'मैं मगर बन चुका बग़ावत'
'मैं मगर बन चुका बग़ावत'
मेरी ज़बाँ पर नहीं टिकती ज़माने की ख़राश
जो मुझे बांध रहे हैं, उन्हें आईने से डरने दे ।
मैं फिर ख्वाहिशें बेशुमार बुन लूंगा
पैरों से ये ज़ंजीरें निकलने दे ।
मिट्टी का बना गुलदान हूँ मैं भी
मगर कागज़ी फूलों से नहीं सजूंगा ।
कुछ तो इज़्ज़त बना लूंगा ज़माने में
जो चिराग बन सदियों तक जलूँगा ।
तुम झुका सकते हो सर-नज़र
तुमको ये हक़ है ।
मैं मगर बन चुका बग़ावत
मेरी कहानी और है ।
'बन्दे तू इस राह न जा
आगे मुश्किल और गम है
मैं मगर कहता यही
इक ज़िंदगानी कहाँ कम है ।