Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

सुहाग

सुहाग

10 mins
727


भंवरी के दरवाजे पर दस्तक हुई है। जेठ की दुपहिया में इस वक्त कौन आया होगा ? घर में इतनी चहल पहल है, आसानी से दस्तक सुनना तो नामुमकिन ही था। दो बेटी, दो जमाई, बहू सभी का डेरा गर्मी की छुट्टियों में घर पर ही लगा है। हर तरफ किलकारियाँ कहीं बच्चों की, कहीं बड़ों की उसमें दरवाजे की दस्तक। बाहर वाले कमरे में बैठी भंवरी के कानों में दरवाजे की आवाज पड़ी, भंवरी ने सुनते ही अपनी छोटी बेटी नंदिनी से कहा

" जरा दरवाजा खोल कर देख तो सही, मुझे आवाज आ रही है, शायद कोई दरवाजे पर है।"

नंदिनी दरवाजा तो खोल चुकी थी लेकिन पहचान नहीं पाई। आगे के टूटे हुए दो दाँत, टैरीकोट की एक धोती, उसके ऊपर कमीज पूरी बाजू की और हाथ में छोटा सा थैला, मुस्कुराता हुआ चेहरा। निंदनी उसे देख ही रही थी कि उसने पूछा

" भंवरी अंदर है क्या ?"

"हाँ माँ ! अंदर ही है।"

नंदनी ने दरवाजा हल्का सा खोलते हुए कहा

" माँ देखो कोई आया है।"

इससे पहले भंवरी बाहर आती। वो अंदर पहुँच चुकी थी।

" अरे, सुखिया! कैसी है ? बड़े सालों बाद आई।"

"हाँ बहू! आना ही नहीं हो पाता, जब से अल्मोड़ा रहने लगी हूँ। आज डॉक्टर के यहाँ दिखाने आई थी। सोचा, तुझसे भी मिलती चलूँ। लड़के का ब्याह कर लिया क्या?"

" हाँ सुखिया! दोनों लड़कियों का और एक लड़के का ब्याह कर लिया। अब छोटा रह रहा है। बस मेरी जिम्मेदारी तो खत्म सी ही है।"

" हाँ, बड़े लड़के के ब्याह में आ ना पाई मैं। तुम कार्ड देने तो आई थीं , छोरा ने बताया। मैं थी ना घर पर उस समय और बहू कैसी है? "

भंवरी ने अंदर बहू को अवाज लगाई

," राधिका। "

राधिका को परिचय देते हुए भंवरी ने कहा,

" ये बुआ जी हैं।"

पैर छूने के लिए राधिका झुकी ही थी, सुखिया ने रोकते हुए कहा

," ना, ना हमें पाप चढाओगे ?पंडितों से हम पैर ना छुआते।"

"इसमें क्या बुराई है, सुखिया। बड़ी हो, आशीर्वाद तो दे सकती हो।"

भंवरी ने दिखावी ताना मारते हुए कहा।

"ना बहू, पाप चढ़े एसे। तू क्या जाने।"

बहू के चेहरे पर दुलार से हाथ फेरते हुए सुखिया ने कहा,

" बहुत प्यारी है। दादी होती, कितनी खुश होती अपनी पोत बहू को देखकर।"

दादी की बहुत प्यारी रही थी, सुखिया। दादी को हमेशा चरित्रवान लोगों से बहुत प्यार था। हो भी क्यों ना? जवानी में विधवा हुई दादी की पूरे गाँव में मिसाल दी जाती थी। मजाल है, जो कहीं कोई, खड़ी हुई बता दे। चरित्र में तो कोई, बराबरी नहीं कर सकता था दादी की। दादी का बहुत स्नेह रहता था सुखिया पर। कहीं ना कहीं वो खुद को देखती थी सुखिया में।

जब भंवरी शादी हो कर आई थी, घर का काम भी ठीक से नहीं कर पाती थी। बड़े साहूकार की बेटी थी। कभी गाय भैंस का काम किया नहीं। सरकारी नौकरी के चलते साहूकार जी ने दादी के बेटे से भंवरी का रिश्ता तय कर दिया। फिर वही, ससुराल में तालमेल बिठाने की हर स्त्री की व्यथा, और भंवरी के साथ तो कुछ ज्यादा ही थी, शहर से आ, गांव के माहौल में घुल मिल जाना मुश्किल ही था। वह भी इंटर पास लड़की।

दादी ने सुखिया से कह रखा था

," घर आ जाया करो, मदद कराने, भंवरी काम नहीं कर पाती है।"

भंवरी भी इसीलिए आजतक सुखिया को नहीं भूली। हर काम, एक बड़ी बहन की तरह ही सुखिया ने सिखाया था, भंवरी को।

सुखिया के लिए आदर सत्कार बढ़ा ना होता अगर उस दिन सब कुछ अपनी आँखों से न देखा होता। जब चौधरी ने भरी पंचायत में गंगा (सुखिया के पति) को कर्जा ना देने पर डंडों से पिटवाया था और सुखिया जाकर उसके ऊपर लेट गई थी

।" चौधरी तुम्हारी एक एक पाई चुका दूँगी, इसे न मारो।"

न जाने क्यों सुखिया को ऐसे पति से प्यार था? जो दिन भर चौपाल पर बैठकर या तो ताश खेलता या मुफ़्त की दारू पीने के लिए ही तैयार रहता। हाथ उठाना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। क्यों सुखिया इस रिश्ते को ढो रही थी ? भंवरी, समझ कर भी नहीं समझ पाती । प्रेम के बदले प्रेम मिलते तो देखा था लेकिन अपमान और पिटने के बाद कोई किसी को प्रेम करे भंवरी ने पहली बार ही देखा था।

चाहे जो हो, सुहाग की निशानी सिंदूर और बिंदी कभी उतरते ना देखा था, सुखिया के माथे से। जब एक बार भंवरी, बिना माथे पर बिंदी सजाए, दादी और सुखिया के सामने आ गई, दादी संकोचवश कुछ कह ना पाई , पर सुखिया उनका बायाँ हाथ थी, बिना बोले ही समझती थी।

" बहुरिया, बिंदिया सुहाग भाग की निशानी होती है। इससे पति की उम्र बढ़ती है। लगता है, लगाना भूल गई हो?"

भंवरी से रहा न गया, एक दिन अकेले जानकर सुखिया से पूछ ही लिया

," जब इतना मारता पीटता है। इतना नशा करता है। छोड़ क्यों नहीं देती ? क्या पूरे दिन सुहाग भाग लगाए रखती हो। ऐसे पति का क्या लाभ ? जो खुद की कमाई भी छीन कर ले जाता हो।"

"बहुरिया, तुम बड़ी नादान हो। तुम क्या जानो। पति सर पर ना हो तो कितने दावेदार आ जाते हैं उसकी जगह लेने। चरित्र ही कमाया है मैंने। वह बना रहे। इसमें कोई बुराई नहीं और मैं ऐसे ही, जिंदगी भर उसकी निशानी अपने माथे पर सजाती रहूँ। मेरे लिए यही काफी है।सूनी सार से तो मरखना बैल ज्यादा अच्छा।"

भंवरी में शब्दों को समझने की बुद्धि ना थी। अल्लड उम्र, पिता का प्रेम और उसके बाद दादी की सारी जमीदारी की इकलौती वारिस।

काला, बदसूरत सा इंसान, जब एक दिन घर आया। तब घृणित तो दिखता ही था, हैवानियत उसके चेहरे से झलकती थी। चेहरे से ज्यादा, उसके चरित्र को देखकर, गुस्सा आया था भंवरी को, जब भंवरी को सुखिया बड़ी तोड़ना सिखा रही थी।

चिल्लाते हुए कहा,

" कलेऊ ना बनाकर आ सकती थी। कछु बनाई नहीं हमारे खाने खातिर। खुद तो यहाँ पड़ी रहती है, पूरा दिन। हमारी कौनौ चिंता ही नहीं है। हरामखोर हो गई है। ऊँची ऊँची आवाजों में न जाने कैसी गंदी गंदी गाली दिए जा रहा था। वो भी दादी के घर आकर।"

सुखिया हाथ जोड़ रही थी ,

" चुप हो जा, भगवान के लिए। दादी सुन लेगी।"

दादी का खूब दबदबा था गाँव भर में। रौबदार व्यक्तित्व था उनका, जिसका डर था वही हुआ, पानदानी में से पाँन चबाती हुई दादी बाहर निकल आई,

" क्या है रे, कल्लू! काहे चिल्ला रहा है ?अगर ज्यादा चिल्लम चली मचाई ना, तो मुझसे बुरा ना होगा। ये कोई तेरे बाप का घर है? सुखिया तुझे झेल रही है ऊ कोई कम बड़ी बात नहीं। खबरदार जो अपने मुँह से एक शब्द निकाला तो। जवान कटवाके हाथ में दे दूँगी।"

कल्लू अपने कान भी ना फडका पाया था, दादी के सामने, दाँत पीसता हुआ घर से बाहर निकल गया लेकिन दादी ने कड़ी नजर से, सुखिया की तरफ देखा, नजरों की बात थी, जिसे सुखिया भी समझती थी, आज के बाद घर नहीं आना चाहिए।

एक रात आठ बजे दादी के कमरे से जोर-जोर से रोने की आवाज भंवरी के कमरे में पहुँची।

"सुखिया"

जोर-जोर से रो रही थी। दादी उसे चुप करा रही थी,

" चला गया, तो चला जाने दे। क्यों उसके पीछे मरी जीती है। ऐसे मर्द का कोई फायदा नहीं। मरने दे उसे। आराम से मौज की जिंदगी जी, तेरे दो बच्चे हैं उनको देख। अभी तक तो उस भड़वे का भी पेट पालना पड़ता था तुझे। कमाता धमाका तो कुछ था नहीं और चिंता ना कर।"

दादी ने खूब लाड से पुचकारा , जैसे कोई अपनी ही बेटी को समझा रहा हो। भंवरी ने इतना स्नेह अपनी सास का कभी नहीं देखा था। हमेशा कठोर ही समझती थी। दोनों बच्चे वहीं फर्श पर सोए थे। लगता था, अपना घर छोड़ आई है फिर, इतनी रात को दादी ने मना कर दिया। कल सुबह चली जाना। सुबह तक यहीं आराम कर। सुखिया बिचारी दादी के पास पड़ी रही, और कोई सहारा भी तो नहीं था।

सुहाग भी छोड़ के चला गया। और छोड़ गया मोटा कर्ज। अब यही सुखिया का जीवन था। रात दिन कमाकर अपने आदमी का कर्ज चुकाना। सुबह होते ही सुखिया अपने घर चली गई।

भंवरी से रहा न गया, आज तो अम्मा जी से पूछ लिया जाए कि कहानी क्या है ? आज अम्मा जी थोड़े मुड़ में भी थीं। बैठ गई

"अम्मा जी! ये सुखिया, उसे लेकर इतना दुखी क्यों रहती है ?अच्छा ही है ना, चला गया। सन्यासी हो गया। जिनसे कमाया नहीं जाता, सन्यासी ही हो जाते हैं। मुफ्त की रोटियाँ ही तो तोड़ता था।"

" तू ना समझेगी। सुखिया की माँ ने कभी किसी प्रेम किया था। उसीके प्रेम की निशानी है, "सुखिया" और बाद में बिना ब्याह किए, छोड़कर चला गया। जिंदगी भर सुखिया की माँ ने ताने खाए। बिना पिता की औलाद कैसी होती है। दर्द देखा है उसने। हमेशा अपनी माँ की सुनी माँग ही देखी। आगे भले ही कोई ना कहता था, लेकिन पीछे तो सब नाजायज ही ठहराते थे। आदमी के ना होने पर जो दुर्गति होती है, उससे धसका बैठ गया। अब यही सोच पाल रखी है, बाबरी ने, आदमी है तो इज्जत है। इसीलिए, इतने साल से झेले जा रही है, यही कहकर, इसका नाम जोड़ा है मेरे साथ। बिना नाम के जीवन कैसा होता है ? मैं जानती हूँ।"

नंदिनी के लाए गए चाय के गिलास ने, भंवरी की चुप्पी तोड़ दी

" माँ" चाय ।"

भंवरी ने सुखिया की तरफ देखा, वो अभी भी राधिका के हाथ पुचकार रही थी। समय कितनी जल्दी बीत जाता है, जैसे कल ही की बात थी। भंवरी ब्याह होकर आई थी, सुखिया अनुभव में भले ही बड़ी थी, दो बच्चों की माँ थी, पर उम्र कोई ज्यादा ना थी, उसकी भंवरी से। आवश्यकता उम्र से पहले बड़ा बना देती है।

सुखिया ने अपना थैला टटोला, उसमें से एक छोटा सा बटुवा निकालकर पचास का नोट निकाला।

भंवरी ने चाय का गिलास रखते हुए कहा

" क्या कर रही हो ?" सुखिया" आशीर्वाद ही बहुत है। पैसों की जरूरत नहीं है।"

"अरे! तुम क्या समझती हो ? पहली बार मिली हूँ तो बहू को कुछ मुँह दिखाई ना दूँगी।"

" तू अपनी दवाई लेने आई है। क्यों इतना पैसा खर्च कर रही है। ₹1 दे दे ना।"

" देख, भरा पड़ा है मेरा बटुआ नोटों से।" अपने बटुए को आगे करते हुए भंवरी से सुखिया ने कहा।

"तेरे खाने-कमाने का भी तो कुछ साधन नहीं है। क्यों इतने पैसे लुटाती फिरती है? बुढ़ापे में बेलदारी थोड़ी करती फिरेगी।"

"ये मेरी कुछ नहीं लगती?"

सुखिया ने बनावटी गुस्सा दिखाते हुए कहा

।" तू चिंता ना कर, सिरकार ने सब इंतजाम कर रखा है। सात सौ पचास रुपए वृद्ध पेंशन मिलती है। मैं तो झोली फैलाती हूँ और भर कर ले आती हूँ। अब इस उम्र में, कौन ? मेरे बारे में सोच रहा है।"

भंवरी को संतुष्टि थी, सुखिया की खुशी को देखकर, एक बार को सरकार का भी धन्यवाद करने का दिल किया था। अभी तो न जाने छोटे से थैले में से क्या-क्या निकालना बाकी था ? आधा किलो पेठे की मिठाई, निकाल सुखिया ने भंवरी के हाथ पर रख दी।

" इसकी क्या जरूरत थी ? "सुखिया "।

"क्यों ? जरूरत क्यों नहीं थी ? इतने दिन के बाद आई हूँ। बालकों के लिए कुछ तो लाती।"

कौन कह देगा कि सुखिया नीच जात है, मान सम्मान सबका सत्कार प्रेम कूट कूट कर भरा है, ईश्वर ने उसमें। और सबसे ज्यादा तो विश्वास, अबकी बार एक डिबिया निकाली।

"ले, रख ले। अपने पास। कालकाजी गई थी, वहीं का सिंदूर है। बहुरिया के लगा दीयो, अपनी माँग में भी सजा लिया।"

"कल्लू की कोई खबर ना है।"

भंवरी ने मायूसी के साथ पूछा।

सवाल को टालते हुए इधर-उधर नजर दौड़ाती सुखिया ने कहा,

" डॉक्टर, आ गया होगा। तीन बजे बैठ जाता है। जल्दी नंबर लगाना जरूरी है। फिर, टेंपु मिले ना मिले। सांझ हो जाएगी घर तक पहुँचते-पहुँचते।"

जल्दी-जल्दी में थोड़ी बहुत चाय पी। सुखिया खड़ी हो गई।

एक अजीब सा रिश्ता और बंधन, भंवरी का, अपनी सास की तरह, सुखिया से आज भी था। भंवरी कब उठ कर, उसके साथ उसे छोड़ने द्वार तक चली गई पता ही ना चला। भंवरी की नजर एकटक टिकी हुई थी सुखिया के चेहरे पर। बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ, सुखिया ने पूछा,

" क्या देख रही है सिंदूर?"

भंवरी ने कुछ जवाब नहीं दिया। बस हल्का सा मुस्कुराई।

" ये तो मेरे साथ ही जाएगा। सुहागन ही मरूँगी। लोकेश (प्रधान का बेटा )बता रहा था, दिल्ली स्टेशन पर कोई कल्लू जैसा देखा था उसने।"

भंवरी की आंखें नम थी।

" तू काहे रोती है, पगली! सुहाग की निशानी साथ लेकर जाऊँगी।"


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama