वीरान साँझों में
वीरान साँझों में
''सुन नेहा !''
''हाँ कहो भैया !''
''अब तो तू मुझसे ज्यादा कमाने लगेगी --तेरी बैंक में जौब लग गयी और हम तो भई ऐसे ही प्राईवेट ----!''
''अरे रोहित ऐसे क्यों कह रहा है नेहा से ? तुझे पता नहीं कितनी मेहनत की है उसने दिन-रात एक कर पढ़ाई की है मेरी लाडो ने कामयाबी तो मिलनी ही थी !'' माँ सरोज ने दोनों बच्चों की चुहलबाजी में बेटी का पक्ष लेते हुए कहा।
''हाँ माँ यह तो आप ठीक कह रहीं हैं बहुत मेहनत की है हमारी नेहा ने --अब दो दिन बाद ज्वाइनिंग लेटर आ जायेगा और तुम्हारी लाडो चली जायेगी दूसरे शहर फिर तो तुम्हारा यह होनहार बेटा ही रह जायेगा तुम्हारे पास !'' रोहित ने अपनी कोलर शरारत से खींचते हुए कहा मगर माँ ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
''क्या बात है नेहा बेटा कल से देख रही हूँ जब से नौकरी की खुशखबरी मिली है तू बहुत परेशान सी लग रही है ?''
''दूसरे शहर जा रही हो --हँस लो लाडो अभी ससुराल नहीं जा रहीं ---!'' रोहित ने फिर शरारत से कहा।
''चुप कर तू !'' माँ ने रोहित को डाँट दिया तो वह चुप हो गया।
''मम्मी हम सब कितने खुश हैं मेरी जौब लगने पर --?''
''हाँ बेटा --तुझे भी होना चाहिये ---!''
''आज अगर पापा होते तो वो कितने खुश होते --?''नेहा के दिल में जो दर्द छुपा था उथल-पुथल मचा रहा था आँखों में छलक उठा। माँ ने बेटी को गले से लगा लिया रोहित भी उदास हो गया।
''यह खुशी --खुशी नहीं लगती पापा के बिना ऐसा लगता है कुछ अधूरा सा है --हर सुबह -शाम वीरान सी प्रतीत होती है !'' नेहा ने सुबकते हुए कहा तो माँ के सब्र का बाँध भी टूटकर आँखों से निकलती जलधारा में बह गया।