शनिवार का दिन
शनिवार का दिन
हर नौकरी करने वाले कि तरह, शनिवार आते ही नाथ को कुछ विचित्र करने का भूत सवार हुआ। वो समय को यूं ही जाया करना नही चाहता था। पर सवाल था कि करे तो क्या। पड़ोस में उसकी किसी से बोलचाल थी नही। जो इक्के दुक्के आँफिस के जानने वाले थे, उनसे 'प्रोफेशनलिज्म' के नियमित ढांचे से बाहर निकलकर कोई बात करना संभव नही था।
हमेशा की तरह कुछ न सूझने पर नाथ ने मोबाइल के जरिए इंटरनेट की दुनिया में प्रवेश कर लिया। कितना आसान था ये। पता का नाम टाइप करो और आँख मीचते ही जगह पे हाज़िर। न समय की बर्बादी, न किसी से पूछना, न ट्राफिक का चिड़चिड़ापन और न किसी हड़ताल का डर। एक दुनिया जहाँ आप अपनी सारी उलझनों और नीरसता से दूर कुछ समय के लिए दर्शक और विश्लेषक बन जाते है। जहां हर दुकानदार आपको विशेष सम्मान दे, आपसे समय और ध्यान की गुज़ारिश कर रहा है। नाथ कुछ नए की तलाश में था, कुछ ऐसा जिसे देख रोंगटे खड़े हो जाए। न्यूज देखा जा सकता है पर वहां भी वही घिसी पिटी ख़बरे। रोज़ मोदी, गांधी, बॉलीवुड कलाकारों के टूटते बनते रिश्ते और शेयर बाजार की ख़बरे पढ़ वो ऊब चुका था। वैसे तो उसका पसंदीदा पता क्रिकेट-स्कोर वेबसाइट था। पर आज कोई मैच न होने पर वो जगह भी चुनाव में परास्त हुए दल के कार्यालय की तरह सुनसान और बियावान थी।
काफी देर यूँ ही उलझे रहने के बाद विचार आया मूवी देखने का। ऐसा जान पड़ता था जैसे काफी अर्से हो गए कोई पिक्चर देखे। बस फिर क्या, गूगल में मुफ्त-मूवी-अड्डा टाइप कर पहुंच गया सिनेमा के पते पर। शुरुआत की प्रेम कहानी से। कॉलेज की पृष्ठभूमि थी। हीरो और हीरोइन में पहले तकरार हुआ जो दो गानों के पश्चात प्रेम में तब्दील हो गया। परिवार वालो के विरोध करने पर जोड़ी ने अपने पवित्र प्रेम की कसमे खा कर भाग के शादी करने की ठान ली। ड्रामा से भरपूर पिक्चर नाथ को खूब पसंद आई। वह सोचने लगा कि हीरोइन दिखने में तो सुंदर थी पर अभिनय में कच्ची पड़ गई। नाथ बिना भागीदारी के बस दूर से ही चीज़ों का विश्लेषण करने की इस चर्या में आनंद की अनुभूति महसूस कर रहा था।
कुछ देर यू ही विचार कर नाथ ने अगली मूवी चला दी। अभिनेता अपनी विधवा माँ से मिलने के लिए विदेश में नौकरी से छुट्टी लेकर गाँव लौटता है। गाँव की जर्जर हालत को देख उसकी चेतना जाग उठती है और उसे देश के प्रति अपना कर्तव्य याद आता है। जोश और दृढ निश्चय के साथ अभिनेता वहाँ की सारी दिक्कतों- पानी, बिजली, पढ़ाई, इत्यादि का हल निकाल देहात का नक्शा बदल देता है।
नाथ ये कहानी देख भौचक्का हो गया। क्या ऐसा भी होता है । मैं यहां पड़े हुए बिस्तर तोड़ रहा हूँ और लोग पता नही क्या क्या कारनामे कर रहे है। कुछ पलों के लिए ही सही, उसमे भी कुछ कर गुजरने की उमंग जाग उठी।
अपने आलस्य को कबूल कर नाथ मुख्यधारा सिनेमा से हट वास्तविक अथवा आर्ट फ़िल्मो की ओर रुख करता हूँ। एक शादीशुदा जोड़ा जिसके दो छोटे बच्चे है। पति काम मे और पत्नी घर में व्यस्त रहती है। कहानी में मोड़ आता है जब पति की कंपनी बंद हो जाती है और उसे नौकरी के लिए दर दर की ठोकर खाना पड़ता है। पति अपनी कुंठा और निराशा दारू के नशे में धुत्त हो कर पत्नी को मार के व्यक्त करता है। अपने जीवन से उदासीन पत्नी की मुलाकात पड़ोस में नौजवां युवक से होती है। वो उसकी पनाह में खुद को सुरक्षित और महफूज़ पाती है। औरत अपने पति और बच्चों को छोड़ युवक के साथ घर बसा लेती है।
नाथ को औरत की हालत पर तरस आता है और पति पे बेहद गुस्सा। कोई इतना बेबस कैसे हो सकता है की अपने पौरुष का प्रदर्शन करने का एकमात्र ज़रिया औरत पे हाथ उठाना बचा हो। माना पति परेशान था पत्नी की पीड़ा देने वाली निरंतर टिका टिप्पणी से, लेकिन हिंसा तो कोई हल नही। नाथ फिर पत्नी के स्वभाव पे विचार करने लगा। क्या औरतों की मानसिकता बड़ी होने पर भी बच्चों जैसी होती है? जिस मर्द ने दो तीन प्यार भरे अल्फ़ाज़ क्या कह दिए, उसे के साथ हो ली।
इन फ़िल्मो को देख नाथ को समाज की विचित्रता का आभास हुआ। कितने प्रकार के लोग और कितनी बड़ी ये दुनिया। कभी इधर से उधर और तो कही उधर से इधर। हर व्यक्ति का था नज़रिया अलग, जो समय और स्थान के साथ परिवर्तित होता रहता। सभी के मापदंड का विश्लेषण कर उनपे ख़रा उतरना मुमकिन न था। उनसे जूझना और भी बड़ी मूर्खता। नाथ अपने दिमागी पिंजरे से निकल आकाश की ओर देखने लगा। शाम की लालिमा बहुत सुंदर जान पड़ती थी। सूरज को अपनी आंखों से ओझल होते देख, वो पश्चिम की ओर तेज़ी से चलने लगा जैसे कि डूबते हुए सूरज को पकड़ लेगा। अपनी इस नादान हरकत को देख उसे हंसी आ गयी। क्या सूरज को आज तक किसी ने काबू में किया है।