कहता है "अच्छा सर मैं चलूं।"

गंभीर होकर मास्टर जी कहते हैं। 

"रुको .....आज भी अपने मन की बात नहीं कहोगे क्या ? जिस प्रेम को पाने के लिए तुम परिश्रम की कठिन डोर पे चले, आज उसी संघर्ष की मंज़िल पर पहुंच कर भी सफलता का ताला नहीं खोलोगे ?"

मीरा और मोहन अवाक हो कर मास्टर जी को देखते रह गए।

"हाँ मेरे बच्चों मुझे सब मालूम है, मीरा की माँ के देहांत के बाद मैं ही इसकी माँ हूँ और में ही पिता .... अपनी होनहार बेटी के मन का हाल मैं नहीं जानूँगा तो कौन जानेगा, ये समाज ये जाति के बंधन मेरे बच्चों की खुशी से बढ़कर नहीं, बेटा मैंने तुम्हारे पिता से पहले ही रिश्ते की बात कर ली थी।"

मीरा और मोहन मास्टर जी के गले लग जाते हैं तीनों के नेत्रों से अश्रु धारा बहने लगती है।


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