सितारों के आशियाने
सितारों के आशियाने
वह कचनारों के खिलने का मौसम था।
जब जगती हुई भोर आपकी अँगड़ाईयाँ तोड़ देती है , तब कनेर का हल्का पीलापन एक मीठी सुगंध के साथ अंतस में उतरता जाता है। एक ठंडी बयार के पीछे-पीछे आप उस कोयल का पता खोजते हैं, जो अब तक लुका छुपी खेल रही होती है। बड़ी ही शाइस्तगी से किसी का हाथ थामें उस भोर की बेला में आप मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते पाये जाते हैं। जब तमाम शहर अलसाया हुआ बिस्तर छोड़ने की सोच रहा होता। धुँधलके में सड़कों पर टहलते इक्का- दुक्का होते। जिस बेला में हमउम्र युवा अभी-अभी सोने के लिऐ बिस्तर में गऐ ही होते हैं, उसमें आपका यह क़दम किसी धार्मिक अभिरुचि की वजह से लिया गया तो नहीं लगता। सीनियर-जूनियर का फर्क़ अक्सर कैंपस में मिलने में आड़े आता है। सबकी नजरों में आने का भय ...कानाफूसी शुरू होने का डर...! शुरू-शुरू में इस शहर में उसके साथ निकलने से डरता रहा। अब तो यहाँ अकेले आने से भी घबराहट होती है मुझे। कुछ डर ताउम्र नहीं जाते…
प्रोफ़ेसर घोष के बार-बार के आग्रह को मैं नहीं टाल पाया।
ट्रेन अपने निर्धारित समय से पहले ही ठिकाने तक पहुँच गई । स्टेशन पर मानों मेला सा उतरा। प्लेटफार्म पर क़दम रखते ही मेरे दिल की धड़कनें धौंकनी-सी चलने लगीं। ऐसा लगा मानों कोई मुझे देख रहा हो। तेज़ क़दमों से चलते हुऐ मैंने ओवरब्रिज पार किया।
एक ट्रेन स्टेशन छोड़ने के इंतेज़ार में थी। लोग ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ी में थे।
अचानक जैसे सबकुछ ठहर गया। सामने जिस फ्रेम में, मैं लोगों को देख रहा था वह दृश्य धीरे-धीरे ब्लर होता जा रहा है। फॉर ग्राउंड में एक लड़की प्लेटफ़ार्म पर खड़ी ट्रेन की खिड़की को कुछ समझाती दिखी। एक जाना-पहचाना हाथ खिड़की से बाहर निकला हुआ था। नीले रंग की चेकशर्ट वाली हथेली को उसने थाम रखा था- ”सब ठीक हो जाऐगा , चिल्ल यार!” खिड़की में कोई सुबक रहा था। मुझे लगा कि मैं उसको पहचानता हूँ।
स्टेशन मास्टर के केबिन के ठीक ऊपर एक बड़ी सी घड़ी लगी थी। वो अब तक चल रही थी।
तभी ट्रेन ने ज़ोर की सीटी दी। सारा फ्रेम टूट गया। लोग फिर भागते हुऐ नज़र आने लगे। मैं अपना ब्रीफ़केस उठाऐ स्टेशन से बाहर निकल आया। प्रोफ़ेसर घोष ने ड्राइवर भेजा है।
थोड़ी देर बाद गाड़ी मुख्य सड़क पर थी। अपने ही इंस्टीट्यूट में पहली बार गेस्ट फ़ैकल्टी की हैसियत से आया हूँ । इस शहर में कुछ अच्छे दिन गुज़रे थे। यहाँ के नामी इंजीनियरिंग कॉलेज में चार साल एक उपलब्धि जैसी लगती है। यह दिल के करीब है मेरे। दोस्त, प्यार….फिर प्लेसमेंट। उसके बाद भी तो आता रहा था। हर दो-तीन महीनों पर। फिर आधे साल...फिर साल....अब के सात साल बाद। गाड़ी सड़क पर सरपट दौड़ रही थी। सड़क के दोनों तरफ बड़ी-बड़ी पेंटिंग्स जिनमें कोणार्क…ओडिसी...जगन्नाथ टेंपल....नन्दन कानन के बाघ….आदिवासी जनजीवन...सभी तो परिचित हैं मेरे। पता नहीं मैं उन्हें याद हूँ या नहीं।पहले जितना खाली तो अब यह शहर भी नहीं रहा। अपार्टमेंट्स और डुप्लेक्स बहुतायत में उग आऐ हैं। साथ घूमने, घंटों बैठ बतियाने...फिर छिपने की कितनी सारी जगहें थीं इसके पास! कितनी गलियाँ, सड़कें, पार्क... । मैं अपने दोनों तरफ़ तेज़ी से गुज़रती जगहों को पहचानने की लगातार कोशिश में था।
थोड़ी ही देर में गाड़ी यूनिवर्सिटी के मेन गेट पर थी। मन भारी हो आया। कोई उलझन थी, जो आगे बढ़ते मेरे क़दम पीछे खींच रही थी। ड्राइवर मुझे अतिथि गृह में छोड़कर चला गया।
नाश्ते के बाद प्रोफ़ेसर घोष मुझे ख़ुद रिसीव करने आऐ । दस मिनट के अन्दर हम ऑडीटोरियम में थे। रजिस्ट्रेशन काउंटर पर मेरी मुलाक़ात बेलमति से हुई...उसने बैठे-बैठे मुस्कुरा कर मेरा अभिवादन किया। फिर वह लोगों के नाम-पते दर्ज़ करने में व्यस्त हो गई । मेरी जूनियर थी वह। गायत्री के बैच की। इतने दिन हो गऐ इससे मिले। लेकिन उसने पहचानने में एक क्षण की भी देरी नहीं की।
प्रोफ़ेसर घोष ने बताया कि रिसेशन की वजह से उस साल के प्लेसमेंट अच्छे नहीं रहे थे। कोई अच्छी कंपनी नहीं आयी। अच्छे-टैलेंटेड इंजीनियर्स को नौकरी नहीं मिल रही थी। कुछ लोगों को हमनें अपने यहाँ ही प्लेस कर लिया। बेलमति, गायत्री, आयुष...सब यही हैं।
मैं इन सबका सीनियर था। जब गायत्री से नयी-नयी दोस्ती हुई थी, सबके सामने उसके साथ आने में हिचकिचाहट होती थी। लेकिन जल्द ही बेलमति को हमारे बारे में पता चल गया। पहली बार जब मैंने गायत्री को चिड़ियाघर चलने का प्रस्ताव दिया था तो वह घबरा गई थी कि अकेले कैसे जाऐगी। बेलमति ने उसको दिलासे देते हुऐ भेजा था- ‘सर अच्छे आदमी हैं,तू जा।‘
फिर हमारे मिलने जुलने का सिलसिला यूँ ही चलता रहा। अंतिम वर्ष में मैं इन सबके साथ अक्सर लॉन में बैठता। तमाम तरह की बातें होतीं। जब कैंपस छोड़ कर वापस आ रहा तो बेलमति को बोल कर आया था
- “गायत्री का ख़याल रखना....!“मेरा लेक्चर अच्छा रहा। स्टूडेंट्स और फ़ैकल्टीज सभी ने ढेर सवाल पूछते हुऐ बख़ूबी भागीदारी की थी। प्रोफेसर घोष ने मेरा कंधा थपथपाते हुऐ कहा था
- ‘वेल्डन माय बॉय। अच्छी पकड़ बना ली है तुमने अपने विषय पर। कीप इट अप।‘ अपने प्रिय प्रोफेसर की प्रशंसा पाकर मैं ख़ुशी से भर गया।
शाम को बेलमति के साथ कैंटीन में बैठा था। इधर उधर की बातें हो रही थीं। वह मेरी दोनों बच्चियों के बारे में जानना चाह रही थी। मैंने मोबाईल से उनके फोटोग्राफ़्स दिखाऐ । अनामिका की तस्वीर देखकर उसने कहा,
- “शी इज़ सो लकी। हर कोई इतना लकी नहीं था...!” इतना कहकर उसने नज़रें दूसरी तरफ़ फेर लीं। हम ख़ामोश बैठे रहे। इसी बीच वेटर कॉफी के दो कप रख कर चला गया ।
- ‘गायत्री कैसी है?’
वह थोड़ी देर तक चुप रही। फिर बोली
- “रिकवर कर गई है अब तो।’
- “मेरे पूछने का मतलब यह तो नहीं था !” मैंने सफ़ाई देनी चाही।
- “उसने दो-तीन दिनों की छुट्टियाँ ले रखी हैं...!”
- “क्या उसे मालूम था कि मैं आने वाला हूँ ...?”
- “शायद...!” कहकर उसने कुछ क्षण का मौन साध लिया ।
- “आपको कमिटमेंट करना ही नहीं चाहिऐ था, सर! शुरू से ही उसे बता देते कि इस रिश्ते का कोई भविष्य नहीं है...आस टूटने पर बहुत दुख होता है।”मैंने चुपचाप सिर झुका लिया।
- “अपनी बिरादरी की सारी लड़कियाँ मर गई हैं क्या …?”वो टीसते घाव के छटपटाहट भरे दिन थे। बहुत सारी परछाइयाँ एक ही लहजे में चीखती थी उन दिनों। मन की कोमल खाल पर कुछ सटाक-सटाक पड़ रहा था। निशान कहीं अंदर तक बन रहे थे।
गायत्री का पता लेकर मैं चला आया।
सारा शहर पीली रौशनी से जगमगाने लगा था। ऑटो एक अपार्टमेंट के सामने रुका था। गली ख़ामोश थी। सहसा मेरी नज़र पास की पुरानी इमारत पर लगे एक मोबाइल कंपनी की पीली होल्डिंग पर अटक गई ‘यह अब तक यहीं है।‘ मैं हैरत में था।
कुछ साल पहले जब यहाँ बस्तियाँ नहीं थी। शहर के बाहर खाली पड़े ये सूने प्लॉट्स सड़क से गुज़रने वाले राहगीरों को निहारा करते थे। सिर्फ़ यही अकेली पीली होल्डिंग दूर से जगमगाती थी। आज उस पर एक बुझता हुआ सितारा अटका था।
एक शाम दो सितारे भटकते हुऐ शहर से दूर निकल आऐ थे।अंधेरा बढ़ चला था। दोनों बिलकुल एक जैसे लगते थे। एक दूसरे के काफ़ी करीब। अपनेपन के एहसास से भरे-भरे। उनकी आँखों में सुखद भविष्य के उम्मीद की चमक थी। साँसें लय पर थिरक रही थीं। उस प्रेम की साक्षी वह इमारत, जिसके ललाट पर टँगी थी ‘पीली होल्डिंग’।
यह दोनों का फैसला था। प्रेम का पहला आशियाना यहीं होगा। प्लॉट ख़ुशी से भर उठा। सितारों ने ज़ोर से भींच ली, एक दूसरे की हथेलियाँ। उनका निश्चय दृढ़ था।
कहाँ से कहाँ चला गया हूँ मैं। गायत्री अभी भी वहीं है। आत्मग्लानि से भर उठा था मैं। उसका सामना कैसे करूँगा?... उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी?... बहुत कुछ मन के अंदर अंधड़ की तरह उमड़ने-घुमड़ने लगा था। मुझे नहीं आना था शायद। अब जब सब कुछ ठीक चल रहा है। मैंने कॉल बेल बजाई । दरवाजा खुला। गायत्री ही थी। हल्की गुलाबी साड़ी में.
- “आप...” पहले वह थोड़ा ठिठकी। फिर उसने अंदर आने का आग्रह किया।बड़े ही ढंग से उसने बैठक सजाई थी। किताबें, सोफा, दीवार से सजी पेंटिग्स ...सब कुछ शालीन था। हम एक दूसरे के सामने ख़ामोश बैठे थे। दोनों ही असहज़। कुछ देर बाद उसने चाय का कहकर मुझे उबार लिया। जब वह चाय लेकर आई तो थोड़ी सहज़ थी। मैंने भी फ़ीकी मुस्कान के साथ ख़ुद सँभाल लिया था। इधर-उधर की बातें शुरू हो गई थीं। वह कहीं से परेशान या उदास नहीं दिखी। वही पहले वाली गायत्री। हालाँकि उसने ज़रूर कहा कि मैंने वजन बढ़ा लिया है। मेरी पत्नी बहुत खिलाती-पिलाती होगी। उसने भी अब कुछ-कुछ बनाना सीख लिया है।
सब कुछ ठीक देख मन को तसल्ली हुई। मैंने घड़ी पर नज़र डाली। वक़्त हो चला था। दरवाज़े से निकलते वक़्त मैं ठिठक गया- “आखिर यही जगह.....क्यों?
वह चुप रही। कुछ सोच रही थी शायद। फिर बोली
- ‘अच्छी चीजों को सँभालने की आदत जो है। जो इस जगह कभी तय हुआ था, वह लफ़ज़ी नहीं था। उसमें मैं भी थी। मेरे लिऐ वह बेहद अहम क्षण थे...बस उसको जीने की चाह थी। कुछ भी लंबे समय तक रिक्त नहीं रहता। आपकी शादी की ख़बर आई थी। मैंने गृह प्रवेश करा लिया...।‘
बातें ख़त्म हो चुकी थीं। हम ख़ामोश साथ-साथ चलते मेन गेट तक आऐ। विदा करते वक़्त उसके चेहरे पर स्मित मुस्कुराहट थी।
ऑटो में बैठते वक़्त मेरी नज़र उस पीली होल्डिंग पर पड़ी। हमारी पुरानी हमदम। मैं मन ही बुदबुदाया - ‘उसका ख़याल रखना दोस्त।‘