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गाँव - 3.4

गाँव - 3.4

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तूफ़ान और बर्फ़ीली बारिश , धुँधलके जैसे दिन, हवेली में कीचड़, जिस पर अकासिया के बारीक पत्ते बिखरे हुए थे, दुर्नोव्का के चारों ओर फ़ैले हुए दिखाई देने वाले खेत , पतझड़ में बोई गई फ़सलें और उनके ऊपर से गुज़रते हुए अन्तहीन बादलों का सिलसिला फिर इस शापित देश के प्रति घृणा से उसे निढ़ाल कर गए जहाँ आठ महीने रहते हैं बर्फ़ीले तूफ़ानऔर चार महीने बारिश; जहाँ ज़रूरत पड़ने पर खलिहान या चेरी के झुरमुटों के पीछे जाना पड़ता है फ़ारिग़ होने के लिए। जब ख़राब मौसम आ गया तो मेहमानख़ाने की खिड़कियों को लकड़ी के फ़ट्टों से बन्द कर देना पड़ा और हॉल में अपना डेरा जमाना पड़ा , जिससे पूरी सर्दियों में रातें भी वहीं गुज़ारें, खाना भी वहीं खाएँ, सिगरेट भी पिएँ और लम्बी शामें रसोईघर के टिमटिमाते लैम्प की रोशनी में एक कोने से दूसरे कोने तक घूमते रहें, टोपी और चुयका पहने, जो ठण्ड और झिरी से आनेवाली हवा से मुश्किल से बचा पाते थे। कभी-कभी ऐसा होता कि केरोसिन ख़त्म हो जाता और कुज़्मा बगैर रोशनी के साँझ गुज़ार देता और रात को कोई मोमबत्ती का टुकड़ा सिर्फ इसलिए जला देता कि आलुओं का सूप और गेंहूँ की गर्म लाप्सी खा सके, जिन्हें दुल्हन ख़ामोशी और सख़्त चेहरे से दिया करती। 

 “कहाँ जाऊँ ?” कभी-कभी वह सोचता।

आस-पास में पड़ोसी थे सिर्फ तीन : बूढ़ी राजकुमारी शाखवा जो कुलीनों के प्रतिनिधि को भी कभी घर में न आने देती, यह समझते हुए कि वह बदतमीज़ है; पेन्शनयाफ़्ता पुलिसवाला ज़ाक्रेझेव्स्की बवासीर जैसा दुष्ट, जो किसी को अपने घर की देहलीज़ पर भी खड़ा न करता; और आख़िर में छोटा व्यापारी बसोव,जो झोंपड़े में रहता था , जिसने गाँव की सीधी-सादी औरत से ब्याह किया था, जो सिर्फ घोड़ों की ज़ीन और मवेशियों के बारे में ही बात किया करता था। कलोदेज़ के पादरी फ़ादर प्योत्र ने जिसके अन्तर्गत दुर्नोव्का आता था, एक बार कुज़्मा से भेंट की थी,मगर पहचान आगे बढ़ाने की कोशिश न इसने की , न उसने। कुज़्मा ने पादरी का स्वागत सिर्फ चाय से किया। मेज़ पर समोवार को देखकर पादरी तीखेपन और असहज भाव से हँस पड़ा। “समोवार - बहुत बढ़िया! आप, मेरा ख़याल है , मेहमानों का दिल खोलकर स्वागत नहीं करते हैं।” मगर ये ठहाके उस पर ज़रा भी नहीं फ़बते थे : जैसे इस ऊँचे, दुबले-पतले, चौड़े कन्धों वाले, काले घने बालों और चंचल आँखों वाले आदमी के बदले कोई और ही हँस रहा हो।

भाई के पास भी कुज़्मा कम ही जाया करता। और वह भी सिर्फ तभी आता,जब किसी बात से परेशान होता। यह अकेलापन इतना आशाहीन था कि कभी-कभी कुज़्मा ख़ुद को शैतानी टापू का द्रेऊफ़स कह दिया करता। वह सेरी के साथ भी अपनी तुलना करता।, वह भी तो सेरी की ही तरह ग़रीब, कमज़ोर इरादे वाला , ज़िन्दगी भर काम के लिए किन्हीं अच्छे’ दिनों का इन्तज़ार करता रहा था। 

पहली बर्फ़ के बाद सेरी कहीं चला गया और हफ़्ते भर ग़ायब रहा। वापस लौटा, उदास।

“ओय, क्या फ़िर से रूसानव के यहाँ गया था ?”पड़ोसियों ने पूछा।

“गया था,” सेरी ने जवाब दिया।

“किसलिए ?”

“मना रहे थे काम करने के लिए।”

“अच्छा, तू नहीं माना ?”

“उनसे ज़्यादा बेवकूफ़ न मैं कभी था और न कभी बनूँगा।”

और सेरी, अपनी हैट उतारे बगैर बेंच पर बैठ गया, लम्बे समय के लिए। साँझ को उसकी झोंपड़ी की ओर देखने से दिल में टीस उठती है। झुटपुटे में चौड़ी बर्फीली खाई के पीछे दुर्नोव्का उदासी से गहराता अपने खलिहानों और आँगनों समेत। मगर अँधेरा हो जाता और बत्तियाँ जल उठतीं, ऐसा लगता, जैसे झोंपड़ियों में सुकून है,आरामदेही है। सिर्फ सेरी की अँधेरी झोंपड़ी बड़ी अप्रिय लगती। वह शब्दहीन , मृत थी। कुज़्मा जानता था कि अगर उसकी अँधेरी, अधखुली ड्योढ़ी में जाए, तो ऐसा लगेगा कि जैसे किसी जानवर की माँद में घुस आए हों। बर्फ़ की गन्ध,छत के छेदों से दिखाई देता साँझ का आसमान, खाद और पेड़ों के डण्ठलों को , जिन्हें यूँ ही बेतरतीबी से फेंक दिया गया था, छू कर सरसराती हवा, अन्दाज़ से टटोलते हुए दीवार ढूँढ़ते हो और दरवाज़ा खोलो तो पाओगे ठंंडा अँधेरा, अँधेरे में टिमटिमाती हुई बदहाल, बर्फ़ से ढँकी खिड़की।।।कोई भी दिखाई नहीं देता मगर अन्दाज़ लगा सकते हो : मालिक बेंच पर है, उसका पाइप चमक रहा है – जलते हुए कोयले जैसा; मालकिन – शान्त, ख़ामोश और कुछ पगलाई-सी औरत, हौले से चर्र-चूँ करते झूले को हिला रही है, जिसमें निस्तेज, भूख से उनींदा, हड्डियों के ढाँचे जैसा बच्चा झूल रहा है। बच्चे हल्की-गर्म भट्ठी के ऊपर जमा हो गए होंगे और फुसफ़ुसाते हुए एक दूसरे से कुछ कह रहे होंग़े। फ़ट्टों वाली चारपाई के नीचे सड़े हुए फूस में सरसर कर रहे हैं बकरी और सुअर का पिल्ला , अच्छे दोस्त। ग़ज़ब का झुकना पड़ता है जिससे सिर छत से न टकरा जाए। मुड़ो तो बहुत सँभलकर : दहलीज़ के सामने वाली दीवार तक की दूरी है सिर्फ पाँच कदम।

“कौ SSन है ?” अँधेरे से दबी हुई आवाज़ सुनाई देती है। 

“मैं।”

“कुज़्मा इल्यिच तो नही ?”

“हाँ, वही।”

सेरी सरक जाता है, बेंच पर जगह बना देता है। कुज़्मा बैठ जाता है,सिगरेट पीने लगता है। धीरे-धीरे बातचीत शुरू होती है। अँधेरे का मारा सेरी सीधा-सादा, दुःखी है, अपनी कमज़ोरियों को कुबूल करता है। कभी-कभी उसकी आवाज़ काँप जाती है।

सर्दियाँ आईं, लम्बी, बर्फीली।

नीचे, धुँधले आसमान के नीचे हल्के सफ़ेद खेत और भी ज़्यादा चौड़े, बड़े और ख़ाली प्रतीत होने लगे। पहली बर्फ़ के बाद झोंपड़ियांं , छपरियाँ, विलो वृक्ष के झुरमुट, खलिहान स्पष्ट दिखाई देने लगे। फ़िर आए बर्फ़ीले तूफान वे इतनी बर्फ़ डाल गए,इतना सफ़ेद कर गए, कि गाँव उत्तरी भागों का जंगली प्रदेश लगने लगा, सिर्फ दरवाज़े और खिड़कियाँ काली नज़र आने लगी जो बर्फ़ की सफ़ेद मोटी चादर और सफ़ेद टोपियों के नीचे मुश्किल से नज़र आती थीं।

तूफ़ानों के बाद भूरी कड़ी बर्फ़ से ढँके खेतों से होकर चलने लगीं तेज़ हवाए, नोंचकर ले गईं चीड़ के छायाहीन झुरमुट से बचे-खुचे कत्थई पत्ते; बर्फीली दुर्गम राहों पर, ख़रगोश के पैरों के निशानों को चीह्नते हुए निकल पड़ा अद्नाद्वोर्त्सी का तरास मिल्याय, जो हमेशा शिकार का शौकीन रहा है; पानी की गाड़ियाँ बर्फ़ के ढेर में बदल गईं, पोखरों के चारों ओर फ़िसलनभरे बर्फ़ के टीले बन , रास्ते बर्फ़ की चट्टानों पर फ़िसलते और सर्दियों वाली ज़िन्दगी शुरू हो गई। गाँव में महामारियाँ फ़ैलने लगीं :चेचक, फ्लू, लाल बुखार।

गन्धाते काले-हरे पानी के पोखरों पर बनाए गए बर्फ के गड्ढों के पास, जहाँ से सारा दुर्नोव्का पानी पीता था, पूरे दिन खड़ी रहती थीं औरतें – झुकी हुई, अपने लहँगे भूरे नंगे घुटनों के ऊपर दबाए, गीले फूस के जूतों में, सिरों पर शॉल लपेटे। वे लोहे के राखवाले तसलों से निकालतीं अपनी भूरी कमीज़े, मर्दों की भारी-भारी पतलूनें, बच्चों के गन्दे कपड़े,उन्हें खंगालती, मोगरियों से पीटतीं और एक दूसरे से कहती रहतीं कि उनके हाथ ठण्ड के मारे सुन्न हो गए हैं, कि मात्यूतिनों के यहाँ दादी बुखार से मर रही है, कि याकव की बहू का गला सूज गया है, तीन बजे अँधेरा होने लगता, झबरे कुत्ते छतों पर बैठे रहते, जो करीब-करीब बर्फ के टीलों जितनी ही ऊँची थी। कोई भी नहीं जानता था कि ये कुत्ते खाते क्या हैं। मगर वे ज़िन्दा थे और खूँखार भी।


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