और हाँ ! मैंने उस शाम ख़ुद को बेचा
और हाँ ! मैंने उस शाम ख़ुद को बेचा
अरविंद गौड़ मेरे उन दोस्तों में हैं जो मेरे हर पागलपन को बर्दाश्त करते हैं। एक दिन अचानक उसके यहाँ रिहर्सल में बैठे-बैठे मैंने कहा– अरविंद मुझे रेड लाइट एरिया जाना है।
गुस्से से मुझे देखते हुऐ अरविंद बोले- पागल हो गई हो? रिहर्सल देखो।
मैंने फिर ज़िद करते हुऐ कहा– नहीं, मुझे जाना है।
अच्छा अभी चुपचाप बैठो।
नहीं, मैं कह रही हूँ ना, मुझे ले चलो।
अरे, खीझते हुऐ बोले– क्या पागलपन है, मैं क्यों तुम्हें वहाँ ले जाऊँ ? अचानक तुम्हें यह ख़याल कहाँ से आया?
बस ऐसे ही, मुझे जाना है।
अच्छा ले चलेंगे। अभी चाय पीयो।
थोड़ी देर बाद वह डाँटते हुऐ बोले – “दिमाग ख़राब है तुम्हारा। रिहर्सल में सबके सामने मुझसे कहती हो कि तुम्हें रेड लाइट एरिया ले चलूँ ? क्या हो जाता है तुम्हें अचानक?
नहीं बस ऐसे ही। मुझे जाना है। मुझे एक दिन उनकी ज़िंदगी जी कर देखनी है। आपको नहीं जाना तो मुझे रास्ता और पता बता दो।
अरे कह रहा हूँ न, यह पागलपन नहीं करना कभी।
अरे क्या हो जाऐगा । जाने दो ना। हम अभिनेताओं को हर तरह का अनुभव होना चाहिए। तभी तो उस किरदार को पूरी शिद्दत से जी पाऊँगी।
अभी नहीं कर रही हो ना तुम वो करैक्टर। बंद करो बकवास।
अरे, इसमें बुरा क्या है? आप क्यों इतना मना कर रहे हो? मैं तो जाऊँगी ज़रूर। चाहे जो हो जाऐ । आप नहीं बताओगे तो किसी और से पूछ लूँगी।
सर पिटते हुऐ अरविंद बोले- तुम बिलकुल पागल हो गई हो।
जीबी रोड, श्रद्धानंद मार्ग, नई दिल्ली।
डर और झिझक के साथ एक दिन मैं चल पड़ी। शाम का समय था। सर पर दुपट्टे को पूरी तरह कस कर बाँध रखा था। घबराई हुई बहुत थी, लेकिन पता नहीं क्या था उस दिन, सोच कर गई थी कि आज पूरी तरह जी कर देखूँगी वेश्याओं की ज़िंदगी । कहीं न कहीं मन में रोष भी था। समाज के बुने गऐ इस ताने-बाने को लेकर जो एक ख़ास तरह की महिलाओं के प्रति अपनाकर रखता है। भारत आज़ाद हुआ। इन्हें आज़ादी नहीं मिली। प्यार का अजीब कारोबार, अजीब तिजारत है। यहाँ औरतें लाखों टूटे दिलों को प्यार देती हैं और ख़ुद प्यासी रह जाती हैं। दूसरों के दिलों को मरहम लगाती हैं और बदले में सुनती हैं गाली, झेलती हैं अपमान और जलालत... न पिता का नाम, न पति का और न ही उनके बच्चे के पिता का नाम... हाँ , उनके बच्चों का नाम जरूर होता है– हरामी।
चली तो जाती हूँ बेबाक़ पर जैसे ही उस जगह पहुँची कदम ठिठक गऐ । क्या कर रही हूँ - सही या गलत? कुछ हो गया तो किसी को बता भी नहीं सकती।
धडकन बढ़ गई थी। लोग बाग अजीब सी नज़रों से घूर रहे थे। गोश्तखोरों को जैसे एक नया ताजा माल मिल गया है। क्या हैं? कहाँ से आई? कौन हो? कितने सवाल?
और उस वक़्त जो मुँह में आ रहा था बके जा रही थी।
मैंने कहा- बंगाल से आई हूँ । स्टेशन पर मेरा सब सामान चोरी हो गया। मेरे पास कुछ भी नहीं, कहाँ जाऊँ ... पता नहीं, लोग सब मुझे जैसे खा जाऐंगे । बहुत डर लग रहा है। किसी से पूछा तो यहाँ का पता बता दिया। कहा कि यहाँ भटकी हुई औरतों को सहारा मिलता है।
ऐसे तुम यहाँ किसी से नहीं मिल सकती पता है, यह क्या है। यह बदनाम औरतों का इलाक़ा है। रेड लाइट एरिया है।
मुझे लगा शायद यह समझ गऐ हैं कि मैं झूठ बोल रही हूँ । मेरे कपड़े भी तो अलग लगते हैं। पत्रकार या समाजसेविका की तरह।
मुझे अब और कुछ नहीं सूझा। मैंने कहा, एक लड़की है- छवि। बंगाल से यहाँ काम करने आई थी। शायद अब यहीं रहती है।
वो जो चार साल पहले आई थी।
हाँ -हाँ , मैंने तुक्का मारा।
लेकिन तुम नहीं मिल सकती। कोई बाहर का नहीं आ सकता है यहाँ । यहाँ तो हम तुम्हारी तलाशी लेंगे।
अब मर्द मेरी तलाशी लेगा? अब कुछ नहीं सूझ रहा था।
मैंने कहा– ठीक है। मुझे कोई दिक्कत नहीं। लेकिन किसी औरत से मेरी तलाशी कराइऐ ।
वह मान गया। अंदर ले जाता हैं गंदी, तंग सीढ़ियाँ, तंबाकू, गुटका और पान से भरा... एक बार तो लगा उल्टी हो जाऐगी। अभी भी यहाँ से भाग जाऊँ ।
नहीं, लेकिन एक नया काम का बीड़ा उठाया है तो आज उसे पूरा करना ही है।
जैसे ही ऊपर जाती हूँ औरतें मुझे अजीब तरह से घूरती है, हँसती हैं। हैरत से देखती हैं। सहमी-सी बच्ची-सी सबको देखती हूँ कि तभी 40 के आस-पास की एक औरत आती है ज़ोर से पूछती है क्या है?
मुझे आपसे अकेले में बात करनी हैं। फिर आप जो चाहें मेरे साथ करें।
क्यों? क्या बात है?
मैं अकेले मैं बताना चाहती हूँ ।
ठीक है। आदमी को बाहर जाने का इशारा करती है।
समझ गई थी कि अब चालाकी नहीं चलेगी।
मैं समाजशास्त्र और पत्रकारिता की स्टूडेंट हूँ । मुझे एक शोध के लिऐ आप लोगों से कुछ बात करनी है। भरोसा कीजिऐ मैं किसी का नाम नहीं लूँगी। आप लोगों के खिलाफ़ नहीं लिखूँगी। मुझे आपसे मदद चाहिऐ ।
हँसती है। बहुत हिम्मत है तुझमें। वैसे यहाँ पहले भी एक-दो लोग आऐ हैं। कोई बात नहीं पहले बताना था।
आप कहाँ से हैं?
मैं तो दिल्ली की ही हूँ ?
फिर यहाँ ?
मेरी शादी हुई थी। आदमी घूम-घूम के कपड़े बेचा करता था। एक दिन मेरा आदमी रोज़ की तरह घर से निकला और एक स्कूटर ने धक्का मार दिया। वो वहीं मर गया। मेरे ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया। बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकती रही फिर यहाँ आ गई। एक बात जान लो यहाँ की दुनिया बाहर की दुनिया से बहुत अच्छी है। हम पर ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं होती। लोग आते हैं पैसे देते हैं। मन बहलाते हैं, चले जाते हैं। हम चाहें तो मना भी कर सकते हैं। तभी एक बीच में बोल पड़ी और क्या घरवाला तो जानवरों की तरह मारता भी है। यह भी नहीं कि देखता हम बीमार हैं, मेरा मन खराब है। क्या-क्या नहीं करता हैं मरद होने के नाम पर। गाली-गलौज और मार-पीट अलग। इससे अच्छा है हम यहाँ उस अपमान से बचे हैं।
मेरी आँखें फटी रह जाती है। क्या घर से सुरक्षित है कोठा? क्या शादीशुदा औरतों की हालत यहाँ की औरतों से बदतर है। यक़ीन नहीं हो रहा।
क्या आप लोग कभी घर नहीं लौटना चाहती?
नहीं। क्या होगा घर जाकर, कौन अपनाऐगा हमलोग को? हमारे घर वाले हमें अपना भी लें तो समाज उनको सुना सुना कर मार डालेगा। इससे तो अच्छा है अब हम यहीं रहें। अब यही हमारी दुनिया है। मायका है, ससुराल है। मेरा परिवार है। हम साथ लड़ते भी हैं तो एक दूसरे का दुःख-सुख भी बाँटते हैं। कोई बीमार है तो ऐसे ही मरने के लिऐ नहीं छोड़ देते।
कितना स्वाभिमान और आत्मविश्वास था उन्हें। कोई गिला नहीं किसी से। सब कहीं न कहीं अपनी जड़ों से कट कर आईं थी। किसी को उसका प्रेमी शादी करने का सपना दिखा कर लाया और छोड़ कर भाग गया। किसी को काम दिलाने के बहाने से तो किसी की ज़िंदगी ने क्रूर मजाक किया कि उनका घर-परिवार छीन लिया। पति छीन लिया और उन्हें कोई ठौर नहीं मिला। कुछ तो यहीं पैदा हुई थी। यहीं उनकी नानी, मौसी, माँ थीं। उसने बचपन से सबको यही करते देखा था। उसके लिए शरीर बेचना वेश्यावृति नहीं धंधा था। जैसे और किसी का धंधा होता है रोज़ी-रोज़गार के लिऐ ।
एकदम अजनबी इंसान, पराये के साथ संबंध बनाना अजीब नहीं लगता?
क्या अजीब? सबने यहाँ यही देखा है। जैसे रोज़ का काम है खाना, पीना, सोना... सब एक जैसा है। आदमी आता है, चला जाता है। बाद में कोई चिक-चिक नहीं।
क्या आपलोगों को ज़िंदगी में कभी प्यार मिला? आप पराये, गैर इंसान को प्यार देती हैं। आपको कभी किसी ने प्यार किया यानी प्यार दिया?
प्यार हम सिर्फ़ बेचते हैं। हमें प्यार कभी नहीं मिला। प्यार के लिऐ यहाँ कोई आता भी नहीं।
अगले ही पल एक इंसान आता है और मेरा सौदा तय होता है जबकि मैं कहती हूँ कि ‘मुझे बाहर ले चलो और पाँच हजार से कम नहीं लूँगी।’ लगा था कि मना कर देगा, लेकिन वो इंसान राजी हो गया और मैं बिक गई। उसके साथ उसकी गाड़ी में बाहर आती हूँ । वो एयर इंडिया में काम करता था और यमुना विहार का निवासी था। उसकी पत्नी कहीं बाहर गई हुई थी।
गाड़ी में बैठते ही उसने मेरे करीब आने की कोशिश की और मैं एकदम से बोल पड़ी– अभी नहीं।
ठीक है कोई बात करते हैं।
मुझे यह भी नहीं पता कि ऐसे में क्या बातें करते हैं?
वो पूछता है मेरा नाम?
कुछ नहीं सूझता, कहती हूँ - ‘चाँदनी’।
वो बोला अच्छा।
और आपका?
संजय।
आप वैसी नहीं लगती।
जी, जी, जी, मैं, मेरा पहला दिन है।
वो अच्छा। ठीक है। अब तक आप कहाँ थी?
सरपट निकल जाता है–पटना।
कितना भी झूठ बोलो अचानक में हमेशा सच ही निकलता है। क्योंकि मैं पटना की हूँ तो पटना ही निकला।
बहुत अजीब तरीके से वह घूरता है। पर आदमी समझदार और पढ़ा लिखा था। कॉफी पीऐंगी?
हूँ ऽ ऽऽ ऽ ऽ ऽ
और वो मुझे बंगाली मार्किट लेकर आ गया। वही बंगाली मार्किट जहाँ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, मंडी हॉउस में पढ़ते हुऐ दिन रात का आना-जाना लगा रहता था। मैं जैसे नींद से जागी क्या कर रही है। वही जगह है जहाँ एक से बढ़ कर एक नाटक किए। क्या कर रही हूँ ? कहाँ जा रही हूँ ? कहीं यह साहसिक अनुभव जीवन भर के लिए महँगा न पड़े। किसी खतरे में न पड़ जाऊँ ।
मैं वो नहीं हूँ जो आप समझ रहे हैं।
फिर?
यहाँ एन.एस.डी. है, जानते हैं ? वहाँ की स्टूडेंट हूँ और बस एक बार उन औरतों की ज़िंदगी जी कर देखना चाहती थी। आज जो कुछ भी किया वह बस एक खोज करना चाहती थी कि मैं ऐसे में क्या करती हूँ ।
आप एन.एस.डी. से हैं। मैंने कई बार यहाँ नाटक देखा है। अजीब बात है मुझे एन.एस.डी. बहुत पसंद है और मैं चाहता था कि एन.एस.डी. की किसी हीरोइन से दोस्ती करूँ।
मैं हीरोइन नहीं हूँ । यहाँ से पढ़ाई की है।
मेरा मतलब यही था कि एन.एस.डी. की लड़की हो।
सॉरी। मैंने झूठ बोला लेकिन अब मैं जाना चाहती हूँ ।
कहाँ ? स्कूल जाऐंगी?
नहीं, मैं पास आउट हो चुकी हूँ । अब होस्टल में नहीं, पटपड़गंज में रहती हूँ ।
चलिए मैं आपको छोड़ देता हूँ ।
नहीं। घर जाने का मन नहीं अभी। कुछ देर स्कूल में बैठना चाहती हूँ । आप जाइए।
क्या मैं अच्छा नहीं लगा। कुछ देर आप मेरे साथ दोस्त की तरह चल सकती हैं।
नहीं, वो बात नहीं, बस ऐसे ही।
अच्छा कुछ देर मेरी गाड़ी में बैठ सकती हैं या मुझ पर भरोसा नहीं।
नहीं, यह बात नहीं।
उसका स्वभाव और व्यवहार बहुत ही दोस्ताना था। एक पल को लगा चली जाऊँ उसके साथ। फिर जैसे नींद से जागी। नहीं, सही नहीं है।
और अचानक गाड़ी से उतरते हुऐ कहा– मुझे चलना चाहिऐ ।
अगर आप बुरा ना माने तो एक बात कहूँ , आप मुझे बहुत अच्छी लगी। मैं आपको ‘किसऽ‘ करना चाहता हूँ अगर आप चाहें... आप पैसे भी रख सकती हैं।
हँसते हुऐ मैंने कहा– नहीं उसकी ज़रूरत नहीं। मैं तो बस अपने एक्टिंग के लिए अनुभव करके देखना चाहती थी।
अच्छा...बाय।
और मैंने जो कहा...
क्या?
किस ऽऽऽ
कोई ज़िद नहीं बस निवेदन था उसकी आँखों में।
मैंने उसे गले लगाया और उसके माथे को चूमा।
उसकी दोनों आँखें बंद थी और वो बहुत ख़ुश दिख रहा था...
( लेखिका मशहूर रंगकर्मी हैं। )