गांव का सुकून
गांव का सुकून
गाँव का आनन्द शहर में कही गुम हो गया है कितने सुकून के दिन जब हम बच्चे सब मिलकर गांव की सेर किया करते थे,कितने अविस्मरणीय वो पल जो अपनी स्पष्ट छवि से कभी भी मंत्रमुग्ध कर ले,क्या सुहाना दृश्य स्मरण मात्र से खुशी के आंसू झलक उठते है ,आज विलुप्ति के कगार पर है
वो गांव वो लोग वो बरगद जहाँ की छांव में हम दिन भर खेलते ,जिसके पेड़ पर टायर का झूला बांधकर हम गिनती से गिन कर बारी- बारी से झूला करते थे जिस पेड़ पर अनेक पंछियों का बसेरा हुआ करता था जिनकी मधुर आवाज बड़ी कर्णप्रिय हुआ करती थी विविध जानवर अपना आश्रय स्थान बरगद के पेड़ को ही बनाते थे ,बरगद के नीचे एक चौपाल हुआ करती थी जहाँ गांव के बड़े बुजुर्ग दिन के समय अपनी वार्तालाप के क्रम को आगे बढ़ाते और सुख दुख की बात करते थे।सांस्कृतिक बौध्दिकता का अद्भुत संगम मैंने बरगद के पेड़ के नीचे देखा था ,जो लुप्त है आज विलुप्त है बरगद के पेड़ की शीतल स्वास्थ्यकारी हवा आज भौतिकता के परिवेश में Ac में परिणित हो चुकी है ।