स्त्री शिक्षा
स्त्री शिक्षा
प्रतिदिन जब भी अपने कर्मक्षेत्र में कदम रखती हूँ तो किसी न किसी रूप में अपने गुरूजन की याद आ ही जाती है। कुछ आंतरिक व बाहरी दोनो रुप में कठोर, कुछ नारियल की तरह। उस उम्र में बेशक अनुशासित रहना पसन्द न हो लेकिन आज सबसे ज्यादा वे ही शिक्षक याद आते हैं, जो अनुशासन पसन्द थे। शायद उन्हीं की वजह से आज कर्तव्यनिष्ठा के पथ पर अग्रसर हो पाई हूँ। वंदन मेरे गुरुजन को।
प्रथम गुरु तो माँ ही होती है। माँ जिसकी वजह से आज इतना सरल ह्र्दय हो पाई हूँ। वैसे... सरल होना व बेवकूफ़ होना.. .इन दो के बीच मात्र बाल भर का अन्तर होता है। लेकिन सरल होना भी कहां 'सरल' होता है। आज का शिक्षक हर रोज़ एक नई समस्या से जूझकर भी अपने अस्तित्व को साबित करने में लगा है।
शिक्षक ही है जिसका योगदान ताउम्र हमारे साथ रहता है। तो उस शिक्षक का वंदन तो हर रोज किया जाए तो कम है। हां, आज के दिन हम शपथ लें कि हम अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूर्ण लगन व निष्ठा से करें।
एक शिक्षक जब कक्षा कक्ष में जाए तो कक्षा के समस्त छात्र-छात्राओं में अपने बच्चों की छवि देखें। वे बच्चे जिनको वह अल सुबह नहला धुला कर, टिफिन देकर विद्यालय पहुँचाकर आते हैं, इसी उम्मीद से कि वह बच्चा सांयकाल जब घर लौटेगा तो कुछ न कुछ नया सीखकर ही लौटेगा। इतना अगर कर पाते हैं तो कोई भी शिक्षक अपने कर्तव्य पथ से कभी भी डिग नहीं सकता।
शिक्षक सदैव सम्माननीय था, है और रहेगा...
स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में तो यही कहना है कि....
"दीया हर दहलीज़ पर जलाया जाए
गर हुई रोशनी तो दोनो तरफ होगी..."