उन दिनों की बात
उन दिनों की बात
यह उन दिनों की बात थी जब भारत में पूंजीवादी युग की शुरुआत हो चुकी थी। लोगों के ह्रदय में भावनाओं की पूंजी समाप्त होने लगी थी। जनता किसी भी तरह धन कमाने को आतुर थी, मानो इंसान, इंसान ना होकर मशीन बनने की कगार पर पहुँच गया था। पैसे की दौड़ ने इंसान को इंसान से रूबरू होने तक का समय छीन लिया था। बरगद के पेड़ के नीचे पिकनिक मनाते परिवार, बच्चों की टोलियों, गीत गाती स्त्रियों एवं घर के बाहर हुक्के गुड़गुड़ाने व बैठक में बड़ी-बड़ी मूँछों वाले बुजुर्गों, दादाजी का जमावड़ा जो युवा पीढ़ी को बोध कथा कह कह कर हर कथा के अंत में सत्य के पथ पर चलने की सीख या ईमानदार होने का पाठ पढ़ा कर अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वहन करता था, उसकी जगह स्मार्टफोन लेता जा रहा था।
सरकारों को देश से ज्यादा सत्ता की चिंता रहने लगी थी। शिक्षा केवल पैसे कमाने का साधन मात्र बनकर रह गई थी। मानो पूरा विश्व एक आर्थिक इंजन बनकर रह गया था जिसका उद्देश्य किसी भी तरह गरीबों को कुचलना और अमीरों को और अमीर करना रह गया था। शिक्षा का मतलब ही मानो गला काट स्पर्धा हो गया था। दहेज रूपी दानव खुलकर स्त्रियों को नील रहा था। शादी में जितना ऊँचा माल समाज में उतना ऊँचा मान वाली कहावतें चरितार्थ होने लगी थी और समाज का यही लालची रवैया समाज में बुराइयों का कारण बनता जा रहा था।
वैसे तो चर्चा हर बुराइयों की जोर शोर से होती थी पर उन्हीं लोगों के कर्म प्रत्यक्ष रूप से समाज की इन बुराइयों को बढ़ावा देने का काम करते रहते थे। सामाजिक बुराइयों का घोर विरोध करने वाले करीब 40 साल या उससे अधिक उम्र के शादीशुदा जो खुद को समाज का सबसे बड़ा चिंतक या हितैषी समझते थे जब अपने ही उम्र के दो चार लोगों में बैठते तो अनायास ही बोल उठते- "फलाने के लड़के की टॉप की शादी हुई है सुना है 5 लाख हाथ पर रखा गया है, बड़ा अच्छा परिवार है और लग जाते कसीदे पढ़ने।
सामर्थ्यवान खुल कर अपनी विलासिता का अंग प्रदर्शन करते थे और समाज में एक कुप्रथा का कूड़ा छोड़ देते थे जिसे मध्यम एवम निम्न वर्ग के लोग जीवन भर ढोते रहते थे।
माँ बाप के प्यार में सन्तानों के लिए कोई कमी तो न आई थी परंतु प्यार जताने या बच्चों के साथ समय बिताने का वक्त अब किसी के पास नहीं रह गया था। माँ बाप कार्यालय में होने वाली मीटिंग, पार्टियों एवं सेमिनार में व्यस्त रहते थे और बच्चे तो ठहरे बच्चे, जिधर मन किया चल पड़ते थे उधर। यही मनमौजीपन कब जवानी की दहलीज पर आते आते सिगरेट, नशाखोरी, एकाकीपन में बदल जाता था पता ही नहीं चलता था- ना समाज को, ना बच्चों को, ना माँ बाप को और ना देश को। यही एकाकीपन, नशाखोरी कब एक कुंठा को जन्म दे देती थी, कब देश की धरोहर अपराध के दलदल में फँसकर औरतों, बड़े बुजुर्गों की इज्जत करना भूल जाती थी, यह बुराई अदालत, सरकार, अभिभावक, समाज देश सब की समझ से बाहर थी।
ऐसे समय में भी देश का एक वर्ग खासतौर पर निम्न मध्यम वर्ग ऐसा था जो अपनी नैतिकता एवं जीवन की जद्दोजहद दोनों को साथ में लेकर चल रहा था। उन घरों में वह घर शामिल थे जिनमें एक ही परिवार में घर के 2-4 सदस्य रात दिन एक करके निम्न से उच्च की ओर किसी भी तरह बढ़ जाना चाहते थे और 2-4 सदस्य ऐसे होते थे जिनको दिन में दो जून की रोटी के अलावा कुछ भी तो नहीं चाहिए था, और घर के वह कमाने वाले 2-4 सदस्य उन 2-4 सदस्यों की रोटी का साधन बन ही जाते थे। यह कुछ उसी तरह होता था जैसे विकाशसील देशों में बेरोजगारों या कुछ ना करने वाले लोगों का बोझ देश के करदाता अक्सर उठाते हैं।
ऐसे में एक बुराई जो धीरे-धीरे अपने पाँव पसार रही थी वह थी दो वर्गों के बीच का वैमनस्य। हालांकि कभी भी सभी को एक तराजू में तोलना सही नहीं कहा गया था फिर भी कुछ ऐसे लोग भी पैदा हो रहे थे जो विशेष नामों से घृणा करने लगे थे कुछ पुरुष, स्त्रियों से, स्त्री, पुरूषों से, दलित सवर्ण से , सवर्ण दलित से, हिन्दू मुसलमान से , मुसलमान हिन्दू से, कुछ गोरे चमड़ी वालों ने कालों को निम्न जाति या किसी गरीब या गाँव से होने का द्योतक बना दिया था, यहाँ तक कि कुछ ऐसे भी नमूने थे जो अपने ही देश के किसी विशेष राज्य को घृणा से देखने लगे थे। तादाद तो इन लोगों की बेशक कम हो परन्तु जहर की दो चार बूँद जिस तरह टनों दूध को जहरीला करने के लिए काफी थी उसी तरह यह लोग समाज में विष घोलने के लिए काफी थे। यही मुट्ठी भर लोग देश के राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर समाज को लड़ाने का काम करते रहते थे।
यह लोग सोशल मीडिया का दुरुपयोग भरपूर करते थे। एक विकट सी स्थिति पैदा कर दी थी समाज में ऐसे लोगों ने। कभी भी एक वर्ग को दूसरे वर्ग का दुश्मन बताकर देश को काट खाये जाते थे, दंगे करवाते, सरकारी सम्पति को तुड़वाते और देशभक्त एवं एक वर्ग के रहनुमा बनकर अपने ही देश के अप्रत्यक्ष दुश्मन बन जाते थे। अक्सर इन लोगों का टारगेट स्टूडेंट, एवं बेरोजगार युवा ही ज्यादा होते थे। यह वह लोग थे जो मीडिया समाज की नजर में तो प्रतिष्ठित नेता होते थे परंतु वास्तव में देश के सबसे बड़े दुश्मन यही लोग हुआ करते थे परन्तु यह समझ कुछ गिने चुने लोगों में ही होती थी।
हजारों वर्षों से जातिवाद का मीठा रस चूस कर देश को कमजोर कर गुलामी की राह दिखाने वालों को आरक्षण का मरहम कड़वा और देश को कमजोर करने वाला प्रतीत होने लगा था। जब उन्हीं लोगों से पूछा जाता था कि समाज में ऐसा क्यों हुआ कि एक वर्ग सारी सम्पतियों का मालिक बन बैठा, देश का उद्योगपति क्यों एक वर्ग से आया और उच्च से और उच्च होता चला गया वहीं इसके उलट दूसरे वर्गों को रोटी तक नसीब नहीं हुई या इन लोगों में कोई क्यों उद्योगपति या देश की बड़ी सम्पत्तइयों का मालिक क्यों नहीं बन सका या इनकी निम्नता का क्या कारण रहा तो बगलों को झांकने के अलावा या ऊल जलूल बातें करने के अलावा उनके पास कोई ठोस कारण नहीं होता था। उधर आरक्षण की मलाई खाने वालों को भी देश समाज से ज्यादा अपने बेटे-बेटियों की शादी में करोङों लाखों लुटाने और समाज में प्रतिष्ठा पाने का अवसर मिल गया था। सहभागिता का उद्देश्य केवल स्वयं का विकास करना रह गया था। अपनी व्यक्तिगत जीवन को बर्बाद कर इन निम्न लोगों को देश में मान दिलवाने वाले बाबा साहेब अब केवल सरकारों एवं इन आरक्षण लेने वालों के लिए वोट बैंक का साधन मात्र बनकर रह गए थे। उनके व्यक्तिगत जीवन से मिलने वाली सीख से इन लोगों को कोई सरोकार नहीं रह गया था।
मन्दिर, मस्जिद, गाय, अयोध्या, राममंदिर, हिन्दू, मुसलमान, दलित, सवर्ण अब वोट देने का साधन बनते जा रहे थे। राजनीतिक लोग कभी भी एक वर्ग को दूसरे के विपरीत खड़ा करके वोट बटोरते थे और अच्छे लोग भी इन राजनीतिक लोगों की कठपुतली बनकर कभी एक पार्टी के साथ खड़े होते तो कभी दूसरे के साथ। यहाँ इसका एक उदाहरण गाय थी। गाय को राजनीति ने कटने से तो बचा लिया था परंतु गाँवों में इन गायों ने किसानों की जो दुर्दशा की थी वह किसी से छिपी नहीं थी। सुबह से शाम तक पचास-पचास गायों का समूह फसलों को बर्बाद करने के लिए काफी था। कभी कभार कब गाय किसी ट्रक या गन्ने के ट्रेक्टर की नीचे अपना दम तोड़ देती थी यह किसी सरकार या गौरक्षक को पता नहीं था या देखकर भी अनजान थे। यह बात समाज के उन लोगों की समझ से परे थी जो राजनीति की कठपुतली बने रहते थे उनको यह समझ नहीं आता था कि यदि राजनीति की गाय को बचाने की मंशा होती तो 4-5 गाँवों में एक गोशाला खुलवाती जिससे गाय तो बचती ही कुछ लोगों को रोजगार भी मिलता परन्तु राजनीति का उद्देश्य समस्याओं का समाधान कम समस्याओं का राजनीतिकरण ज्यादा होता है। यह बात समझने में अक्सर हम लोग चूक कर जाते थे। पेड़ बचाओ का नारा देकर पेड़ काटने वालों या अपने निजी स्वार्थ के लिए जंगलों मे आग लगाने वालों की तादाद जो बढ़ रही थी यह देश की सबसे बड़ी विडम्बना थी।
समाज में अपराध, मासूम नाबालिग बच्चियों का रेप पर, गरीब निम्न लोगों को नंगा करना, किसी के भी आत्मसमान को तोड़ देना, बुजुर्गों को उल्टा सीधा बोलना या अपमान करना समाज में आम होता जा रहा था या यह कहें समाज का अपराधीकरण हो रहा था पर यह क्यों हो रहा था किसलिए हो रहा था इसके बारे में सोचने के लिए किसी के पास समय नहीं रह गया था। शायद ऊपर लिखी समस्याओं में भी इन अपराध का कारण छुपा हो पर लोग ऐसे लोगों को केपिटल पनिशमेंट की बात कहकर आगे बढ़ जाना चाहते थे। लोगों को शायद बुराइयों को खत्म करने की रुचि कम बुरे लोगों को खत्म करने की जल्दबाज़ी ज्यादा थी। लोग या तो इस बात से अनजान थे या आँख बंद कर लेना चाहते थे कि इन समस्याओं की जड़ कहाँ है। कहीं ना कहीं बदलता सामाजिक परिवेश एवं अभिभावकों एवम गुरुजनों का अपने बच्चों से अभिमुख हो जाना, इन समस्याओं का कारण बेशक हो पर इस ओर किसी का ध्यान नहीं था।
अब वो दादा-दादी जो बच्चों को नैतिक कहानियाँ सुनाकर बच्चों के चरित्र निर्माण का काम करते थे उनकी जगह स्मार्टफोन ने जो ले ली थी जिसमें बच्चे हिंसक खेल खेलते या अब बच्चे पोर्न वेबसाइट पर पहुँचकर मन में एक कुंठा को पैदा कर लेते। वर्तमान सामाजिक परिवेश में इतनी मानसिक बीमारियों के साथ समाज में 30 वर्ष की उम्र के बाद शादी का चलन भी अबोध बच्चियों पर अपराध का एक कारण था। पर इन समस्याओं पर काम कौन करे ? समाज में समरसता कौन लाये ? शिक्षा बच्चों का चरित्र निर्माण कैसे करे, इन प्रश्नों का जवाब किसी के पास नहीं था। रामराज्य के नाम पर जो रावणराज्य का नंगा नाच होता था वह किसी से अछूता नहीं था। मेरे समाज में आज चाहें पुलिस व्यवस्था हो या अदालत या राजनीति यहाँ रक्षक ही भक्षक होने का काम कर रहे थे। अब सोचना हमको था कि हमको क्या बनना था और क्या नहीं क्या केवल अपराधियों को फाँसी देना समस्या का हल था या हमको बहुत कुछ करने की जरूरत थी। इन प्रश्नों का उत्तर हमको देना था पर हम चुप थे।
हम समाज को किस दिशा में लेकर जा रहे थे ? यह किसी से छुपा नहीं था। यदि एसे ही चलता रहा तो वह समय दूर नहीं जब हर ओर रावण ही रावण होंगे, हर स्त्री रूपी सीता को हर लिया जाएगा, हर ओर त्राही त्राही होगी, हर ओर से फाँसी-फाँसी की आवाज आएगी। हर ओर नर मुंड पड़े होंगे हर ओर अकुलाहट होगी, हर ओर दर्द होगा और जब मनुष्य की मानसिक बीमारी का परमाणु बम फटेगा उस दिन हर ओर विनाश ही विनाश होगा।
सारी सृष्टि को यह पलक झपकते ही स्वाहा करने के लिए काफी होगा और यदि हम आज नहीं चेते तो आने वाला कल हमको कभी माफ नहीं करेगा।।