आठवां वचन निभाओ सजन
आठवां वचन निभाओ सजन
"सुनो! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ!"
"कहो!"
"अभी तो हम एक-दूसरे को ठीक से नहीं जानते फिर भी सोचा तुमसे पहले ही बता दूँ कि मेरे व मेरे माता-पिता के ईगो को कभी ठेस ना पहुँचाना। उनके सम्मान में कमी नहीं सह पाऊँगा।"
अपनी अरेंज्ड मैरेज हुई थी, बिना मुँह खोले स्वीकृति में सिर हिला दिया।
"मैंने शादी के बाद कई घरों को टूटते देखा है। पत्नी के इशारों पर नाचने वालों में से मैं नहीं हूँ, साथ ही अपने लोगों से दूर नहीं रह सकता।"
पहली मुलाकात थी। वह भी शादी की पहली रात, ऐसे में ऐसी बातें भला कौन करता है? ऐसा लगा कि जैसे गलती से प्रवचन चैनल लग गया है। फिल्मों के रोमांचक सुहागरात देखने के बाद ये सब सुनना तो जैसे सारे युवा सपनों के धाराशाई होने जैसा था। फिर लगा कि शायद 'पत्नी प्रजाति' का खौफ अंदर तक समाया है वरना बिन मौसम बरसात भला क्यों करते। कुछ पूर्व-धारणाओं से ग्रसित जरूर थे पर अपनों के प्रति संवेदनशीलता अच्छी ही लगी तो सोचा क्यों न लगे हाथ अपनी बात भी रख दूँ।
"आप भी वैसा ही व्यवहार मेरे परिवार के साथ करना जैसा मुझसे उम्मीद कर रहे है।"
"ठीक है तो आठवाँ वचन यही रहा।" अपनी बात पर अमादा थे।
"आठवाँ वचन? इसके बारे में पहले ना सुना था।"
"सात वचन हम-दोनों के लिए और आठवाँ हमारे परिवारों के लिए" कहकर गहरी साँस ली। पता चल गया था कि 'रंगीला' मूवी के जमाने में 'ताजमहल' का किरदार मिल गया था। काॅलेज वाली ऐक्टिंग याद आ गई। पेड़ के पीछे छुपकर पुरानी फिल्मों की नकल उतारते हुए कितना हँसा करते थे। "प्रेम नगर की पूरी खाई...." बीसवीं सदी की हिरोइन साठ के दशक के हीरो से टकराई थी। अब कर भी क्या सकते थे शादी तो हो चुकी थी। उनके चलाए तीर का रूख उनकी ही ओर मोड़, हमने अपनी बुद्धि का परिचय दे दिया था। साथ ही अपने माता-पिता के सुपुत्री होने का फर्ज भी अदा कर दिया था।
विदा हो ससुराल आते ही सारे समीकरण समझ में आ गए थे। खानदान के पहले सपूत होने के साथ-साथ ननिहाल में पलने-बढने के कारण पैम्पर्ड थे। जमाने की रंगीनियों से थोड़े अंजान ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों वाले बड़े भाई बने बैठे थे। ऐसे बुजुर्गाना माहौल में भला किसी से क्या उम्मीद करती।
अपना मन परिवार के अन्य सदस्यों के संग लगाने लगी। ससुराल तो ससुराल ही होता है जहाँ अमूमन पहली बहु सुघड़ नहीं लगती पर दूसरी-तीसरी आते - आते, पहली वाली मनभावन बन जाती है। मेरे साथ भी वही हुआ पर मुझे इन बातों की कोई फिक्र नहीं थी। दूसरे क्या सोचते है वह मेरी चिंता का विषय ना था। इस तरह की दिक्कतें उन्हें आती है जिन्हे संयुक्त परिवार नहीं भाता।
मुझे बड़े परिवार में रहने का बड़ा शौक था। देर रात तक प्यारी ननद व देवर के संग अंत्याक्षरी खेलने में कई बार पिया को भी भूल जाती। इतने प्यारे लोग थे कि मैं उनमें ही रम गई। उनके स्नेह के बंधन में बंधती चली गयी और बड़े-बुजुर्गों के लाडले पिया धीरे-धीरे हमारे रंग में रंगने लगे थे।
ससुराल में इतना लाड़-दुलार मिला कि पीहर भूल गयी, पर आठवाँ वचन याद रहा। उसकी ही तो डील चल रही थी। 'सीधी उंगली से घी ना निकले तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है' सुना था अब आजमा रही थी। मैं तो मशगूल हो उनके परिवार संग वचन निभाए जा रही थी जबकि वह दूर से दीदार पा रहे थे। सच कहूँ तो आठवें वचन के चक्रव्यूह में सजन जी स्वयं उलझ गए थे। उनके पहली रात के सारे पैंतरे फिजूल गये।
मैं उनके परिवार में सबकी चहेती बनती गई और वह बेचारे अकेले पड़ते गए तब आखिर में एक दिन खीज कर बोले, "जिसके संग सात फेरे लिए उसे ही भूल गई?"
"आपने ही तो आठवें वचन के पालन पर जोर दिया था।"
"आठवाँ छोड़ो! पहले अपने सात वचन निभाओ। दूसरे शहर में तबादले की अर्जी दे दी है। चलने की तैयारी करो।"
"पर आपको परिवार से दूर करने का पाप मैं कैसे करूँ?"
"शादी की है यार! पहले पत्नी धर्म निभाओ। बाकियों से जब हम छुट्टियों में आया करेंगे तब निभाना।"
बड़ी जल्दी बेचारे लाइन पर आ गये थे। अपने ही फेंके जाल में उन्हें फँसा छटपटाता देखकर बड़ा मजा आ रहा था। अब उनके साथ रहते हुए वर्षों बीत गए। जब भी उन्हें छेड़कर मजा लेने का मूड बनता है तब दीवाली के फुस्स पड़े अनार के समान उनके आठवें वचन की बात चला देती हूँ।
"सासरे संग हमने तो खुशी से निभा ली सजन। तुम भी तो निभाओ अपना आठवाँ वचन!" अब देखना यह है कि इस डील का असली विजेता कौन बनता है?