घर-घर का खेल
घर-घर का खेल
वो रोज पीकर घर आता था। पत्नी समझा समझा कर हार चुकी थी कि उसके ऐसे नशे में धुत हो रोज रात को देर से आने का उनके इकलौते बेटे पर गलत असर पड़ जाएगा पर वह सुन कर भी अनसुना कर देता था।
इस हफ्ते वो थोड़ी कम पी कर और जरा सा जल्दी घर आ रहा था। लगभग दो वर्षों बाद उसकी छोटी बहन अपने पति और दो बच्चों के साथ उनके घर दस -बारह दिन के लिए आयी थी। बहन और जीजा का लिहाज कर वो थोड़ा कम पी रहा था। या शायद पत्नी की तरह वो भी उसे उपदेश देना न शुरू कर दें इसलिए अपनी बुरी लत को छुपाने का प्रयत्न करने में लगा हुआ था।
आज जब वो घर आया तो पत्नी, बहन और जीजा पास के बाजार गए हुए थे। घर में बस तीनों बच्चे थे।
उसे पता नहीं क्या सूझा पर आज वो महीनों बाद बेटे के कमरे की तरफ चल पड़ा।
खिड़की से अंदर झाँका। बच्चे घर घर खेल रहे थे।
हरे रंग के नरम मुलायम मेंढक खिलौने को पापा बनाया गया था।
बहन के बच्चों ने मेंढक को पकड़ा और उसके हाथ हिलाते हुए पापा की एक्टिंग शुरू की
"अरे बच्चों होमवर्क कर लिया न। चलो आओ मैं तुम्हे एक मजेदार किस्सा सुनाता हूँ। "
उसे हँसी आ गयी और अपना बचपन भी याद आया। वो मुड़कर अपने कमरे की तरफ बढ़ा ही था कि उसके कान में अपने बेटे की आवाज पड़ी
"तुम दोनों कितने बुद्धू हो। पापा ऐसा थोड़े ही बोलते हैं। मैं करता हूँ पापा की सही एक्टिंग। "
वो वापस खिड़की से अंदर देखने लगा।
उसके बेटे ने खिलौने मेंढक को पास की कुर्सी में अधलेटा कर दिया और बोला- "अब चुप हो जाओ। सारा नशा ख़राब करोगी। बंद करो अपनी चिक चिक।"
बहन के बच्चे ये सुन कुछ हैरान -परेशान एक दूसरे को ताक लगे।
उसका बेटा अभी भी कुछ बोल रहा था। पर अब उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
उसे तो बस मेंढक के हाथ में और आसपास शराब की बोतलें ही बोतलें नजर आ रही थी और मेंढक के चेहरे में अपनी शक्ल।