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Nishi Singh

Tragedy

4.2  

Nishi Singh

Tragedy

हंशा

हंशा

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हंशा एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म ली, जन्म के साथ ही मानो उस पर पहाड़ टूट पड़ा।

माँ का साया उसके सर से उठ गया। पिता की लाडली यह बिन माँ की बच्ची अपनी दादी माँ की छत्र-छाया में बड़ी होने लगी।

दादी माँ से ढेरों कहानियाँ सुनती और घंटों आकाश के तारों से बातें किया करती। यह सिलसिला सालों तक चलता रहा पर अब हंशा बड़ी हो गयी थी। उसने किशोरावस्था पार कर युवा अवस्था में कदम रख लिया था। सही कहते हैं, समय बीतते देर नहीं लगती, वह नन्ही सी बच्ची अपने पिता के गोद से निकलकर जाने कब इतनी बड़ी हो गयी पता ही नहीं चला।

दादी की भी उम्र ढलती जा रही थी। उसे दिन-प्रतिदिन यह चिंता खाई जा रही थी कि उसके बाद हंशा का ध्यान कौन रखेगा ? बिन माँ की बच्ची जाने कौन घड़ी इधर उधर ध्यान भटक जाये। दादी हमेशा कहती, इसके हाथ पीले कर दो ‘रामबाबू’ ज़माना खराब है और मई भी अब कितने दिनों की मेहमान हूँ, खुद के सामने अपनी लाडो का घर बसते देख पाऊँगी तो चैन से मर पाऊँगी।

पर पिता के आगे तो बेटियाँ हमेशा छोटी ही रहती हैं।” माँ की बात रखने के लिए वो बोल देते, हाँ माँ देखता हूँ, जैसे ही कोई अच्छा रिश्ता दिखेगा, इसके हाथ पीले कर दूँगा। सच तो यह था की रामबाबू भी उसे खुद से दूर करना नहीं चाहते थे। उनको मन ही मन ये डर खाए जाता की उसके ससुराल चले जाने के बाद अकेलापन उनको खा जायेगा। बड़ा खराब हमारे समाज का कानून है, बेटी को भी माँ नौ महीने अपने पेट में रखती है, उतनी ही पीड़ादायी प्रसव पीड़ा सह कर इस दुनिया में लाती है, फिर भी ब्याह के बाद उन पर माँ–बाप का अधिकार नहीं रह जाता। बेटा बुढ़ापे का सहारा बनता है पर बेटी ताउम्र बोझ ही बनी रहती है। ये कैसा भेदभाव ? खैर छोड़िये मैं भी कहाँ खो गयी ?

दिन बीतते गए, अब रामबाबू का स्वास्थय थोड़ा ढीला पड़ने लगा, तब रामबाबू भी किसी अच्छे घर वर के तलाश में जुट गए। हमारे यहाँ बेटी का ब्याह कर लेना इतना आसान काम नहीं, जंग के मैदान में एक सिपाही जितना चिंताग्रस्त नहीं होता, उससे ज्यादा एक बेटी का बाप होता है। सबसे पहले तो लड़की की नुमाइश लगती है, नाक आँख रंग की परीक्षा होती है, फिर कुछ प्रश्न किये जाते हैं, फिर अंत में सबसे भारी मुद्दा दहेज़ कितना मिल रहा है ? भगवान की कृपा से हंशा बहुत ही सुन्दर थी, थोड़े बनाव श्रृंगार के बाद तो बिलकुल अप्सरा लगती थी। बड़ी-बड़ी आँखे, गोरा रंग, छरहरा बदन और मन को मोह लेने वाली उसकी मृदुल आवाज, पर रामबाबु ठहरे साधारण किराने की दुकान चलाने वाले आदमी, दुकान के सहारे उनकी रोजमर्रा की जरूरतें तो पुरी हो जाती पर बिटिया की शादी के लिए वो ज्यादा जोड़ नहीं पाए थे।

बड़ी मशक्कत के बाद उन्हें सब तरह से ठीक ठाक एक रिश्ता मिला। लड़का सरकारी स्कूल में शिक्षक था, माँ-बाप का इकलौता बेटा और लडके के पिता अवकाश प्राप्त शिक्षक थे। गाँव में पक्का मकान और ८ कट्ठा जमीन थी पर दहेज़ थोडा ज्यादा माँग रहे थे। रामबाबु ने सोचा कोई बात नहीं मैं अपनी दुकान गिरवी रख देता हूँ, लड़की तो खुश रहेगी दुकान धीरे - धीरे छुड़ा लूँगा। ब्याह तय हो गया, बारात सज के दरवाजे पे आ गई पर कुछ रकम रामबाबु अब भी नहीं जुटा पाए। फिर भी किसी तरह हाथ जोड़, मिन्नतें कर शादी संपन्न हुई और हंशा अपने ससुराल को विदा हो गई। मन में कई आशाएँ और आकांक्षाएँ लिए वह ससुराल की दहलीज पर कदम रखी, पर विडम्बना तो देखो हम हर वर्ष लक्ष्मी पूजा करते हैं, दुर्गा पूजा करते हैं, देवी आह्वान करते हैं, पर एक लक्ष्मी रूपी बहू ससुराल आती है तो उसमें ढेरों कमियाँ निकालते हैं।

हंशा के साथ पहले ही दिन से बुरा व्यवहार शुरू हो गया। हद तो तब हो जाती जब उसका पति भी उसे जली कटी सुना देता। हंशा की स्थिति उसके ससुराल में एक वस्तु जैसी थी, उसके मन में उठने वाले सवालों का निदान करने वाला कोई नहीं था। एक लड़की अपना सब कुछ छोड़ कर पति के भरोसे अपने ससुराल में कदम रखती है। अगर उसका पति ही उसकी भावनाओं को ना समझे, तो फिर क्या।

वो अपनी दादी और पिता के साथ बिताये अच्छे दिनों के सहारे दिन व्यतीत करने लगी। वो सब कुछ चुपचाप सहती ,पड़ोस की ढेरों औरतें बैठ जाती और चर्चा शुरु हो जाती। अरे काकी तुम अगर मेरे कहे हुए जगह शादी करती तो बिटवा को दहेज़ में ढेरो रूपए मिलते बेचारा पैदल स्कूल जाता है, उसके बाप से कहो कम से कम एक स्कूटर ही दिला दे। मुआ इतना भी अपने दामाद के लिए नहीं कर सकता क्या ?

हंशा बेचारी चुपचाप सुनकर घुटती रहती। दहेज़ कम मिले तो बहू चाहे कितनी भी गुणवान हो उसमें सैंकड़ों कमियाँ आ जाती हैं। इसी तरह समय बीतता गया। अब ताने मानो हंशा के जीवन का हिस्सा बन गए थे। हंशा भी अब इसको किस्मत मान चुकी थी। वो चाह कर भी अपने घर नहीं जा पाती। बस किसी तरह उसको अपने घरवालों की खबर मिल जाती थी।

उधर रामबाबु भी काफी बीमार रहने लगे थे, अकेलापन तो अच्छे-अच्छों को तोड़ दे। वो अपनी बेटी से मिलने जाते पर हंशा की सास बाकी रकम होने की वजह से मिलने नहीं देती। वो अपना इतना सा मुँह ले कर भारी मन से लौट आते। दिन बितते गये, एक दिन हंशा को अपने पिता के गुजर जाने की सूचना मिली। वह अपने पिता के अंतिम संस्कार में भाग लेना चाहती थी पर उसकी सास का आदेश था की रामबाबु ने दहेज़ की सारी रकम नहीं चुकाई, इसलिए उसे जाने को नहीं मिलेगा। वह रोती रही, गिड़गिड़ाती रही, पर उस दिन क्रूरता ने अपनी हद पार कर ली थी।

उसके पति तक ने उसकी वेदना भरी पुकार नहीं सुनी। हंशा अब टूट चुकी थी, उसने अन्न-जल का त्याग कर दिया, पागलों की तरह घर के कोने में बैठी रोती रहती थी। अंततः वह ज्यादा दिनों तक इस पीड़ा को झेल नहीं पाई, उसने भी अपने प्राण त्याग दिए।

हंशा की यह मौत आकस्मिक थी या हमारे समाज की रची रचाई साजिश ? अगर अब भी हम इस दहेज़ रूपी राक्षस की ओर ध्यान न दिए तो न जाने कितनी हंशा बेमौत मारी जायेगी।


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