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वड़वानल - 46

वड़वानल - 46

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‘‘अरे ताऊ, देख क्या लिखा है!’’  एक सायंकालीन समाचार–पत्र नचाते हुए सज्जन सिंह अपने हरियाणवी ढंग में रामपाल से कह रहा था।

‘‘क्या लिक्खा है?’’   रामपाल ने पूछा।

‘‘अरे, ‘तलवार’ के सैनिकों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह कर दिया है,’’ सज्जन सिंह ने जवाब दिया।

सज्जन सिंह द्वारा लाया गया समाचार–पत्र पूरी मेस डेक पर घूमता रहा।

जैसे–जैसे वह एक हाथ से दूसरे हाथ जाता रहा, वैसे–वैसे सैनिकों का उत्साह बढ़ता गया। HMIS. ‘पंजाब’  के उत्साहित सैनिक नारे लगाते हुए अपर डेक पर आते रहे। कुछ जोशीले सैनिकों ने ऊँची आवाज़ में ‘सारे जहाँ से अच्छा’ यह गीत गाना आरम्भ कर दिया। धीरे–धीरे पूरी शिप्स कम्पनी डेक पर जमा हो गई और फिर रात को बड़ी  देर  तक  वे  सब  लोग  विद्रोह,  विद्रोह के परिणाम,   उनका इसमें सहभाग आदि विषयों पर चर्चा करते   रहे।

धीमी–धीमी  हवा  चल  रही  थी। सैनिकों के मन में स्वतन्त्रता की आशा की चाँदनी छिटकी थी। नींद किसी को भी नहीं आ रही थी। स्वतन्त्रता के सपने सजाते हुए वे रातभर जागते रहे।

 मंगलवार को सुबह ‘पंजाब’ के सैनिक जल्दी ही उठ गए। हरेक के मन में उत्सुकता थी,  ‘आगे क्या होगा ?’  सुबह से जहाज़ का लाऊडस्पीकर चुप्पी साधे हुए था, क्योंकि सूचनाएँ देने वाला क्वार्टर मास्टर ड्यूटी पर हाज़िर ही नहीं हुआ था,  और किसी भी गोरे सैनिक की हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि सूचनाएँ दें। हिन्दुस्तानी नौसैनिक मेसडेक में आराम से बैठे थे।

‘‘स. लेफ्टिनेंट रंगाराजू, मेरा ख़याल है कि तुम आज सुबह आठ बजे तक ड्यटी पर हो।’’ ‘पंजाब’  का कैप्टेन स्मिथ पूछ रहा था।

''Yes, sir.'' रंगाराजू ने जवाब दिया।

‘‘हिन्दुस्तानी सैनिक आज फॉलिन के लिए नहीं आए...’’

‘’ ‘तलवार’ के विद्रोह की ख़बर आई और सैनिक बिफर गए हैं...’’ स्मिथ को टोकते हुए रंगाराजू ने जवाब दिया। 'You bloody fool! मुझे तुमसे ये जवाब नहीं सुनना है। तू जाकर उनसे कह दे कि वे ‘तलवार’  नहीं, बल्कि ‘पंजाब’  हैं,  और यहाँ कमाण्डर स्मिथ है। उनकी मनमानी यहाँ नहीं चलेगी।’’   स्मिथ गुर्राया।

सुबह–सुबह हुए इस अपमान से आहत रंगाराजू ने स्मिथ को गाली देते हुए जवाब दिया, ‘‘ठीक है, सर, मैं कोशिश करता हूँ।’’ और वह मेसडेक की ओर चल पड़ा।

रंगाराजू को मेस में आया देखकर सैनिकों ने ज़ोर–ज़ोर से नारे लगाना शुरू कर दिया।

‘‘प्लीज़,  ये  सब  रोको  और  अपर  डेक  पर  फॉलिन  हो  जाओ।’’  रंगाराजू के शब्दों में हमेशा की   दहशत और हुकुमशाही नहीं थी।

''You, bloody shoe licker, go back!'' सैनिकों ने नारे लगाते हुए रंगाराजू को लगभग बाहर खदेड़ दिया।

सुबह के आठ बजने में अभी पैंतालीस मिनट बाकी थे।

 ‘‘आज हम मास्ट पर यूनियन जैक वाली व्हाइट एनसाइन नहीं चढ़ाने देंगे।’’ रामपाल  ने  कहा।

‘‘आज हम तिरंगा फहराएँगे।’’  गोपालन् ने कहा।

‘‘चलेगा।’’   रामपाल   ने   कहा।

‘‘फिर मुस्लिम लीग का झण्डा क्यों नहीं ?’’   सलीम ने पूछा।

‘‘हम सब एक हैं। वह झण्डा चढ़ाकर अपनी एकता अधिक मज़बूत करेंगे।’’ सुजान ने समर्थन किया।

‘‘कम्युनिस्ट पार्टी का झण्डा भी फ़हराया जाए ऐसा मेरा ख़याल है।’’ टेलिग्राफिस्ट चटर्जी ने कहा।

‘‘उस झण्डे के लिए भी कोई आपत्ति नहीं होगी,  ऐसा मेरा विचार है। हमारा ध्येय एक है और उस ध्येय के लिए हमें एक होना चाहिए। हमारी एकता के प्रतीक के रूप में इन तीनों ध्वजों को एक ही रस्सी पर चढ़ाएँगे।’’ गोपालन् के सुझाव को सबने स्वीकार कर लिया।

कुछ लोग स्टोर की ओर दौड़े और उपलब्ध कपड़े से तीन झण्डे तैयार करने लगे।

HMIS ‘पंजाब’  पर से अंग्रेज़ों का नियन्त्रण छूट गया था। अंग्रेज़ अधिकारी और सैनिक हतबल होकर अपनी–अपनी मेसडेक में बैठे रहे।

आठ बज गए। ‘पंजाब’ के सैनिक क्वार्टर डेक पर इकट्ठा हो गए। हर ब्रैंच के वरिष्ठ सैनिकों ने अपनी–अपनी ब्रैंच के सैनिकों को अनुशासन में खड़ा किया। आठ बज गए तो घण्टे के आठ ठोके देते हुए क्वार्टर मास्टर चिल्लाया,

‘‘कलर्स,  सर।’’

ब्यूगूलर ने ‘अलर्ट’ बजाया। सैनिकों ने सलामी दी और बिगुल की ताल पर तीनों झण्डे मास्ट पर चढ़े।

‘‘दोस्तो! स्वतन्त्र हिन्दुस्तान के राष्ट्रध्वज को पूरे सैनिक सम्मान से फहराने का सौभाग्य आज सर्वप्रथम हमें प्राप्त हुआ है। यह क्षण हमारे जीवन का सबसे बड़ा, महत्त्वपूर्ण और सुख का क्षण है।’’ गोपालन् हर्षोत्साह से कह ही रहा था कि सैनिकों ने नारे लगाना आरम्भ कर दिया।

‘‘भारत   माता   की   जय!’’

‘‘वन्दे   मातरम्!’’

मुम्बई के बंदरगाह में खड़े जहाज़ों के सैनिकों ने ‘पंजाब’  पर फ़हरा रहे तीन ध्वज देखे तो वे रोमांचित हो उठे। थोड़ी ही देर में बंदरगाह में खड़े ‘मद्रास’ ‘सिंध’,  ‘मराठा’,  ‘तीर’,  ‘धनुष’  और  ‘आसाम’  इन  जहाजों  ने  भी ‘पंजाब’  का अनुकरण किया। मगर कुछ जहाजों पर अभी भी ब्रिटेन का व्हाइट एनसाइन ही फ़हरा रहा था। ‘पंजाब’ के सैनिक ‘बिरार’, ‘मोती’, ‘नीलम’, ‘जमुना’, ‘कुमाऊँ’ इत्यादि जहाज़ों पर गए। हर जहाज़ पर उनका उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया।

‘‘दोस्तो! कल से ‘तलवार’ के सैनिकों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। उनका विद्रोह व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं है। वे संघर्ष कर रहे हैं स्वतन्त्रता के लिए हम सबको अधिक अच्छा खाना मिले, अधिक सुविधाएँ मिलें,  हमारे साथ अधिक अच्छा बर्ताव किया जाए इसलिए यह संघर्ष है और यह सब स्वतन्त्रता के बिना असम्भव है। दोस्तो! ये माँगें हम सभी की हैं। हम ‘पंजाब’ के सैनिकों ने एक राय से ‘तलवार’ के सैनिकों का साथ देने का निर्णय लिया है। दोस्तो! सबका साथ मिले बगैर यह संघर्ष यशस्वी होने वाला नहीं, इसलिए हमारी आपसे विनती है, कि आप सब हमारा साथ दो। अन्तिम विजय हमारी ही होगी!’’ पंजाब के सैनिक आह्वान कर रहे थे और उनके आह्वान को ज़ोरदार समर्थन मिल रहा था।

 

सुबह के समाचार–पत्रों में नौसेना के विद्रोह की ख़बर मुम्बई के घर–घर में जिस तरह पहुँचाई थी,  उसी तरह उसे देश के कोने–कोने में भी पहुँचाया। सरकार विरोधी समाचार–पत्रों के साथ–साथ सरकार समर्थक समाचार–पत्रों को भी  इस  घटना  के  बारे  में  लिखना  ही  पड़ा। ‘टाइम्स’  जैसे सरकार समर्थक अख़बार ने लिखा था, ‘‘मुट्ठी भर असन्तुष्ट सैनिकों द्वारा खाने तथा अन्य सुविधाओं को लेकर किया गया विद्रोह।’’

मगर ‘फ्री प्रेस जर्नल’  जैसे सरकार विरोधी अख़बार ने 18 तारीख की सभी घटनाओं के बारे में विस्तार से लिखा था, ‘‘मुम्बई, सोमवार, दिनांक 18 फरवरी, सिग्नलिंग की ट्रेनिंग देने वाले मुम्बई के HMIS ‘तलवार’  नामक नौसेना तल पर एक हज़ार से भी ज़्यादा सैनिकों ने आज सुबह से भूख हड़ताल आरम्भ कर दी है। ‘तलवार’ के मुख्य अधिकारी, कमाण्डर किंग द्वारा रॉयल इण्डियन नेवी के हिन्दुस्तानी सैनिकों के लिए 'Sons of bitches' और 'Sons of coolies' जैसे अपशब्दों का प्रयोग किये जाने का यह परिणाम है। भूख हड़ताल से उत्पन्न परिस्थिति पर सरकार गम्भीरता से विचार कर रही है। ‘तलवार’ के गोरे सैनिकों को अन्यत्र हटा दिया गया है। ‘बेस’  से गोला–बारूद भी हटा लिया गया है। इस हड़ताल को समाप्त करने के लिए फ्लैग ऑफिसर्स द्वारा की गई कोशिशें असफल सिद्ध हुई हैं।

हड़ताल कर रहे सैनिकों ने यह माँग की है। इस हड़ताल में राष्ट्रीय नेता, सम्भवत: अरुणा आसफ अली मध्यस्थता करें!

खबर में आगे कहा गया था कि ‘तलवार’ के सैनिकों ने आह्वान किया है कि पूरे हिन्दुस्तान के नौसैनिक विद्रोह में शामिल हों। ‘तलवार’ का वातावरण ‘जय हिन्द’, ‘भारत छोड़ो’ 'Down with the British' आदि नारों से गूँज रहा था।

‘फ्री प्रेस’  ने ‘तलवार’  पर पिछले दो–तीन महीनों में हुई घटनाओं की रिपोर्ट देकर सैनिकों की माँगों के बारे में भी लिखा था। अख़बार ने आगे लिखा था, ‘‘मुम्बई के फ्लैग ऑफ़िसर ने ‘तलवार’ के मुख्याधिकारी का फ़ौरन तबादला   करके उसके स्थान पर कैप्टन इनिगो जोन्स की नियुक्ति की है। सैनिकों को यह नियुक्ति मान्य नहीं है। उनकी राय में एक हिन्दुस्तान द्वेषी अधिकारी के स्थान पर दूसरा हिन्दुस्तान द्वेषी अधिकारी लाकर बिठाया गया है। सैनिकों ने रॉटरे और उसके साथ के अधिकारियों को ‘तलवार’  और हिन्दुस्तान में चल रहे विद्रोह के बारे में बताया।

‘‘आगे क्या होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन नौजवानों की हिम्मत ज़बर्दस्त है। उनके निर्णय में  अब कोई भी परिवर्तन नहीं कर सकता। ‘तलवार’ की दीवारें भी अब ‘जय हिन्द’, ‘भारत छोड़ो,’ 'Down with the British' इत्यादि नारे लगा रही हैं।’’

ए.पी.ए.  ने यह सूचना दी है कि ‘‘मुम्बई के फ्लैग ऑफ़िसर रियर–एडमिरल रॉटरे ने यह कहा है कि हमेशा की  तरह ‘तलवार’  में समय पर भोजन तैयार किया गया, मगर किसी भी सैनिक ने खाना नहीं लिया। सैनिकों को उनकी माँगें पेश करने के लिए कहा गया मगर कोई भी आगे नहीं आया। उनकी शिकायतें क्या हैं,  यदि यह पता चले तो शिकायतों को दूर करने के सभी प्रयत्न करने का आश्वासन रॉटरे ने सैनिकों को दिया है, इसके बावजूद सैनिकों ने काम पर लौटने और खाना खाने से इनकार कर दिया है। यह भी ज्ञात हुआ है कि इन सब घटनाओं की रिपोर्ट दिल्ली भेज दी गई है।’’

 

 ‘‘भण्डारे, अरे ‘फ्री प्रेस’ में छपी यह ख़बर पढ़ी क्या ?’’ गिरगाँव की एक चाल में रहने वाले सप्रे ने अपने पड़ोसी से पूछा।

 ‘‘सैनिकों की भूख हड़ताल वाली खबर ना ?  ‘टाइम्स’ ने भी दी है। दो निवाले ज़्यादा खाने के लिए की गई हड़ताल...।’’

‘‘भण्डारे,  ‘टाइम्स’  की ख़बर एकदम विकृत है। सैनिकों की हड़ताल केवल खाने के लिए नहीं है। उन्होंने स्वतन्त्रता की माँग की है।’’  भण्डारे की ख़बर को खारिज करते हुए सप्रे ने कहा।

‘‘मतलब, अब सैनिक भी ? मगर एक दृष्टि से यह अच्छा ही हुआ। वरना, महात्माजी के मार्ग से आज़ादी पाने के लिए और न जाने कितने सालों तक संघर्ष करना पड़ेगा! यह काम, मतलब कैसा, कि बाप दिखा, नहीं तो श्राद्ध कर! देश छोड़ के जाएगा या तुझे मारूँ गोलियाँ ?’’  भण्डारे का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा था।

‘‘हमें सैनिकों का साथ देना चाहिए। वे अकेले नहीं पड़ने चाहिए। यदि हमारा साथ मिला तो उनका काम और अधिक आसान हो जाएगा।’’  सप्रे ने साथ देने की बात पर ज़ोर देते हुए कहा।

‘‘साथ देने का मतलब क्या करने से है ?’’  हम बन्दूक तो चला नहीं सकते या तोप दाग नहीं सकते,  फिर हम करें तो क्या करें ?’’  भण्डारे पूछ रहा था।

‘‘उन पर चलाई गई कम से कम एकाध गोली तो अपने सीने पर झेल सकते हैं ? कारखाने बन्द करके सड़क पर आ सकते हैं। अरे, ज्यादा नहीं, तो कम से कम जब वे लड़ रहे होंगे तब उनके कपड़े ही सँभाल सकते हैं। बहुत कुछ कर सकते हैं हम।’’  सप्रे सहयोग देने के मार्ग सुझा रहा था।

‘‘हम भी सहभागी होकर उनका साथ देंगे,’’ भण्डारे ने कहा।

मुम्बई के घर–घर में ऐसी ही बातें हो रही थीं। लोग सैनिकों को समर्थन देने की बात कर रहे थे।

‘फ्री प्रेस’ में छपी नौसैनिकों के विद्रोह की ख़बर से दिल्ली में उपस्थित कांग्रेस के अध्यक्ष - मौलाना अबुल कलाम आज़ाद – को विशेष आश्चर्य नहीं हुआ। उन्होंने कराची, लाहौर और सैनिक कैंटोनमेंट वाले शहरों का जब दौरा किया था तो देशप्रेम से झपेटे हुए सैनिक खुद आकर उनसे मिले और तीनों दलों के अधिकारियों द्वारा कमाण्डर–इन–चीफ को उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए 15 फरवरी तक का  समय  दिए  जाने  की  बात  उन्हें  पता  चली  थी। वे  तभी  समझ  गए  थे  कि इन विरोधों  का  विस्फोट अवश्य होगा,  मगर  वह  इतनी  जल्दी  हो  जाएगा इस  बात की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। लाहौर स्थित गुरखा रेजिमेंट के सैनिकों द्वारा किये गए स्वागत की याद ताज़ा हो गई :

‘‘आज़ाद जिन्दाबाद!’’   उनके कानों में फिर एक बार नारे गूँज गए।

‘सेना और पुलिस में आया यह परिवर्तन... वरिष्ठों की परवाह न करते हुए नारे... ऐसा साहस!    मगर इसकी परिणति विद्रोह में और वह भी इतनी जल्दी ?’ आज़ाद को विश्वास ही नहीं हो रहा था।

‘‘सर, हम कांग्रेस के साथ हैं।’’ कराची के सैनिक आज़ाद से कह रहे थे। यदि कांग्रेस में और सरकार में मतभेद हो गए तो हम कांग्रेस की तरफ से खड़े रहेंगे और कांग्रेस द्वारा दिए गए आदेशों का पालन करेंगे।’’ आज़ाद को सब कुछ याद आ रहा था। वे मन ही मन खुश हो रहे थे।

‘‘युद्ध समाप्त होने के बाद हिन्दुस्तान को आज़ादी दी जाएगी, ऐसा आश्वासन अंग्रेज़ सरकार ने दिया था इसलिए, उनके वादे पर विश्वास करते हुए हम इंग्लैंड की ओर से लड़े।’’ कराची में लीडिंग सिग्नलमैन पन्त कह रहा था।उसके सुर में धोखा दिये जाने का मलाल था। ‘‘अब अंग्रेज़ अपना वादा पूरा करने में हिचकिचाए और बातचीत का नाटक करने के लिए यदि उन्होंने खोखली समितियों का गठन किया तो वह हमें मंज़ूर नहीं होगा।  हम  खामोश नहीं  बैठेंगे!’’ पन्त की आवाज़ में निश्चय था।

विद्रोह की पार्श्वभूमि का आज़ाद को स्मरण हो आया।

यह समय विद्रोह का नहीं... हिन्दुस्तानी सैनिकों के मन में जागृत हुई आत्मसम्मान की, स्वाभिमान की, देश प्रेम  की भावना, सब कुछ काबिले तारीफ़ है। सरकार ने सैनिकों की भावनाओं की अनदेखी की, राजनीतिक परिस्थिति का नासूर बनने दिया... यह सब सच होते हुए भी, जब देश ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा हो,  व्यापारियों द्वारा  शान्ति की उम्मीद की जा रही हो,  तो यह समय विद्रोह का कतई नहीं है।’’ वे सोच रहे थे, ‘‘सैनिकों को रोकना होगा। कांग्रेस को इस विद्रोह से दूर रखना होगा। सैनिक यदि आगे चलकर हिंसात्मक हो गए तो...कांग्रेस के सिद्धान्त महात्माजी द्वारा स्थापित आदर्श... नहीं, कांग्रेस को इस विद्रोह से दूर रहना होगा!’’

उन्हें सरदार पटेल की याद आई। वे मुम्बई में हैं। वे विद्रोह का समर्थन नहीं करेंगे। मगर समाजवादी गुट, खासकर अरुणा आसफ अली...सुबह के समाचार–पत्र में उनका नाम पढ़ने की बात याद आई।

उसे किसी भी तरह रोकना होगा। सरकार से, सरदार से सम्पर्क स्थापित करना ही होगा, तभी...

और वे सरदार पटेल को फ़ोन करने के लिए उठे।

 

 

 



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