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सुख और सुविधाएँ

सुख और सुविधाएँ

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नमन जब दफ्तर से घर आया तो थक कर चूर हो चुका था। काम का दबाव तो था ही उसके उपर से घमासान ट्राफिक में यात्रा करने कष्ट भी उठाना पड़ता था।

बस में धक्के खाने से बचने के लिए उसने कार तो खरीद ली पर उससे भी समस्या का समाधान न हो पाया। घर आते ही उसने ए०सी० चला दिया। उस कृत्रिम ठण्ड़क ने मानो उसकी आत्मा को ही बर्फ की तरह जमा दिया। नमन उठा और खिड़कियाँ खोल दी।

बाहर से जो हवा अंदर आयी वह अपने साथ कहीं तरह की दुर्गन्ध लेकर आयी थी। उसमें कारखाने का प्रदूषण था और खुले में पड़े कचरे की बदबू। नमन ने झठ से खिड़की बंद कर दी।

उसने अपने आलीशान फ्लेट को ध्यान से देखा। वहाँ हर तरह की आधुनिक सुविधाएँ मौजूद थी। नमन को शहर आये एक साल हो गया था। परन्तु शहरी जीवन में गाँव जैसा सुख नहीं था। उसे अपने गाँव के चौराहे पर खड़ा वह विशाल बरगद का पेड़ याद आया। उसकी शीतल छाया में नमन बचपन में अपने मित्रों के साथ गर्मियों की छुट्टियों में खेला करता था। शाम को अपने दादाजी के साथ टहले निकलता था।

कुछ देर टहलकर दोनों उसी बरगद की छाँव में बैठ जाते थे। तत्पश्चात, दादाजी उसे रोज़ एक कहानी सुनाते थे। उसकी छाया में हर वर्ष कितने ही मेले लगते थे। कितनी ही नाटक मण्ड़लियों ने अपनी कला प्रस्तुत की थी।

नमन ने एक ठण्ड़ी आह भर कर सोचा कि गाँव के उस बरगद की छाँव से उसकी कितनी ही मधुर यादें जुड़ी हैं। पर अब न वह बरगद है न ग्रामीण जीवन का सुख। कुछ वर्ष पूर्व, ग्राम-विकास के नाम पर सड़क बनाने के बहाने उसकी निर्मम हत्या कर दी गयी।

नमन को भी आजीविका की खोज में शहर आना पड़ा। शहर आकर उसने महसूस किया कि यहाँ सुविधाएँ तो बहुत है पर गाँव जैसा सुख नहीं। गाँव के उस विशाल-काय बरगद की छाँव नमन को बहुत याद आती है।


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