भिखारी
भिखारी
"भगवान के नाम पे कुछ दे दे बाबा!"
"भगवान तुम्हारे बाल-बच्चों को सुखी रखे!"
...उफ्फ कितना शोर मचा रहे हैं ये लोग! -कभी अपने बेसुरे राग से तो कभी अपने कटोरे में खनखनाते इन सिक्कों से!
नादान इतना भी नहीं समझते की हिस्से मे रोटी हुई तभी तो आज पेट की अग्नि शांत होगी? वरना मेरी तरह भूख से पेट मे मरोड़ उठते रहेंगे पर कोई झाँकने तक ना आवेगा |किस्मत से आगे और वक़्त से पहले किसी को कभी कुछ मिला है भला? फिर व्यर्थ मे दया की भीख क्यूँ माँगना?
मुझे भी इस भव्य मंदिर के चबूतरे पर पड़े हुए एक अरसा होने को आया | कब और कैसे यहाँ आया, कुछ याद नहीं| मेरा नाम क्या है या क्या था, ये भी ज्ञात नहीं! या शायद स्मृति पटल पर ज़ोर डालूँ तो अपना नाम 'राजकुमार' याद आता है!! पर किसी को बताऊँ भी तो कैसे?...व्यंग समान लगेगा !
कहने को तो लोग मुझे भी भिखारी कहते हैं, पर मेरे ईष्ट देव की सौं-मैंने आज तक भीख नहीं माँगी| और क्यूँ माँगू भला? क्यूँ अपनी प्यास से तड़पती हुई जिह्वा को कष्ट दूँ ? अगर भगवान मुझे प्यासा ही मारना चाहता होगा तो शीतल जल से भरा मटका भी मेरे गले को तृप्त करने से पहले टूट ही जावेगा! फिर क्यूँ व्यर्थ ही गला फाड़ना?
चुप-चाप मैं अपने बोरे पर पड़ा रहता हूँ दिन भर! पंछियों के कलरव के साथ ज्यों ही भगवान के भक्तों का आवागमन प्रारंभ होता है, त्यों ही मेरे अगल-बगल बैठे मेरे भाई बंधु अपनी दया की याचना का आलाप शुरू कर देते हैं और काफ़ी देर तक अधीर नज़रों से हर एक आगंतुक का ध्यान अपनी बेचारगी पर खींचने की मेहनत करते हैं! इन मूर्खों को ना जाने इतनी शक्ति कहाँ से आती है खाली पेट?
मुझे देखो! ना ज़ुबान हिलाता हूँ और ना दृष्टि...बस आँखें मून्दे पड़ा रहता हूँ और इन लोगों से अधिक दया बटोर लेता हूँ| परंतु ऐसा बिल्कुल नहीं है की मैं आलसी या काहिल हूँ! कितनी मेहनत से मैं अपने चेहरे पर दर्द भरे भाव लिए आँख मून्दे बीमारी का नाटक खेलता हूँ! इतना ही काफ़ी नहीं...पिछ्ले इतवार मंदिर की सीढ़ियों के किनारे से मेरे चर्म रोग से सड़ते हुए दाहिने पैर में जो चोट लगी थी, उसकी भी तो नुमाइश करता हूँ! घाव पर मक्खियों ने तांडव मचा रखा है, पर मज़ाल जो मैं कभी उन्हें उड़ा दूँ? अरे भाई हाथ हिलाने से क्या हासिल होगा जब उसी के संक्रमण से बढ़ते इस घाव की किस्मत से मुझे दया स्वरूप दो वक़्त की रोटी नसीब हो जाती है?
रोज़ की तरह आज भी मेरे हिस्से उन भिखारियों से अधिक सिक्के और भोजन आया है| निश्चय ही वे सब मेरी संपन्नता देख के जलते होंगे...! आज तो रात तक के भोजन का इंतेज़ाम हो गया! अब कुछ देर चैन की नींद सोने की सोच रहा हूँ, पर कम्बख़्त इन भिखारियों के कर्कश स्वर विघ्न बने हुए हैं! ....खैर अब इतना क्या सोचना? यदि नसीब में सुकून भरी नींद लिखी होगी तो खुले नेत्रों से भी असीम निद्रा पूरी हो जावेगी|
मैं कितनी देर से स्वप्न-लोक में भ्रमण कर रहा था ये तो ग्यात नहीं लेकिन ज्यों ही निद्रा टूटी, मंदिर की आबो हवा पर ध्यान गया- सुगंधित हवा और लोगों की चहलकदमी भी आज कुछ अधिक है, लगता है आज कोई पर्व है! आज तो दावत का दिन है; मेरे भिखारी बंधुओं को भी आज दया याचिका नहीं करनी पड़ेगी! आज तो बल्कि भोजन में कई विकल्प भी मिल रहे हैं- बूँदी के लड्डू, पूरी-कचोड़ी, खीर, इत्यादि| आज लग रहा है की वाकई अपने नाम को जीने का एक अवसर मिला है..."राजकुमार" ! अहा! कितना सुख भरा है ये एहसास! ना हाथ हिलाना, ना ज़ुबान! यहाँ तक की दिमाग़ भी चलाने की कोई आवश्यकता नहीं! ना जाने क्यूँ मेरे भिक्षुक भाई आज भी मेहनत कर रहे हैं? शायद उनकी आदत ही खराब है! बार-बार जब भी कोई सज्जन उनके कटोरे मे कुछ दान करता, वे हाथ उठा कर..ज़ुबान हिला कर उन्हें दुआ देते जाते हैं-" भगवान तुम्हे सुखी रखे बच्चा!"...अब उन्हें ये कौन समझाए की भगवान तो उन्हें सुख -समृद्धि दे ही रहा है तभी तो वे वहाँ और हम यहाँ हैं...! बेफ़िज़ूल की ज़ुबान और हाथ की कसरत से ख़ुद को क्यूँ कष्ट देना भला?
अब देखिए ना !क्षण भर पहले का व्यंग एक स्त्री हाथ मे प्रसाद की पूरी और हलवा लिए मेरी ओर ही चली आ रही थी...मुझे देने के अभिप्राय से उसने कदम आगे तो बढ़ाऐ पर मेरे मैले वस्त्रों और घाव से उठती तीव्र दुर्गंध से शायद वो वहीं रुक गयी और बड़े प्रयत्न से उसने मेरे जितने पास हो सकता था उतने पास वो दोना रखा और चली गई... अन्याय तो देखिए! मेरे पेट मे भूख की ज्वाला धधक रही है और भोजन है पूरे एक बालिश्त की दूरी पर! मेरी किस्मत मुझ तक आते-आते रह गयी! अब कौन ज़हमत करके उठ बैठे और बालिश्त भर दूरी के लिए हाथ बढ़ाऐ ?...नहीं! नहीं! मैं आलसी नहीं हूँ! वो निवाला किसी और का ही होगा तभी तो मेरे तक ना पहुँचा!
और देखो ना मैंने सही ही सोचा था! मेरे सामने वाला वो लँगड़ा भिखारी लँगड़ाते हुए आगे बढ़ा और लपक कर वो दोना हाथ में लेकर अपनी दावत के मज़े लेने लगा|
मुझमे धैर्य की कमी नहीं है...मैं इंतेज़ार कर लूँगा पर हाथ ना फैलाऊँगा!
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काफ़ी समय बीत गया है पर रोज़ के दिन और रातें एक समान....बदला है तो सिर्फ़ मौसम| दिसंबर की एक सर्द सुबह है आज सूर्यदेव पिछ्ले कई रोज़ से रूठे ही बैठे हैं| इस बोरे से काम नहीं बनता अब तो; कुछ ओढ़ने को मिल जाता तो ठिठुरन कुछ कम होती| सुना है आज कोई सज्जन मंदिर में ग़रीबों को कंबल बँटवा रहे हैं| मंदिर की सीढ़ियों से उतरते हुए वे दायें-बायें बैठे भिखारियों को भी कंबल दान मे दे रहे हैं!
काश मैं आज सीढ़ियों से उठकर चार कदम की दूरी पर बने इस चबूतरे पर ना आया होता तो मेरा भी कुछ भला हो जाता! अब यहाँ अपने बोरे पर ठिठुरता हुआ सा पड़ा हूँ, यदि सर्दी से बचना होगा तो ख़ुद उस सज्जन की नज़र मुझ पर पड़ेगी और एक कंबल मुझे भी ओढ़ा दिया जाएगा वरना तो पंक्ति में भी शामिल होने पर मेरे बारी आते-आते कंबल कम ही पड़ जाऐंगे! अब देखो ना ...वो काना छगन और मरियल रघु भी तो मायूसी भरे चेहरे लिए रह गये खाली हाथ! उन्हें भी कंबल ना मिल पाया| लगता है उनकी और मेरी किस्मत एक ही स्याही से लिखी गयी है, वो भी आज मेरी तरह शीत से झगड़ते हुए रात बितावेंगे|
भूखे- प्यासे पड़े-पड़े सुबह से शाम हो गयी है और सड़कों पर भी अब सन्नाटा होने लगा है|
ठंड बढ़ती जा रही है और सर्दी इतनी लग रही है की भूख-प्यास कुछ महसूस नहीं हो रही अब तो| ज़िंदा रहने की आस में मेरी नज़रें आस-पास तेज़ी से भ्रमण कर रही है...कुछ ऐसा ढूँढने के लिए जो मैं ओढ़ सकूँ!
"अहा!" ये क्या है? नीला-नीला?
आँखों पर ज़रा ज़ोर डाला तो देखा मंदिर के बाहर फूलों की दुकान लगाने वाले ने अपने ठेले पर बिछने वाली उस नीली पॉलीथीन को नीचे फेंक दिया है...शायद कहीं से फटी होगी|
उसका नीला रंग इतना लुभावना है की उसे ओढ़ूँ तो ऐसा लगेगा मानो अंबर ही ओढ़ लिया हो!
वो पॉलीथीन इतनी तो बड़ी होगी की मुझे पूरा ढक ले?...मैं अपने बोरे पर बैठे उसे नज़रों से नाप-तोल रहा हूँ!
क्या फायदा ? इतनी दूर इस ठंड में उठ के जाऊँ और फिर वो पॉलीथीन किसी काम की ही ना निकले?
व्यर्थ मे बर्बाद क्यूँ करूँ अपनी बची-खुची उर्जा को?
...वैसे पॉलीथीन है तो बड़ी, और उसके नीचे छुप के हवा भी ना..........................
अरे! ये क्या! वो नीले अंबर सी पॉलीथीन ज़मीन से उठकर चार हाथों में आ गयी?
अरे ये हाथ तो छगन और रघु के हैं; जो गर्व की मुस्कान लिए बड़े मेल से उस पॉलीथीन को लेकर ज़मीन पर लेट गये हैं और उसको ओढकर सोने जा रहे हैं|
हाय मेरी किस्मत! आज तो निश्चित ही यमलोक से बुलावा आ जावेगा मेरा! रात गहराती जा रही है और आस-पास जलते सभी अलाव भी ठंडे होने लगे हैं| कौन जाने की अब नींद आएगी या सीधे मौत?
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सुबह हो गयी है शायद! मेरी नींद तो खुल गयी पर मेरी आँखें नहीं खुल रहीं| मेरे कानो में कुछ शोर सा सुनाई दे रहा है| ऐसा लग रहा है जैसे कोई भीड़ मेरे पास उमड़ आई हो! शरीर की चेतना तो जैसे शून्य हो गयी है| हाथ-पैर तक नहीं हिल रहे मेरे| सर्दी से जकड़ गये हैं| लोगों के चर्चा का विषय क्या है ये मुझे साफ़ सुनाई नहीं दे रहा| मेरे सोचने समझने और महसूस करने की शक्ति विलुप्त होती जा रही है| किसी ने मुझे हाथ लगाया बस इससे अधिक और कुछ नहीं ज्ञात हुआ मेरी इंद्रियों को और इस शोर-गुल के बीच भी मेरी आँखों के सामने छा गया है एक गहरा काला सन्नाटा!
काफ़ी देर की बेहोशी के बाद जब मैं होश मे आया तो अपने नीचे जो महसूस हुआ वो ना तो ज़मीन जैसा था और ना ही मेरे उस बोरे जैसा! कुछ खुरदुरा-सा था| हाथ पैर अभी भी नहीं चल रहे और आँखें अब भी नहीं खुल रही पर हृदय की रुकी-सी धड़कन ने अब कुछ गति पकड़ी है| मैं शायद एक मौसम से ही बेहोश पड़ा था; क्यूँकि अब जो मुझे महसूस हो रहा है वो ग्रीष्म ऋतु का प्रचंड रूप है|
मेरे कानो में पड़ रहे स्वर भी अब मुझे साफ़ सुनाई दे रहे हैं-
" मनुष्य का जीवन तो नश्वर है| परंतु आत्मा अमर है! भगवान इसकी आत्मा को शांति दे!"
मैं चौंक पड़ा!! मुझे अब जाकर ज्ञात हुआ की मैं अपनी ही चिता पर जीवित पड़ा हूँ| पर हाथ-पैर हिलने की शक्ति अब मुझमे ना थी| हाँ जिह्वा कुछ साथ दे सकती थी! पर सारी इच्छायें तो विलीन ही है| अब कौन बचाए इस नश्वर शरीर को? कौन मौका दे अपने आप को इस नष्ट जीवन को पुनः जीने का? यदि मरना ना होता तो आज यूँ चिता पर ना होता! क्या करूँगा इस अध-जले बदन का? अब तो ये और कष्ट ही देगा! क्या पता इस नश्वर जीवन को दान कर अगले जन्म में असली "राजकुमार" बन ही जाऊँ? फिर तो हाथ भी ना हिलाना होगा और सारी इच्छायें स्वतः ही पूरी हो जाया करेंगी!
अपने को बचाने का प्रयत्न कर तो सकता था यदि चाहता! खैर जाने दो! वक़्त पूरा ही हो गया होगा तब तो शमशान तक आ पहुँचा हूँ?
व्यंग तो देखिए- इस अंतिम छण मेरी आँखें आख़िर खुल ही गयी- और क्या देखने को?- अपना अंत!!
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