पहचाने रास्ते
पहचाने रास्ते
“अम्मा जी बधाई हो आपका पोता भी इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर लिया है। सोचती हूँ सत्यनारायण भगवान की पूजा रख लूँ। सभी रिश्तेदारों एवं पड़ोसियों का मुँह मीठा करा दूँ।
“हाँ बहू जो भी अरमान हैं पूरे कर ले। अपने लल्ला से खूब लाड़ लड़ा ले। उसकी मनपसंद मिठाइयाँ बना ले। उसके बालों में अपने हाथों से चम्पी कर दे।”
“ये क्या बात हुई अम्मा जी, मैं उत्सव की बात कर रही हूँ और आप लल्ला के लिये प्यार का राग अलाप रही हैं।”
“बहू तुम अभी नहीं समझेगी, मैं भी तेरी तरह खुशी से फूली नहीं समा रही थी, जब तेरा पति यानि मेरे राजन का इंजीनियरिंग में दाखिला हुआ था। गरीबों में कम्बल बाँटी थी कि अब मेरा बेटा बड़ा आदमी बन जायेगा ।अपने कुल खानदान का नाम रौशन करेगा। और उसने किया भी।”
“हाँ माँ सच में अपने परिवार की काफी इज्जत गाँव वाले करते हैं।”
“बहू धन-दौलत शोहरत सब कुछ हमारे बेटे की वजह से हमें मिली बस एक चीज छूट गई।”
“क्या माँ ?”
“अपने ही बेटे का वर्षों से इंतजार करते हुए यह आँखें धुँधली हो गई शायद इसे ही बुढ़ापा कहते हैं। अब तो बस इंतजार ही करते ऊपर जाने का बुलावा आ जायेगा।” इसलिए तुमसे कहती हूँ सत्यनारायण भगवान की पूजा या पड़ोस में मिठाई बाँट कर खुश होने की वजह बीसियों बार मिलेगी।
“परंतु प्यार करने के लिये अब बेटा कभी पास में लौट कर नहीं आयेगा। यह एक माँ से बेहतर भला कौन समझ सकता है। अभी पढ़ने के बहाने बाद में नौकरी की बेबसी, कुल मिला कर अब तेरी आँखों में भी इंतजार के सिवा कोई आस नहीं बचेगी।”
“ओहह माँ इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं, परंतु आप सही हैं क्योंकि आपने गतिपथ में कितने बसंत देखी हैं।”