संदूक
संदूक
दादी रामकौरी एक चाबी को अपने छींट के घाघरे के नाड़े से बाँधकर रखती थी, दादी छींट का घाघरा ही पहनती थीं। नहाते समय घाघरा बदलता तो चाबी को दूसरा नाड़ा मिलना तय होता था।
घर के सारे छोरों (लड़कों) की निगाह उस चाबी पर रहती थी, किसी ने नहीं देखा कि दादी ने दिन या रात के किसी पहर उस चाबी का किसी ताले को खोलने में इस्तेमाल हुआ हो।
एक बार दादा हरदयाल ने दादी से इस चाबी के लिऐ लड़ाई भी कर ली थी कि बता ये जरीलुगाई किसकी है, कौन से ताळे (ताले) की है।
फिर पूरे नौ दिन तक दोनों में अनबोला रहा था।
कार्तिक का उतरता हुआ महीना था, जाड़ा अपने चरम पर था। उस रात काळी- पीळी (काली पीली) आँधी आई थी।
उस वक़्त दादी दादा उस पुरानी साळ( आयताकार कमरा)पे बट्ठल में खीरे (अंगारे) डालकर तप रहे थे कि रात कट जाऐ।
दादी को दौरा पड़ा और दादी के प्राण निसर(निकल) गऐ , दादा ने दादी के नाड़े से बँधी चाबी खोली और सारी अलमारियों और संदूकों में लगाकर देखी। पिछली रबी की फसल के गेहूँ की बोरियों की ढेरियों के बगल में रखी सबसे छोटी संदूक में चाबी लग गई। ताला जंग खा गया था, चाबी के साथ दो चार बार हिलाया तो खुल गई।
संदूक में बस एक किताब थी, गीताप्रेस गोरखपुर की श्रीमद्भगवद्गीता। और उसके बीच में एक ख़त। ख़त पीला पड़ गया था, ख़त खोलते हुऐ दादा के हाथ काँप रहे थे कि कहीं फट ना जाऐ। ख़त हिंदी में लिखा था,वर्तनी की गलतियाँ थीं जो बता रही थी कि लिखने वाले को ज्यादा हिंदी नहीं आती। ख़त में लिखा था -
"मेरी हमनफ़स रामकौरी,
पूरा परिवार पाकिस्तान जा रहा है। मुझे भी जाना ही पड़ेगा।
इंशाल्लाह! ज़िंदगी रही और कभी लौटना हुआ तो ज़रूर आकर मिलूँगा।
तुम शादी कर लेना।
तुम्हारा,
रसूल"
दादा ने ख़त को बहुत डरते हुऐ उसी तरह किताब में रख दिया। किताब उसी छोटी सी संदूक में रख दी और संदूक को ताला लगा दिया। चाबी अपनी धोती की गाँठ में रख ली। उन्होंने बेटों को आवाज़ दी। पूरा परिवार शोक में डूब गया।