समर्पित
समर्पित
पिछले तीन दिनों से लगातार रोये जा रही थी। आंसू सूखने का नाम ही नहीं ले रहे थे। तन मन सब गहरे आघात से पस्त था। क्यों खोला उसने दरवाजा दो अजनबियों के लिए ? कैसे कर दी इतनी बड़ी भूल ? वो दरिंदे ना सिर्फ रुपए पैसे बल्कि उसे भी लूट ले गए थे। हर तीन चार घंटे में बार बार नहा रही थी फिर भी उस लिजलिजे स्पर्श को मिटा नहीं पा रही थी।
पति बहुत कोशिश कर रहे थे उसे ढाढस दे रहे थे "चुप हो जाओ। एक दुर्घटना हो गई सो हो गई। भूल जाओ। मान भी जाओ न"
पर वो तो अब मैली हो गयी थी। पति से नजरें भी नहीं मिला पा रही थी। बार बार एक ही बात बोले जा रही थी "अब मैं तुम्हारे लायक नहीं रह गयी जी। सब ले गए वो मेरा -सब कुछ लूट ले गए"
फिर पति ने उसका हाथ पकड़ा और उसे सहेज कर समेट कर बिस्तर पर ले गए। उसे प्यार से बिठा कर साथ में बैठ गए। कुछ देर तक मौन रहे। फिर धीरे से उसकी ठुड्डी को ऊपर उठा कर उसकी आँखों में आंख डाल कर बोले,
"क्या तुमने उन्हें वैसे ही मुस्कुरा कर देखा था जैसे मुझे देखती हो? क्या उन्हें भी प्यार से वही सब बोला था जो सिर्फ और सिर्फ इस संसार में मेरे कानो ने सुना है? क्या उनके सीने में अपना मुंह वैसे ही शरमा कर छुपाया था जैसे मेरे सीने में छुपा लेती हो? नहीं न। वो तो बस जबरदस्ती तुम्हारा शरीर छू पाए। तुम सिर्फ शरीर तो नहीं हो। शरीर तो सभी औरतों का एक सा ही होता है! तुम्हे, तुम तो तुम्हारी आत्मा, चेतना और विचार बनाते हैं। तुम्हारी मर्जी के बिना तुम्हे कोई नहीं पा सकता। मैंने पाया है तुम्हे और एक दुर्घटना की वजह से तुम्हे खोना नहीं चाहता। तो एक बुरा सपना समझ भूल जाओ। उन्हें उनके किये की सजा मिलेगी ही मिलेगी। पर तुम क्यों खुद को और मुझे सजा दे रही हो बार बार उन को याद कर" इतना कह कर प्यार से उसका माथा चूम लिया पति ने और उसका मुंह हमेशा की तरह अपनी छाती में छुपा लिया।
वो भी हमेशा की तरह मुस्कुराने लगी। दुःस्वपन बिसरा कर वापस उन्ही की हो गयी। उन्ही की और सिर्फ उन्ही की जैसे की हमेशा से होती आयी थी। उस रूप में सिर्फ और सिर्फ पति की ही तो थी वो, पूर्ण समर्पित और इस समर्पण पर गर्वित !!