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Deepak Kaushik

Abstract

4.3  

Deepak Kaushik

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दो मुट्ठी आसमान

दो मुट्ठी आसमान

12 mins
413


रजत आजकल अपने आपे मे नही है। एक अजीब सी उलझन, एक अजीब सी बेचैनी ने उसे परेशान कर रखा था। ये उलझन, ये बेचैनी उसे क्यो सता रही थी, वह समझ नही पा रहा था। न उसका ड्यूटी पर मन लगता न घर पर। बैठे-बैठे अचानक से मन भर आता और उसकी आंखे नम हो जाती। कभी-कभी तो बरबस रोने ही लगता। रात मे सोते समय अचानक से चौंक कर उठ बैठता। पत्नी जब पूछती तो सूनी-सूनी आंखों से देखता रहता। सांत्वना देने के लिये पत्नी सीने से लगाती तो फफक पड़ता। मगर अपनी इस मनोदशा का कारण वो समझ नही पाता। हां! इतना जरूर लगता कि जैसे उसे कोई आवाज दे रहा हो। कहीं बहुत दूर से। या कहीं उसी के भीतर से। उसकी पत्नी उसकी इस दशा से बहुत भयभीत थी। उसे लगने लगा था कि कहीं रजत किसी मानसिक बीमारी का शिकार तो नही हो गया। उसने रजत को मानसिक चिकित्सक के पास जाने की सलाह भी दी। परंतु रजत ने इस बात को मानने के बजाय स्वयं अपनी समस्या का समाधान खोजने का निर्णय लिया। बहुत दिनो तक मंथन करने के बाद रजत इस निर्णय पर पहुंचा कि उसे कुछ दिनो की छुट्टी लेकर किसी आश्रम मे जाकर ध्यान योग सीखना चाहिये। कोई योग्य योग गुऱू ही उसकी समस्या का समाधान कर सकेगा। इस बात को उसकी पत्नी ने भी स्वीकारा। पत्नी स्वयं भी उसके साथ चलने को तैयार हुयी। परंतु बच्चो की पढ़ाई के कारण उसने अपना जाना निरस्त किया। माता पिता दोनो ही न रहे तो बच्चो के भविष्य का भगवान ही मालिक हो सकता है। रजत अपनी अंधी यात्रा पर निकल पड़ा।

रजत सीधे हरिद्वार पहुंचा। कई आश्रमो मे गया। हर जगह स्वयं को श्रेष्ठ योग गुरू सिद्ध करने वाले गुरू ही उसे मिले। उसकी बेचैनी, उसकी तड़प का समाधान करने वाले गुरू कहीं नही मिले। शरीर को स्वस्थ कर देने वाले गुरू ही हर स्थान पर थे। आत्मा को स्वस्थ करने वाले कहीं नही थे। एक आश्रम से दूसरे आश्रम मे भटकते हुये रजत के साथ एक अच्छाई यह अवश्य हुयी कि योग की प्रारंभिक शिझा मे वो पारंगत हो गया। योग विद्या मे पारंगत होने मे रजत को एक वर्ष का समय लगा। इस बीच उसने अपनी पत्नी से कई बार बात की। अपनी कुशलझेम पत्नी को दी तो घर-परिवार की कुशलझेम स्वयं प्राप्त की। एक वर्ष पश्चात उसने अपनी पत्नी से कहा-

"मै जिस उद्देश्य को लेकर निकला था वह अभी भीअधूरा है। अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिये मै यहां से आगे जाना चाहता हूं।"

"कहां जाओगे कुछ सोचा है?"

"मेरी ये यात्रा अंधी है। उद्देश्य है मगर न कोई राह है और न कोई मंजिल। देखूं जीवन मुझे किस ओर ले जाता है।"

"अपनी कुशलता की सूचना देते रहना।"

"यही मुख्य बात है। यदि राह मे कभी भी कहीं भी फोन की सुविधा मिल सकी तो अवश्य अपनी सूचना दे दूंगा। अन्यथा मेरी चिंता मत करना।"

"चिंता कैसे न करूं। मै तुम्हारे साथ होती तो कोई बात नही थी। मगर तुम वहां न जाने कहां-कहां भटक रहे हो और मै यहां पड़ी हुयी हूं।"

"धीरज धरो। बस ईश्वर से प्रार्थना करो कि मेरी यात्रा सफल हो और मै शीघ्र ही वापस तुम्हारे पास पहुंच जाऊं।"

"मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है।"

रजत अपनी अगली यात्रा पर निकल पड़ा। इस मंदिर से उस मंदिर, इस मठ से उस मठ, इस आश्रम से उस आश्रम। कहीं उसे संतोष न हुआ। एक वर्ष और व्यतीत हो गया। अब वो उत्तराखण्ड के पहाड़ो मे भटक रहा था। सुबह-शाम ध्यान करने बैठता तो अक्सर गहराई मे चला जाता। ध्यान करता, गहराई मे जाता, मन को शांति तो मिलती मगर ये पता नही चल पाता कि उसे बहुत दूर से आवाज देने वाला कौन है। ऐसे ही एक दिन घने जंगलो के बीच बसे एक मठ मे जा पहुंचा। सायंकाल का समय था। सूर्य देवता अस्ताचलगामी थे। रजत स्नान आदि से निवृत्त हो मठाधीश के समझ उपस्थित हुआ। कुछ कुशलझेम की बात हुयी, कुछ औपचारिक बात हुयी फिर रजत ध्यान करने बैठ गया। आज वो कुछ ज्यादा ही गहराई मे चला गया। उसके चेहरे से तेज फूटने लगा। भोजन का समय हुआ। मठ का सेवक बुलाने आया मगर रजत को ध्यान की गहराई मे डूबा देख बिना शब्द किये वापस चला गया। उसके बाद दो-तीन बार पुन: आया। मगर रजत समाधि से न उठा। हारकर सेवक भोजन करके सो गया।

रजत की समाधि अगले दिन ब्रह्म मूहुर्त मे भंग हुयी। रजत नित्यकर्म से निपट ही रहा था कि सेवक ने आकर कहा-

"आपको स्वामी जी बुला रहे है।"

"चलो मै आता हूं।"

सेवक चला गया। कुछ समय बाद ही रजत स्वामी जी के सामने था।

"कल अखिल आपको भोजन के लिये बुलाने गया था। मगर आपको ध्यान मे डूबे देख वापस आ गया था। आपने रात भोजन ही नही किया।"

"स्वामी जी, जब कभी ध्यान गहरा लग जाता है तब भोजन आदि किसी भी चीज का ध्यान नही रह जाता है।"

"आपके गुरू कौन है?"

"गुरू तो बहुत से होंगे। एक वर्ष तक हरिद्वार और रिषिकेश मे न जाने कौन-कौन से आश्रमो मे रहकर यह विद्या सीखी है। किस एक का नाम लूं मै।"

"फिर भी बहुत ऊंचाई पा गये है।"

"सब ईश्वर और उन्ही गुरूओं की कृपा है।"

"अभी कुछ दिन रहोगे यहां।"

"कुछ निश्चय नही है। फक्कड़ हूं। मन रम गया तो रुक सकता हूं। नही तो अभी चल दूं।"

"कुछ दिन यहां रुको। शायद तुम्हारी यात्रा का यह अंतिम पड़ाव हो।"

रजत ने एक पल के लिये स्वामी जी को देखा। स्वामी जी मे रजत को एक दिव्य पुरूष के दर्शन हुए। आशा की एक किरण दिखायी दी।

"यदि आपकी आग्या है तो मै रुक जाऊंगा।"

"पूरी रात समाधि मे रहे है। अब पुन: तो समाधि मे जाने की इच्छा नही है।"

"नही, अब रात्रि मे ही बैठूंगा।"

"रात भोजन नही किया था। अभी नाश्ता बन रहा होगा। नाश्ता करो। चाय तो पी लोगे।"

"जी स्वामी जी। चाय से कोई परहेज नही है।"

रजत रुक गया। अब उसने नियम बना लिया। रात्रि मे भोजन करता ही नही। रात्रि मे ध्यान लगाकर बैठ जाता। सारी रात बैठा रहता। सुबह ध्यान से उठता। उसने इस बात पर भी ध्यान दिया कि इस मठ मे आने के बाद से उसका ध्यान नियमित रूप से गहराई मे जा रहा था। उसने सोचा शायद स्थान के प्रभाव से ऐसा हो रहा होगा। सच भी था। इस स्थान मे दिव्यता तो थी।

रजत रात भर समाधि मे रहता और दिन मे मठ के आसपास घूमता रहता। कभी देवदार, कभी चीड़ के जंगलो की सैर करता रहता। कभी मठ के एक तरफ स्थित घने भोजपत्र के जंगलो मे चला जाता। कभी मठ के दूसरी तरफ स्थित पीपल के नीचे जा बैठता। इन सब क्रियाकलापो मे उसे असीम सुख मिलता। स्वामी जी का निर्देश था इसलिये भोजन के समय अवश्य वापस आ जाता। भोजन करता फिर आराम करने लगता।

एक सप्ताह बाद।

अभी रजत रात्रि की समाधि से उठकर दैनिक क्रिया से निपटा ही था कि मठ के सेवक अखिलानन्द, जिन्हे सब लोग अखिल नाम से पुकारते थे, ने कहा-

"स्वामी जी ने बुलाया है।"

"चलो।"

रजत स्वामी जी के पास पहुंच गया। स्वामी जी के सामने नाश्ता आ चुका था।

"आओ, बैठो। नाश्ता कर लो। आज मै तुम्हे अपने साथ कहीं ले चलना चाहता हूं।"

रजत ने नाश्ता किया। स्वामी जी रजत को लेकर मठ के पीछे की तरफ चले। मठ के पीछे एक खिड़कीनुमा दरवाजा था। दोनो उससे बाहर निकले। यहां से एक पगडंडी ऊपर की तरफ जाती दिखी। दोनो उस पर चल पड़े। स्वामी जी बड़ी तेजी से ऊपर चढ़ रहे थे। रजत उनकी बराबरी नही कर पा रहा था। स्वामी जी बार-बार रुककर उसकी प्रतीझा करते। पास पहुंचने पर फिर आगे चल पड़ते। ऐसा करने से स्वामी जी को तो सांस लेने का अवसर मिल जाता परंतु रजत को नही मिलता। अचानक स्वामी जी ने रजत का हाथ पकड़ लिया। रजत को लगा जैसे उसका शरीर रूई से भी हलका हो गया हो। अब वो भी स्वामी जी के साथ चलने लगा। स्वामी जी और तेजी से चलने लगे। मगर अब रजत को स्वामी जी के साथ चलने मे कोई कठिनाई नही हो रही थी। कुछ ही मिनटो मे दोनो पहाड़ की चोटी पर पहुंच गये। यहां पहुंच कर रजत ने नीचे की ओर देखा। काफी नीचे उसने स्वामी जी के मठ को देखा। मठ के नीचे के गांव को भी देखा। यात्रा पुन: शुरू हुयी। इस बार अधिक नही चलना पड़ा। पहाड़ की चोटी से थोड़ा सा ही नीचे उतरने पर एक बड़ी सी गुफा दिखायी दी। स्वामी जी ने गुफा की ओर संकेत कर कहा।

"मै यहीं तक तुम्हारा साथ दे सकता था। यहां से तुम्हे अकेले ही यात्रा करनी है। बहुत लम्बा रास्ता नही है। दस-पन्द्रह मिनट मे ही तुम उस स्थान पर पहुंच जाओगे जहां तुम्हे पहुंचना है। कुछ दूरी तक तुम्हे अंधेरा मिलेगा। डरना मत। अपने गंतव्य तक पहुंचते ही तुम्हारी सभी शंकाओ का समाधान हो जायेगा। "

कहकर स्वामी जी चलते बने। रजत उनसे कुछ कह या पूछ पाता, स्वामी जी ने इसका अवसर ही नही दिया। हारकर रजत ने गुफा मे प्रवेश किया। कुछ ही दूर चलने पर गुफा मे घनघोर अंधकार का साम्राज्य व्याप्त हो गया। रजत आगे बढ़ता रहा। जहां तक हलका सा भी प्रकाश मिला सीधा चला। फिर टटोल कर चलने लगा। पहले अंधेरा फिर सांस लेने मे कठिनाई होने लगी। ध्यान योग मे पारंगत था, इसलिये दम साध कर आगे बढ़ता रहा। सांस के साथ अब गर्मी ने भी परेशान करना शुरू कर दिया। मगर स्वामी जी का निर्देश था 'डरना मत', सो साहस करके आगे बढ़ता रहा। लगभग बारह मिनट लगे होंगे। रजत को प्रकाश की झलक दिखायी दी। लगा, गुफा के दूसरे छोर पर पहुंच गया है। मगर नही। यह गुफा का दूसरा छोर नही था। गुफा के भीतर ही एक बड़ी खुलासा रमणीक जगह थी। इस स्थान पर एक बड़ा ही दिव्य प्रकाश फैला हुआ था। जो न तो सूर्य का था न चन्द्रमा का। तारो का हो सकता था। किसी ऐसे तारे का जो हमारी पृथ्वी से इतनी दूरी पर हो जितनी हम कल्पना भी नही कर सकते। इस प्रकाश का रंग कुछ सिंदूरी सा था, जिसमे कुछ हरीतिमा मिला दी गयी हो। एक स्वच्छ जल का तालाब भी था, जिसे देखकर ही मन को बड़ी शांति मिल रही थी। गुफा के द्वार से यहां तक आने मे मार्ग मे मिली उमस के कारण उसका जी घबरा उठा था। रजत ने तालाब मे अपना मुंह धोया। कुछ जल ग्रहण किया। अब रजत ने गुफा मे चारो तरफ देखा। कहीं कोई मार्ग नही था। अर्थात् स्वामी जी के कथनानुसार यही उसका गंतव्य स्थल है। यह ध्यान आते ही वह चौंक सा पड़ा। इस स्थान पर फैला प्रकाश कहां से आ रहा है? वायु कहां से आ रही है?

मार्ग मे जिस ऊष्णता का सामना उसे करना पड़ा था, उसके स्थान पर शीतलता कहां से आ गयी? इस स्थान पर यह अनोखी सी शांति कैसी है? यह कौन सी मायानगरी है? कहीं ऐसा तो नही कि स्वामी जी ने उसे किसी झंझट मे फंसा दिया हो। रजत एक चट्टान पर बैठ गया। सारा वातावरण अनुकूल था। मगर रजत की ध्यान करने की इच्छा नही थी। वह बैठा अपने मनोभावो डूब उतरा रहा कि उस स्थान पर कुछ हलचल सी हुयी। श्वेत रंग का एक प्रकाश बिंदु प्रकट हुआ। फिर दूसरा, फिर तीसरा, अनेक बिंदु प्रकट हुए। यह बिंदु धीरे-धीरे बड़े होने लगे। धीरे-धीरे इन बिंदुओं ने आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया। कुछ ही देर मे सारे बिंदुओं ने दिव्यात्माओं का रूप ग्रहण कर लिया। सबसे पहले प्रकट होने वाला बिंदु सबसे आगे था। शेष अन्य उसके पीछे। पीछे वाले बिंदुओं मे बहुत से बिंदुओं को देखकर वह चौंक उठा। इनमे से अधिकांश वे लोग थे जिन्होने उसे योग मे पारंगत किया था।

"इस दिव्य लोक मे तुम्हारा स्वागत है। तुम अपने को जो कुछ भी समझते हो वो तुम नही हो। तुम एक योग-भ्रष्ट तपस्वी हो। तुम्हे तुम्हारे वास्तविक स्वरूप से अवगत कराने के लिये ही तुम्हे यहां तक बुलाया गया है। तुम्हे यह निर्देश दिया जाता है कि अपने कर्तव्यो का भली प्रकार निर्वहन करो, उसके बाद तुम्हे पुन: यहां आना है। सांसारिक उत्तरदायित्वो को पूर्ण करने मे कोई कमी मत करना। सांसारिक दायित्वो के अनुभव के लिये ही तुम्हे संसार मे भेजा गया था। इसमे की गयी कमी तुम्हे पुन: संसार मे वापस भेज देगी। अब तुम्हे वापस जाना होगा। चाहो तो कुछ समय इस स्थान का आनंद ले सकते हो। अपनी शिला के दाहिनी ओर जाने पर तुम्हे एक द्वार मिलेगा। उस मार्ग से जाने पर एक वन मिलेगा। उस वन के फलो को ग्रहण करो। फिर वही से तुम्हे वापस जाने का मार्ग भी उपलब्ध हो जायेगा।"

इतना निर्देश देकर वे बिंदु जैसे प्रकट हुए थे वैसे ही अलोप हो गये। रजत ने अपने दाहिनी ओर देखा। वहां कोई द्वार दिखायी नही दिया। हो सकता है यह उसकी आंखों का धोखा हो। दिव्यात्माएं झूठ नही बोल सकती। रजत कुछ देर वहां घूमता रहा। गुफा की दीवारो को देखता रहा। दीवार के कण-कण मे व्याप्त दिव्यता का अनुभव करता रहा। तालाब मे उतर कर स्नान किया। फिर उसी शिला के पास आकर दाहिनी ओर चला। सचमुच पहले उसे धोखा ही हुआ था। दाहिनी ओर मार्ग था। द्वार से बाहर आया। बाहर उसे बहुत ही रमणीक वन मिला। वन मे कई प्रकार के पहाड़ी फलो के वृझ थे। रजत ने दो-चार फलो से अपनी संतुष्टि की और ऊपर की तरफ चल पड़ा। पहाड़ की चोटी पर पहुंच कर रजत ने चारो तरफ दृष्टि फिरायी। दूर-दूर तक फैले ऊंचे-ऊंचे पहाड़, पहाड़ो के ऊपर फैला स्वच्छ-निर्मल आसमान, आसमान मे मध्य से नीचे उतर आया सूर्य, आज सब कुछ एक अलग ही कहानी कह रहे थे। प्रकृति के इस अद्भुत करिश्मे को देख रजत का मस्तक श्रद्धा से झुक गया। उसके दोनो हाथ स्वत: ही जुड़ गये। रजत उस दिशा मे घूम गया जिधर से आया था। नीचे की तरफ देखते ही वह पुन: चौंक उठा। उसे वह मठ कही दिखायी नही दे रहा था। मठ के आसपास का चीड़, देवदार, भोजपत्र का जंगल सब कुछ दिखायी दे रहा था। यहां तक कि नीचे गांव भी दिख रहा था। मगर मठ नही। रजत नीचे उतर आया। मठ के स्थान पर पहुंचा। एक-एक स्थान को बारीकी से देखा। पीपल के उस वृझ को भी देखा जिसके नीचे वो अक्सर बैठा करता था। मगर मठ का कही निशान तक नही मिला। रजत और नीचे उतर कर गांव मे पहुंचा। एक ग्रामवासी से पूछा-

"ऊपर एक मठ था उसका रास्ता किधर से है।"

"कौन सा मठ साहब! यहां तो कोई मठ नही है।"

"यहां से कुछ ही ऊपर तो था। अभी कल तक तो मै ही वहां एक सप्ताह तक रहा था।"

"हम तो यहीं के जन्मे है। हमने तो यहां कभी कोई मठ नही देखा।"

"ऊपर एक भोजपत्र का जंगल है।"

"हां है।"

"चीड़ और देवदार का भी है।"

"वो तो पूरे उत्तराखण्ड मे है।"

"भोजपत्र के जंगल के पास ही तो था वो मठ।"

"साहब ये उत्तराखण्ड है। यहां पग-पग पर चमत्कार भरे पड़े है। आपको भी किसी देवता ने कोई चमत्कार दिखाया होगा।"

"हो सकता है।"

रजत को पहले ही इस चमत्कार पर विश्वास था। बस उसे यह निश्चय करना था कि उसे कोई धोखा नही हो रहा है। ग्रामवासी के अनुनय पर रजत एक दिन उसके घर अतिथि बनकर रहा। फिर वापस चल पड़ा अपने लौकिक दायित्वो को पूर्ण करने।


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