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टूटन

टूटन

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सुबह से ही शीतल को सिर में भयानक दर्द महसूस हो रहा था, ऊपर से पाँच क्लास लगातार और वो भी सीनियर क्लासेस में। दोपहर तक सिर दर्द से मानो फटा ही जा रहा था। प्रधानाचार्य जी से अनुमति लेकर शीतल छुट्टी होने से करीब एक घंटा पहले ही घर आ गई थी।

ताला खोलते हुए उसकी नज़र ज़मींन पर पड़ी हुई डाक पर पड़ी। डाक उठा कर भीतर आई और लापरवाही से उन्हें बैग के साथ ही मेज पर पटक दिया। इस वक्त उसे आराम की सख्त ज़रूरत थी। दवा खाकर शीतल मुँह ढक कर तुरंत सो गयी।

एकेडेमिक कोर्डिनेटर के पद पर काम करते हुए उसे पूरे पाँच वर्ष हो चुके थे। पच्चीस वर्ष पूर्व एक हिंदी शिक्षिका के तौर पर उसने इस स्कूल में कार्य करना शुरू किया था। इतने वर्षों में वह बच्चों के काफी नज़दीक आ गयी थी। उनके हाव-भाव से, उनके व्यवहार से समझ जाती थी कि उनके मन में क्या चल रहा है।

बच्चों को समझने और समझाने का उसका अपना ही तरीका था। पढ़ाने के अनोखे अंदाज़ ने सभी का दिल जीत लिया था। सभी, चाहे छात्र हों, सहकर्मी शिक्षक हों या फिर सहायक स्टाफ, उसके आत्मीय और स्नेहिल व्यवहार के कायल थे। हालाँकि वह एक अनुशासनप्रिय और कड़क शिक्षिका के रूप में जानी जाती थी, जो बहुत सारा गृहकार्य देतीं हैं और बहुत सारा लिखवाती भी हैं पर हैं बहुत अच्छी। बच्चे पढ़ाई के मामले में उससे बहुत डरते थे पर अपनी बात कहने में ज़रा भी उनको डर नहीं लगता था। यही कारण है बच्चे उसका कहना बहुत मानते थे। खुल के अपनी बात कह देते थे। शिक्षा और बच्चों के प्रति पूरी तरह से समर्पित थी वह। शीतल की कार्य कुशलता और प्रबंधकीय गुणों से प्रभावित होकर उसे एकेडेमिक कोर्डिनेटर के पद पर नियुक्त किया गया था और वहाँ भी उसने अपनी योग्यता सिद्ध कर दी थी।  

शीतल की जब आँख खुली तो शाम के छह बज रहे थे। ‘काम वाली आती ही होगी’ ऐसा सोच ही रही थी कि दरवाज़े पर घंटी बज उठी। झरना को कड़क सी चाय बनाने के लिए बोल कर मेज पर लापरवाही से पड़े पत्रों को उलटने पुलटने लगी। दवा ने अपना असर दिखा दिया था। सिर दर्द अब काफी कम हो चुका था।

डाक को टटोलते हुए उसका हाथ रुक गया एक जानी पहचानी चिट्ठी पर। बाकी सब डाक अलग रख उसने सबसे पहले उसी चिट्ठी को खोल कर उत्सुकता से पढ़ना शुरू किया, देखे तो ज़रा आज क्या लिखा है हमारी प्रिया ने... “प्रिय मैडम जी, नमस्ते, आशा है आप अच्छी होंगी। सोचा सबसे पहले आप को ही ये खुश खबर सुना दूँ। मैं दादी बन गई और आपका लाड़ला छात्र रोहन, पापा। माँ और बेटा दोनों बिलकुल ठीक है। मैडम आज मुझे बेहद ख़ुशी हो रही है अपने पोते को अपनी गोद में लेते हुए। मैंने कभी सोचा भी न था कि कभी ये दिन भी आयेगा। ह्रदय से आभारी हूँ कि आपने मेरे रोहन की माँ को बचा लिया वरना बिन माँ का-सा बेचारा आज न जाने कहाँ होता... ” और भी बहुत कुछ लिखा था प्रिया ने। शीतल वह सब कुछ नहीं पढ़ पाई। उसकी आँखें के सामने के दृश्य चिट्ठी के शब्दों से फिसलते हुए उस दिन पर जा कर स्थिर हो गए जब...

रोज़ की तरह व्यस्तता से भरा दिन था... ब्रेक टाइम ख़त्म होने में बस पाँच मिनट ही बाकी थे। फ्रेश होने के बाद शीतल कोऑर्डिनेटर्स रूम में आकर बैठी ही थी। टिफिन खोल पहली कौर तोड़ने ही वाली थी कि कुछ बच्चे धड़धड़ाते हुए तेज़ी से बिना अनुमति लिए ही भीतर घुसे चले आये। पसीने से लथपथ, धूप में खेलने से सभी के चेहरे एकदम सुर्ख, अस्तव्यस्त यूनिफार्म। कई बच्चे एक साथ चिल्लाए, “मैम ! जल्दी चलिए! वो फिर मारा-मारी कर रहा है। दीपक को बुरी तरह से पीटे जा रहा है।” थकान और भूख से बेहाल उसका मन हुआ कि कह दे “स्पोर्ट्स टीचर को बुलाओ। उनकी ज़िम्मेदारी है।” ‘मैम उसके माथे से खून भी निकल रहा है”, तभी दूसरे बच्चे ने जल्दी से कहा। यह सुनकर तो वह रुक न सकी। टिफिन को वैसे ही खुला छोड़ झटपट मैदान की ओर लपकी। “उफ्फ!! इस रोहन ने तो नाक में दम कर रखा है। जब देखो तब मारा-मारी करते रहता है। कहाँ से इतना गुस्सा भर गया है इसके दिमाग में। ” – झुंझलाती हुई तेज़ क़दमों से चलती हुई वह मैदान में पहुंची।  

मैदान में रोहन दीपक पर बुरी तरह से पिला पड़ा था। दनादन घूंसों से, मुक्कों से प्रहार पर प्रहार किये जा रहा था। कुछ बच्चे छुड़ाने की कोशिश में खुद भी पिट रहे थे। दीपक के आँख, मुंह और नाक से खून बह रहा था। चेहरे और हाथों पर नील के निशान, किसी तरह उसने दोनों को अलग किया। शीतल ने क्रोध भरी नज़रों से रोहन की चेहरे की और देखा, उसका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। यूनिफोर्म धूल-मिट्टी में सनी हुई। आँखों में तो मानो खून उतर आया था उसके। रोहन को चुपचाप खड़े रहने की सख़्त हिदायत देकर शीतल ने पहले जल्दी से दीपक को प्राथमिक चिकित्सा देने की व्यवस्था करवाई।

एक अन्य बच्चे को रोहन को अपने ऑफिस तक लाने का इशारा कर शीतल दीपक को लेकर मुड़ गई। दीपक बुरी तरह से सहमा हुआ था। कक्षा छह का छात्र था। डर के मारे उसका शरीर कांप रहा था। पूछने पर उसने बताया कि सिर्फ अपना टिफिन न देने की बात पर ही रोहन ने इतनी बुरी तरह उसे पीट दिया था।  

“तो तुम्हें टिफिन शेयर करना चाहिए था। स्कूल में सिखाया जाता हैं न!!” रोते हुए दीपक को अपने सीने से चिपटाए उसकी पीठ सहलाते हुए शीतल ने समझाया।

दीपक ने धीरे से सॉरी कह दिया पर शीतल जानती थी कि रोहन ने ऐसा पहली बार नहीं किया था। शीतल अन्दर से वास्तव में बेहद चिंतित और डरी हुई भी। दीपक की आँख को कुछ अंदरूनी नुक्सान न पहुँचा हो और अगर ऐसा हुआ तो दीपक के माता-पिता बहुत झमेला करेंगे।  

दीपक को प्राथमिक चिकित्सा दे दी गई थी। वह विद्यालय के चिकित्सीय कक्ष में बिस्तर पर लेटा हुआ था। अब तक उसके माथे से बहता हुआ खून भी रुक चुका था। पर वहाँ एक बड़ा सा गुमड उभर आया था।

दोनों छात्रों के अभिभावकों को स्कूल तुरंत पहुँचने की सूचना फोन पर दी जा चुकी थी। दीपक के पिताजी ने ऑफिस में अपने बच्चे की हालत देख कर हंगामा खड़ा कर दिया। वे रोहन पर पुलिस कार्यवाही करने की धमकी भी देने लगे। आखिर अनुशासन भी कोई चीज़ होती है। बड़ी मुश्किल से मामला तब शांत हुआ जब प्रिंसिपल ने रोहन के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए रोहन द्वारा इस प्रकार का कृत्य आगे दोबारा न दोहराने के शपथ पत्र पर उसके पिता के हस्ताक्षर लिए और दोबारा होने की स्थिति में उसका स्कूल से नाम काट देने की चेतावनी दी तथा अगले सात दिनों तक उसे विद्यालय में न आने का आदेश भी सुनाया गया।

शीतल प्रधानाचार्याजी के कक्ष से बाहर निकली तो देखा कि रोहन कक्ष के बाहर ही खड़ा था। छोटी ऊँगली का नाखून दाँतों से कुतर रहा था। उसके चेहरे पर पछतावे जैसे कोई निशान न थे। पत्थर की तरह कठोर उसका भावहीन चेहरा देख कर शीतल एक बार को तो दहल सी गई। वह और भी चिंतित हो गई। कक्षा सात में पढ़ने वाला छोटा सा बच्चा और दिमाग में इतना गुस्सा!! आखिर क्या चलता होगा इसके मन में जब यह किसी को पीट रहा होता है !। कैसे झेलता होगा यह इतना तनाव ! किस बात का गुस्सा निकालता है हर किसी पर ! दिमाग ख़राब है क्या इसका ! 

ऐसा पहली बार तो नहीं हुआ था जब रोहन ने किसी बच्चे को इतनी बुरी तरह से मारा हो। उसका आक्रामक रवैया और हरेक से गलत व्यवहार सभी टीचर्स के लिए परेशानी की वजह बना हुआ था। हालाँकि वह पढ़ने लिखने में तेज़ था और ऐसा भी नहीं था कि उसका ऐसा आक्रामक व्यवहार उसके स्वभाव का स्थाई अंग है किन्तु कभी भी, किसी भी छोटी छोटी बातों पर एकदम से आगबबुला हो जाना और फिर बिना सोचे समझे किसी की भी बुरी तरह से पिटाई कर देना किसी के लिए भी सामान्य बात नहीं कही जा सकती। वह अनेक बार प्यार से, डांट से उसे समझा भी चुकी थी कि इतना गुस्सा करना, मार-पीट करना अच्छा नहीं। रोहन वादा भी करता अपने व्यवहार पर नियंत्रण रखने की लेकिन फिर वही सब। डायरी में कितने नोट लिखे। अभिभावकों को भी बुलाया गया। स्कूल की तरफ से काउंसिलिंग के लिए भी भेजा जा चुका था। स्कूल काउन्सिलर भी माता-पिता दोनों से बात करके ही किसी प्रकार का सुझाव या परामर्श देते हैं। हर बार केवल उसके पापा ही स्कूल आते रहे थे। यह भी अपने आप में आश्चर्य की बात थी। रोहन निलंबित भी हुआ, पर नतीजा शून्य ... कुछ दिन शांत रह कर फिर वही ढाक के तीन पात...

शीतल ने रोहन के पिता से कई बार रोहन के इस आक्रामक और गुस्सैल व्यवहार के विषय में बात भी की थी। वे हर बार बस एक ही जवाब देते कि इसकी माँ इसे बहुत मारती है, बुरी तरह मारती हैं। जब भी स्कूल से कोई शिकायत आती है बस मारने लग जाती है। पढ़ाती भी वही है। हर छोटी छोटी बातों पर मारती है। इसीलिए ये ऐसा हो गया है। मैं ही इसे संभालता हूँ।

शीतल को बेहद आश्चर्य का हुआ था रोहन की माँ के बारे में यह सब सुनकर।  

उन्होंने यह भी बताया कि जब से रोहन ने होश संभाला है और स्कूल जाना शुरू किया है तभी से मारने का यह सिलसिला चल रहा है। पर मार लेने के बाद शांत हो जाती है और फिर इसे प्यार भी खूब करती है। इसके लिए इसकी मनपसंद चीज़े बनाकर खिलाती है। घुमाने भी ले जाती है। जब भी वो इसे मारती है मैं इसे उसकी आँखों के सामने से दूर ले जाता हूँ बाज़ार या कहीं भी... जब तक लौटता हूँ तो सब नॉर्मल पहले की तरह जैसे कुछ हुआ ही न हो। फिर बाद में रोती भी उतना ही है जितना मारती है। इसे दुलार भी बहुत करती है। ”

पिछली बार भी उन्होंने ऐसा ही कुछ बताया था कि छोटी छोटी बात पर इसकी माँ इसे बहुत मारती हैं जैसे कि पानी नहीं दिया तो हाथ चला दिया, गृहकार्य पूरा नहीं किया तो पिटाई, डायरी में टीचर्स की शिकायतें तो साइन करने के बजाय पिटाई। उसके मुँह कम और हाथ ज्यादा चलते थे। गलती हो या न हो उसकी पिटाई तो होनी है। बस इससे ज्यादा और कुछ उन्होंने कभी नहीं बताया।

“तो आ पने कभी कारण जानने की कोशिश नहीं की? क्यों मारतीं हैं?”

“जी नहीं ”...

शीतल सोच में पड़ जाती... “क्या ये लोग जानते नहीं कि छोटा हो या बड़ा, मारने से बच्चे उद्दंड ही बनते हैं? इतना छोटा सा बच्चा, और ऐसी मार?”

शीतल के मन में हज़ारों सवाल उठते। जैसे कि तब उस समय पिता रोकते नहीं अपनी पत्नी को, अपने बच्चे को पिटता हुआ देख वे चुप कैसे रह जाते हैं। क्या वे सौतेली माँ है जिसके मन में दूसरे के बच्चे के लिया ज़रा भी दया, ममता, सहानुभूति नहीं या शादी उनकी अपनी मर्ज़ी से नहीं हुई कि वे अपना सारा गुस्सा इस भोले से बच्चे पर उड़ेले दे रही हैं या फिर बच्चा गोद लिया है। अरे, जब बच्चे के लिए मन में ज़रा भी प्यार नहीं तो क्यों लिया गोद। हो न हो रोहन के पिता ही उसकी माँ पर अत्याचार करते होंगे और वे अपनी सारी भड़ास रोहन पर निकलती होंगी। एक दिन तो सचमुच ही उसने अपने संदेह रोहन के पिता पर प्रकट कर दिया।

“नहीं, मैम, ऐसा कुछ नहीं है। रोहन के पापा बड़े शांत भाव से कहा था। हमारी तो लव मैरेज हुई है। हम एक ही मोहल्ले में रहते थे। वो आठवीं में थी और मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। वो मुझे अच्छी लगती थी। बस हमने सोच लिया था कि मुझे नौकरी मिलते ही हम विवाह कर लेंगे। ”

“तो फिर?” शीतल झुंझला उठी। “तो फिर मारती क्यों हैं?” “तो आपके घर में ऐसा क्यों हो रहा है?” अरे उस मासूम पर तरस खाइये ज़रा। कितने मानसिक तनाव से गुजरता है, जब भी वो किसी को पीटता है या गुस्सा होता है। अभी तो ये छोटा है, सातवीं में पढ़ता है। कल को बड़ा होगा। अनेक मानसिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, संवेगात्मक परिवर्तन आएंगे। तब उसे अपने परिवार और माता-पिता के प्यार, अपनत्व और ममता की कहीं ज्यादा ज़रूरत होगी। उम्र के उस नाज़ुक दौर में यदि यह सब बच्चों को न मिले तो उनके कदम गलत दिशा में उठा सकते हैं, वे नशे के शिकार हो सकते हैं, गलत संगत में पड़ अपना भविष्य चौपट कर सकते हैं। ”

उसे वास्तव में रोहन की चिंता सताने लगी। सच्चाई तो यह थी कि उसकी चिंता का कारण था रोहन की माँ। वह माँ जो आज तक कभी स्कूल नहीं आई अपने बच्चे की प्रगति या परेशानियों का हाल लेने। एक मासूम बच्चे के भविष्य और उसकी जिंदगी का सवाल है। कोई माँ इतनी निर्दयी, इतनी निर्मोही आखिर कैसे हो सकती है?”

शीतल ने रोहन के पिता जी से बात करने के लिए उन्हें अपने कक्ष में आने संकेत किया। उसने स्पष्ट रूप से रोहन के पिता से कह दिया कि उसे रोहन की माँ से मिलना है हर हाल में।

“पानी सर से ऊपर गुज़र चुका है मिस्टर वैश्य। जब तक रोहन की माँ मिलने नहीं आयेंगी तब तक रोहन को स्कूल में दोबारा आने की अनुमति नहीं मिलेगी। साथ ही उसका नाम स्कूल से हटा देने की गुज़ारिश भी वो स्वयं प्रन्सिपल से करेगी। आखिर अन्य बच्चों की सुरक्षा का प्रश्न है। अगले दो दिनों के अन्दर रोहन की माँ उसे स्कूल में चाहिए। ” यह कह कर शीतल कोऑर्डिनेटरस रूम से निकल पुस्तकालय की ओर बढ़ गई।

उस दिन फिर उसका किसी काम में मन नहीं लगा। किसी तरह उसने अपनी शेष कक्षाएँ ली और घर चली गयी। अलमारी में रखी छात्रों की कॉपियों का ढेर आज बिना चेक किये ही पड़ा रह गया था। शीतल रोज़ का काम रोज़ निपटने में विश्वास रखती थी पर आज तो उसके दिलो दिमाग पर बस रोहन और उसकी माँ ही छाए रहे... सोचते सोचते शीतल का माथा भन्नाने लगा। खाना खा कर जल्दी ही सो गई। कल फिर स्कूल की भाग दौड़ जो करनी थी।

अगले दिन बेसब्री से रोहन की माँ की प्रतीक्षा कर रही थी। ठीक साढ़े बारह बजे रोहन के माता-पिता उसके रूम में थे। पिता ने एक हाथ में हेलमेट पकड़ा हुआ था और दूसरे में ऑफिस बैग। माँ पर उचटती हुई नज़र डाली और दोनों को बैठने का इशारा किया। हाथ जोड़ कर दोनों ने एक साथ उसे अभिवादन किया। शीतल को माँ के हाव-भाव में सामान्य-सी या यूँ कहना चाहिए एक प्रकार की बेफिक्र सी दिखाई दी। उसे लगा था कि वह परेशान होगी, घबरा भी रही होंगी... बेटे के स्कूल में कोऑर्डिनेटर ने बुलाया है बच्चे के सम्बन्ध में। शिकायतें होंगी ... सवाल जवाब होंगे ... आदि आदि। पर उनके चेहरे पर ऐसा कोई भी संकेत न पाकर शीतल को थोड़ा अचम्भा हुआ।  

टेबल पर लम्बत रखी हुईं डायरियों में से रोहन की डायरी निकालते हुए शीतल ने एक नज़र माँ की तरफ देखा। रंग गोरा ललामी लिए हुए, पतली तराशी हुई सी नाक जिसमें सोने की छोटी सी लौंग चमक रही थी। दाएँ हाथ में भी सोने की चार चूड़ियाँ और बाएँ हाथ में घड़ी बांध रखी थी। जुलाई के दिन थे। पंखा फूल स्पीड से चल रहा था जिससे उसके कथ्थई रंग के बालों की कुछ लटें हवा में लहरा रहीं थी। बीच-बीच में लटें उसके गोरे मुख पर भी छा रहीं थीं जिन्हें वह बार-बार अपने दोनों हाथों से समेटने का भरसक प्रयास कर रही थी। हलके गुलाबी रंग का सूट सलीके से पहन रखा था। “रोहन बिलकुल अपनी माँ की तरह ही है, प्यारा-सा। ” उसने मन ही मन सोचा। कुल मिलाकर एक नज़र में शीतल को रोहन की माँ प्रिया, हाँ प्रिया ही नाम बताया था रोहन के पिता ने मिलवाते समय, सभ्य और सुसंस्कृत, सलीकेदार लगीं और कुछ हद तक समझदार भी। उनके व्यक्तित्व में उसे कुछ भी असामान्य जैसा नज़र नहीं आया। “तो क्या रोहन के पापा ने जो कुछ भी रोहन की माँ के बारे में बताया, वो गलत बताया था?” संशय ने अपना सर उठाया।

शीतल ने बिना किसी भूमिका के रोहन की डायरी खोल कर माँ के सामने रख दी। आज वह केवल माँ से ही बात करना चाहती थी। अकेले में। पिताजी को उसने थोड़ी देर के लिए कोरिडोर में इंतजार करने के लिए भेज दिया। वह जानना चाहती थी कि जो कुछ रोहन के पिता जी ने अपनी पत्नी के बारे में बताया है, उसमें कितनी सच्चाई है।

रोहन के पिता के बाहर जाते ही वे थोड़ी असहज सी लगीं थीं शीतल को।

“क्या रोहन आप लोगों को डायरी दिखाता नहीं है? या आप उसकी डायरी चेक नहीं करतीं?” शीतल ने सीधे सवाल किया।

“जी, करती हूँ”

“फिर? साइन क्यों नहीं हैं? क्या आपने नियम नहीं पढ़े हैं कि डायरी में लिखे सभी नोट पर अभिभावकों के साइन होना ज़रूरी हैं। ”

“आपको मालूम तो होगा कि मैंने आपको यहाँ क्यों बुलाया है?”

“जी, जानती हूँ”, बिलकुल संक्षिप्त सा उत्तर था माँ का।

“क्या आपको अपने बेटे की हरकतों के बारे में मालूम है? उसके गुस्से, उसका असंयत व्यवहार सब ... और कल जो कुछ भी स्कूल में हुआ... और पहले भी कई बार हो चुका है ”

“जी... ”, उन्होंने नज़रें नीची किये हुए ही उत्तर दिया।

पूछने पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं बताया जो कुछ रोहन के पिताजी अब तक बता नहीं चुके थे। पर जो शीतल जानना चाहती थी उस प्रश्न का उत्तर जो अब तक उसे नहीं मिला था। शीतल ने उनकी संवेदनाओं को कुरेदना शुरू किया। उसने बच्चे को मारने-पीटने के बुरे प्रभाव को थोड़ा अधिक बढ़ा-चढ़ा कर बताना शुरू किया। अब जमी हुई बर्फ में दरारें पड़ने लगीं थीं।

“देखिए, बच्चे गीली मिट्टी सरीखे होते हैं। बचपन की छोटी से छोटी बात उनको इतनी गहराई तक प्रभावित करती है कि वे ताउम्र उसे भुला नहीं पाते। उनके कोमल मन और मस्तिष्क पर मारने-पीटने का इतना गलत असर हो सकता है कि उसका आप पर से विश्वास उठ सकता है। वह आपको नापसंद कर सकता है। यहाँ तक कि वह दुनिया की सब माँओं से नफरत तक कर सकता है... ”

शीतल ने महसूस किया यह सुनते ही रोहन की माँ की आँखें भर आईं हैं। दुपट्टे के कोने को वह बड़ी तेज़ी से ऊँगली पर लपेट और खोल रहीं थीं। उनके चेहरे पर मन में चलने वाले तूफान की परछाइयाँ शीतल को साफ दिखाई देने लगीं थीं।

“यह भी हो सकता है मिसेज वैश्य कि... ” एक पल रुक कर वह फिर आगे बोली “... कि वह समस्त स्त्री जाति से ही नफरत करने लगे... ” उनकी आँखों में झाँकते हुए शीतल ने आगे कहा...

“फिर अभी उसकी उम्र कम है, पर जैसे-जैसे वह बड़ा होता जायेगा, गलत दिशा में बढ़ सकता है... घर से भाग सकता है... अपराधी तक बन सकता है... अगर ऐसा हुआ न मिसेज वैश्य तो बहुत बुरा होगा... बहुत ही बुरा... और जानतीं हैं इन सबकी ज़िम्मेदार आप और केवल आप होंगी... एक माँ ही अपने बच्चे को बर्बाद करेगी। ”

“मैं अपनी माँ से नफरत करती हूँ, सिर्फ नफरत” कहते हुए रोहन की माँ की आँखों से आँसुओं की धाराएँ बह निकलीं।

शीतल को अंदाज़ा हो ही चुका गया था कि ज़रूर इसी प्रकार किसी घटना ने प्रिया को जकड़ रखा होगा। वह चुप बैठी उनके भीतर वर्षों की जमी बर्फ को आँसुओं में पिघलता हुआ देखती रही...

 “हमारे घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी मैम... मैं जब छोटी थी न, शायद... ” आंसुओं से भरा चेहरा उन्होंने ऊपर उठाया, “... जबसे होश संभाला, मैंने अपनी माँ को मुझे मारते-पीटते हुए ही पाया... उन्होंने कभी मुझे प्यार नहीं किया... कभी गले से नहीं लगाया... कमरे में बंद कर देतीं थीं... अंधेरे कमरे में... अंधेरे से मुझे बहुत डर लगता था... दो-दो दिन तक मुझे खाना नहीं देतीं थीं... कई बार तो चूल्हे की लकड़ी से मेरी पिटाई की उन्होंने... कभी बाहर नहीं निकलने देतीं थी... कोई तीज त्यौहार आता तो पिताजी के सामने कुछ अच्छा खाने को मिल जाता था... वरना तो... पर मेरे पिता जी मुझे प्यार भी करते थे और माँ की मार से बचाते भी थे... । वे देर से घर आते थे न! उनको इस बारे में कुछ पता नहीं चलता था... मैं बस आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाई। फिर रोहन के पिताजी से शादी के बाद जब मैं उस घर से निकली तब कहीं जाकर माँ की पिटाई से बच सकी... ” अपने दुपट्टे से चेहरा पोछते हुए वे बोलीं। शीतल सुन्न बैठी रह गयी। उसका दिल भर आया था।

शीतल ने उन्हें चुप कराने का कोई प्रयास नहीं किया... आँखों से बहते खारे जल के साथ शायद आज उनके दिल की सारी कड़वाहट भी निकल जाये... वह एक अजीब सुकून, एक ठंडक सा अनुभव कर रही थी... उसने उन्हें चुप कराने का कोई प्रयास नहीं किया... आँखों से बहते खारे जल के साथ शायद आज उनके दिल की सारी कड़वाहट भी निकल जाये...

“जब भी मैं रोहन को देखती हूँ मुझे अपनी माँ की मार याद आ जाती है। मैं सब भूल जाती हूँ। मुझे इतना गुस्सा आता है कि बस इसे अंधाधुंध पीटने लगती हूँ लेकिन बाद में गुस्सा उतरने के बाद उतना ही रोती भी हूँ। सच, मैं मारना नहीं चाहती उसे। पता नहीं मुझे क्या हो जाता है !!”

 “आपके मन में कभी यह बात नहीं आई मिसेस वैश्य कि आपने अपनी माँ से जो इतनी मार खाई पर आप अपने बच्चे को कभी नहीं मारेंगी... उसके लिए निर्मम माँ नहीं साबित होंगी ... जो कष्ट,पीड़ा, टूटन आपके बचपन को सहन करनी पड़ी, आप अपने बेटे को कभी नहीं झेलने देंगी?” आश्चर्यचकित शीतल ने आगे कहा, “आप ऐसा भी तो सोच सकतीं थीं कि आप उसे बेहद प्यार देंगी, वह सब कुछ देंगी जो आपको आपकी माँ से नहीं मिला जिसकी कि आप अधिकारी थी? आप लोगों ने किसी मनोचिकित्सक से परामर्श लेने की सामान्य सी बात के बारे में भी नहीं सोचा। यह कोई छोटी बात थी?”

यह सुनकर रोहन की माँ अवाक् सी होकर शीतल को देखती रह गयी जैसे उसने कोई अनोखी बात कह दी हो।

अंधकार में रहते-रहते व्यक्ति को अंधेरे की इतनी आदत सी हो जाती है कि वह भूल ही जाता है कि खिड़की खोल कर भी बाहर फैले उजाले को पा सकता है। शाम के झुटपुटे में दृश्य जब अस्पष्ट दिखाई देने लगता है तब भी वह उजाले के लिए कोई जतन नहीं करता और जब बाहर से आकर कोई अन्य व्यक्ति कमरे में उजाला करने के उद्देश से अचानक ही बिजली का बटन दबा देता है, तब कहीं जाकर उसे यह अहसास होता है कि अब तक वह कितने अंधेरे में था और स्वयं बटन दबा कर भी उजाला कर सकता था।

सच ही है क्रोध एक ऐसी तीव्र नकारात्मक भावना है जो व्यक्ति के सोचने समझने की क्षमता पहले नष्ट कर देती है और फिर विवेकशीलता का हरण कर अपना भयावह रूप दिखाती है।

शीतल का दिल भर आया। वह अपनी जगह से उठी। उनकी पीठ सहलाई। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि किसी माँ का ऐसा रूप भी उसे देखने को मिले सकता है। बचपन की मार की ऐसी ह्रदय विदारक घटना उसने कभी न सुनी थी जिसने एक माँ के दिल से ममता का पूरा स्रोत सुखा दिया था... एक माँ को उसके अपने जाए बच्चे से इस कदर दूर कर दिया था कि दूसरी पीढ़ी भी बर्बादी के कगार पर पहुँच गयी।

शीतल काफी देर तक रोहन की माँ को एक छोटे बच्चे के समान सांत्वना देती रही। उन्हें सही गलत समझाती रही।

आज न जाने क्यों उसे भरोसा था कि आज के बाद रोहन की स्थिति में सुधार अवश्य होगा और हुआ भी वैसा ही। इसके बाद माँ और बेटे एक दूसरे के करीब आने लगे थे जिसका प्रमाण था रोहन की आक्रामकता में कमी। उसकी मारने पीटने की आदत में भी आश्चर्यजनक रूप से सुधार होने लगा। रोहन और उसकी माँ अब शीतल के दिल में एक खास जगह बना चुके थे...

“मेमसाब चाय तो ठंडी हो गई” झरना ने अचानक ही आ कर उसे मानो उसे सपने से जगा दिया।

शीतल ने मुस्कुराते हुए संतोष की सांस ली और पत्र मोड़ कर मेज पर रख दिया। झरना को ठंडी हो चुकी चाय को फेंक कर नयी ताज़ी कड़क चाय बनाने के लिए कह कर फोन पर प्रिया को बधाई सन्देश लिखने लगी।

 

                                        


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