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विनाशकारी अण्डे - 7.1

विनाशकारी अण्डे - 7.1

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रोक्क


पता नहीं कि क्या वाक़ई में लेफ़ोर्तोव वेटेरिनरी इन्स्टीट्यूट के टीके बढ़िया थे, या समारा की क्वरन्टाइन टीमें कुशल थीं, या फिर कालुगा और वोरोनेझ में अंड़ों की जमाखोरी के विरुद्ध उठाए गए क़दम प्रभावशाली थे, या मॉस्को की आपात-कमिटी का काम सफ़ल एवम् सराहनीय था, मगर ये अच्छी तरह मालूम हो गया कि पेर्सिकोव की अल्फ्रेड के साथ हुई अंतिम मीटिंग के दो सप्ताह बाद रिपब्लिक में मुर्गियों के मामले की पूरी तरह सफ़ाई हो चुकी थी। कस्बाई शहरों के पिछवाड़े के आँगनों में मुर्गियों के अनाथ पंख बिखरे थे, जो आँखों में आँसू भर देते, और अस्पतालों में कुछ अंतिम खवैये डायरिया और खून की उल्टियों से निजात पा रहे थे। सौभाग्य से पूरे देश में मरने वालों की संख्या एक हज़ार से ज़्यादा नहीं थी। बड़े पैमाने पर गड़बडी भी नहीं हुई। हाँ, वोलोकोलाम्स्क में ज़रूर एक फ़कीर प्रकट हुआ था, जिसने यह घोषित कर दिया कि मुर्गियों के विनाश के पीछे कोई और नहीं , बल्कि कमिसार ही ज़िम्मेदार हैं, मगर उसकी ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। वोलोकोलाम्स्क के बाज़ार में कुछ पुलिस वालों की पिटाई हो गई जो औरतों के हाथों से मुर्गियाँ छीन रहे थे, और स्थानीय पोस्ट एवम् टेलिग्राफ़ ऑफ़िस की शाख़ा की खिड़कियों के शीशे तोड़ दिए गए। मगर, सौभाग्य से स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों ने फ़ौरन कुछ कदम उठाए जिनके फलस्वरूप सबसे पहले, फ़कीर कोई नामो-निशान छोड़े बगैर ग़ायब हो गया; और इसके बाद टेलिग्राफ़ ऑफ़िस के शीशे बिठा दिए गए।

उत्तर में अर्खांगेल्स्क और स्यूम्किन वीस्योलक पहुँचने के बाद प्लेग अपने आप ही इस वजह से रुक गया कि उसे आगे बढ़ने के लिए कोई जगह ही नहीं थी – श्वेत सागर में, जैसा कि सर्व विदित है मुर्गियाँ होती ही नहीं हैं। वो व्लादीवोस्तोक में भी रुक गया, क्योंकि आगे महासागर था। दूर दक्षिण में- ओर्दुबात, जुल्फी और कराबुलाक के तप्त भागों में नष्ट हो गया और शांत हो गया, और पश्चिम में आश्चर्यजनक तरीके से पोलैण्ड और रुमानिया की सीमा पर ही रुक गया। या तो वहाँ की आबोहवा अलग तरह की थी, या फिर पड़ोसी राज्यों द्वारा प्रयुक्त रोक-थाम के उपाय कारगर साबित हुए, मगर वास्तविकता ये थी कि प्लेग आगे नहीं बढ़ा। विदेशी अख़बार इस अप्रत्याशित बीमारी के बारे में ज़ोर-शोर से बहस कर रहे थे, मगर सोवियत गणराज्यों का शासन बिना कोई शोर मचाए निरंतर काम करता रहा। ‘मुर्गियों के प्लेग से संघर्ष’ के लिए बनी आपात-कमिटी का नाम बदलकर ‘गणराज्य में मुर्गीपालन के पुनर्जीवन एवम् संवर्धन’ से संबंधित आपात-कमिटी कर दिया गया, जिसके सोलह सदस्यों में एक नई, असाधारण त्रोइका का समावेश था। “दोब्रोकूर (वालंटियर-मुर्गियाँ)” की स्थापना की गई जिसके मानद डेप्युटी-चेयरमैन के रूप में पेर्सिकोव और पोर्तुगालोव को शामिल किया गया। अख़बारों में छपी उनकी तस्वीरों के नीचे शीर्षक प्रकट हुए: “विदेशों से थोक में अण्डे ख़रीदे जाएँगे”, और “ह्यूज़ महाशय अण्डों का प्रचार रोकने की कोशिश में”। पूरे मॉस्को में पत्रकार कोलेच्किन का ज़हरीला लेख लोकप्रिय हो रहा था, जो इन शब्दों से समाप्त होता था: “महाशय ह्यूज़, हमारे अण्डों को नज़र न लगाएँ, आपके पास अपने अण्डे हैं!”

पिछले तीन सप्ताहों में प्रोफेसर पेर्सिकोव पूरी तरह पस्त हो गया था और बुरी तरह थक गया था। मुर्गियों वाली घटनाओं ने उसे अपने मार्ग से पूरी तरह विचलित कर दिया था और उस पर दोहरा बोझ डाल दिया था। पूरी-पूरी शाम उसे मुर्गियों वाली कमिटी की सभाओं में भाग लेना पड़ता था और समय-समय पर अल्फ्रेड ब्रोन्स्की या यांत्रिक पैर वाले मोटे से लम्बी-लम्बी बहस करनी पड़ती थी। प्रोफेसर पोर्तुगालोव, प्राइवेट-रीडर इवानोव और बोर्नगार्त के साथ मिलकर प्लेग के बेसिलस की खोज में मुर्गियों की चीर-फाड़ करनी पड़ती थी, उन्हें माइक्रोस्कोप के नीचे रखकर उनका अध्ययन करना पड़ता था; और तीन शामों को बैठकर अति शीघ्रता से एक ब्रोश्युर भी लिखना पड़ा “प्लेग से प्रभावित मुर्गियों के यकृत में हुए परिवर्तनों के बारे में।”

मुर्गियों के क्षेत्र में पेर्सिकोव बगैर किसी विशेष उत्साह के काम कर रहा था, और यह बात समझ में भी आती थी – उसका पूरा दिमाग़ दूसरी – मुख्य और महत्वपूर्ण - समस्या में उलझा था, उसमें, जिससे उसे इस मुर्गियों वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने ज़बर्दस्ती खींच कर अलग कर दिया था, मतलब लाल किरण में। अपने पहले से ही ख़राब स्वास्थ्य को और अधिक ख़राब करते हुए, भोजन और नींद के समय से कुछ घंटे छीनकर, कभी-कभी प्रेचिस्तेन्को वापस लौटने के बदले इंस्टीट्यूट के मोमजामा चढ़े दीवान पर ही झपकी ले लेता - इस तरह पेर्सिकोव रातों में अपने चैम्बर्स और माइक्रोस्कोप के पास ही काम करता रहता।

जुलाई के अंत तक गड़बड़ कुछ शांत हो गई। नवगठित कमिटी के कार्य-कलाप भी साधारण गति से चलने लगे, और पेर्सिकोव अपने अधूरे काम की ओर लौटा। माइक्रोस्कोप्स के नीचे नए प्रिपैरेटिव रखे गए, चैम्बर में लाल किरण के नीचे जादुई शीघ्रता से मछलियों और मेंढकों के अंडसमूह बढ़ रहे थे। केनिग्सबेर्ग से हवाई जहाज़ में ख़ास तौर से ऑर्डर किए गए शीशे मंगवाए गए, और जुलाई के अंतिम दिनों में इवानोव की निगरानी में कारीगरों ने दो नए, बड़े चैम्बर्स को सुसज्जित कर दिया जिनमें किरण अपने उद्गम पर सिगरेट के पैकेट जितनी चौड़ी थी और दूसरे सिरे पर – पूरे एक मीटर। पेर्सिकोव ने प्रसन्नता से अपने हाथ मले और किन्हीं रहस्यमय एवम् क्लिष्ट प्रयोगों की तैयारी करने लगा। सबसे पहले उसने शिक्षा विभाग के कमिसार से बात की, और रिसीवर ने उसे अत्यंत प्रिय और हर तरह के आश्वासन का वादा किया। इसके बाद पेर्सिकोव ने सर्वोच्च कमिशन के पशुपालन विभाग के प्रमुख प्ताखा-पोरोस्यूक से बात की। प्ताखा ने बड़ी गर्मजोशी से पेर्सिकोव की बात सुनी। बात हो रही थी प्रोफेसर पेर्सिकोव के लिए विदेश से किसी बहुत बड़े ऑर्डर की। प्ताखा ने फोन पर कहा कि वह फ़ौरन बर्लिन और न्यूयॉर्क में तार भेज देगा। इसके पश्चात् क्रेमलिन द्वारा पूछा गया कि पेर्सिकोव का काम कैसे चल रहा है, और उस महत्वपूर्ण और मीठी आवाज़ ने पूछा कि पेर्सिकोव को कार की ज़रूरत तो नहीं है।

 “नहीं, धन्यवाद। मुझे ट्रामगाड़ी में जाना ज़्यादा अच्छा लगता है,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया।

 “मगर क्यों?” उस रहस्यमय आवाज़ ने हल्के से मुस्कुराते हुए पूछा।

पेर्सिकोव के साथ अक्सर सब लोग या तो भय मिश्रित आदर से बात करते या फिर प्यार भरी मुस्कान के साथ जैसे किसी छोटे मगर अत्यन्त महत्वपूर्ण बच्चे से की जाती है।

 “उसकी रफ़्तार ज़्यादा तेज़ होती है,” पेर्सिकोव ने जवाब दिया, जिसके बाद टेलिफोन से आती खनखनाती, मोटी आवाज़ ने जवाब दिया:

 “ठीक है, जैसी आपकी मर्ज़ी।”

एक सप्ताह और बीत गया, जिसके दौरान मुर्गियों की अपेक्षाकृत शांत होती समस्याओं से स्वयम् को अधिकाधिक दूर रखते हुए पेर्सिकोव पूरी तरह से किरण के अध्ययन में जुट गया। अनिद्रा और अत्यधिक थकान के कारण उसका सिर मानो पारदर्शी और हल्का हो गया। अब उसकी आँखों के सामने से लाल छल्ले हटते ही नहीं थे, और लगभग हर रात पेर्सिकोव इंस्टिट्यूट में ही गुज़ारता था। एक बार उसने इस प्राणि-शास्त्रीय आश्रयस्थल को छोड़ा ज़रूर था, जिससे कि प्रेचिस्तेन्को पर स्थित त्सेकुबु (वैज्ञानिकों की जीवन शैली सुधारने संबंधी सेंट्रल कमिशन) के विशाल हॉल में अपनी किरण और अंडों के कोशाणुओं पर उसके प्रभाव के बारे में अपना शोध-पत्र पढ़ सके। ये सिरफिरे प्राणिशास्त्रज्ञ की महान जीत थी। स्तम्भों वाले हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट से छत से कुछ-कुछ बिखर रहा था, गिर रहा था, और सनसनाते आर्क लैम्प्स त्सेकुबिस्तों के काले जैकेट्स और महिलाओं की सफ़ेद पोषाकों पर रोशनी बिखेर रहे थे। स्टेज पर, भाषण-मंच के पास, काँच की कुर्सी पर भारी-भारी सांसें लेते हुए और भूरा पड़ते हुए एक प्लेट में बिल्ली के आकार का नम मेंढक विराजमान था। भाषण-मंच पर चिटें फेंकी गईं। उनमें सात प्रेम-पत्र थे, उन्हें पेर्सिकोव ने फाड़ कर फेंक दिया। त्सेकुबु का प्रमुख बड़ी कठिनाई से उसे घसीट कर मंच पर लाया ताकि वह लोगों का अभिवादन कर सके। पेर्सिकोव ने गुस्से से अभिवादन किया, उसके हाथ पसीने से तर-बतर थे और काली टाई ठोढ़ी के नीचे न होकर बाएँ कान के नीचे विराजमान थी। उसके सामने मानो सांसों की धुंध में लिपटे मौजूद थे सैकड़ों पीले चेहरे और मर्दों के सफ़ेद सीने, और अचानक पिस्तौल का पीला होल्स्टर कौंधकर सफ़ेद स्तम्भ के पीछे गायब हो गया। पेर्सिकोव को वह कुछ अस्पष्ट-सा नज़र आया और फिर वह उसके बारे में भूल गया। मगर भाषण के बाद बाहर निकलते हुए, सीढ़ियों के लाल कार्पेट पर अचानक उसकी तबियत बिगड़ने लगी। एक पल को लॉबी के जगमगाते झुम्बर पर कालिमा छा गई, और पेर्सिकोव को सब कुछ धुँधला नज़र आने लगा, उसका जी घबराने लगा।।।उसे बेहद गर्मी महसूस होने लगी, ऐसा लगा कि गर्दन में गरम, चिपचिपा खून बह रहा है।।।और थरथराते हाथ से प्रोफेसर ने रेलिंग थाम ली।

 “आपकी तबियत ख़राब है, व्लादीमिर इपातिच?” चारों तरफ़ से परेशान आवाज़ें आने लगीं।

“नहीं, नहीं,” पेर्सिकोव ने संभलते हुए जवाब दिया, “मैं, बस, बेहद थक गया हूँ, हाँ, एक ग्लास पानी मंगवा दीजिए।”


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