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दुविधा

दुविधा

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छठ पूजा को बीते महीना पूरा हो रहा था। पर जब भी सुधीर बार - बार पंजाब जाने की बात करता, कनिया का चेहरा उतर जाता। कल तक जो पैर पकड़ कर निहोरा करती थी, आज उसने कंधा पकड़ कर झिंझोर दिया। मन तो किया कि एक झापड़ दे दें पर, कनिया की आँखों में बादल देख रूक गया।

"का चाहती हो तुम? सबेरे - शाम बाबूजी से बात सुनें! माय गाली देगी तो तुमको अच्छा लगेगा न !"

"नहीं, ऐसा कुच्छो न है। आप यहीं कुछ काम कर लीजिए। हम अपना गहना देने को तैयार हैं।"

"पगला गयी है का। कितना का गहना होगा ? 2 लाख का भी नहीं। उसमें कौन - सा बिजनिस हो पायगा ?"

"हम कुच्छो नहीं जानते हैं, बस आप यहीं रहिये !"

"कल भी वहाँ से नुनुआ का फोन आया था कि अगर जल्दी से नहीं पहुँचे तो सरदारबा नौकरी से निकाल देगा। पर एक बात समझ में नहीं आ रहा है कि तुम यहाँ रहने के लिये इतना ज़िद क्यों कर रही हो ?"

" आप तो भोलेनाथ हैं ! आप के यहाँ से जाते ही आपके कुछ लक्ष्मण भाय बाली बनने की कोशिश में लग जाते हैं। दू - तीन चच्चा भी इंदर बनने का मौका तलासते रहते हैं। आप ही बताइये का करें हम ?

......

"भीष्म पितामह बन गये कि युधिष्ठिर?"

"अब सीता मैया या द्रौपदी बनने से काम नहीं चलेगा।"

"तो का करें ? पद्मावती बन जायें, आप ही समझाइये हमको।"

"नहीं, तुम अब रणचंडी दुर्गा बन जाओ।"

"का, का मतलब है आपका?"

"मतलब साफ है। अब मरद से बचने के लिये औरत को मरद बनना ही पड़ेगा।"

[ © मृणाल आशुतोष ]


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