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सुखदीन

सुखदीन

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रिटायर्ड सिंह साहेब शाम को बरामदे में बैठ कर अपने छोटे से बगीचे और ठंडी हवा का आनंद लेते।

ठीक उसी समय एक भिखारी उनके बंगले की बौन्ड्री वाल से टिक कर आ बैठता।

धीरे धीरे दोनो में बात चीत का सिलसिला शुरु हुआ।

"क्या नाम है तुम्हारा"

"सुक्खू"

"भीख माँगते हो"

"हाँ बाबूजी, ये मेरा काम है"

भीख मांगना काम होता है क्या?"

"सारे दिन गली मोहल्ला घूमता हूँ, कोई दुत्कारता है कोई भीख दे देता है। चोरी तो नहीं करता।"

अब सिंग साहेब की पत्नी उसे शाम को खाना दे देती, और सिंह साहेब के कपड़े भी मिल जाते।

एक दिन वह अपने भीख से पैसे गिन रहा था।

सिंग साहेब ने पूछ लिया-- "कितना कमा लेते हो"

"आज तो पचास के करीब है बाबूजी, कभी कभी सौ भी मिल जाते है। कभी सौ से ज्यादा।"

"क्या करते हो इतने पैसों का, घर बार है नहीं।"

"जहाँ मैं रहता हूँ न, उस बस्ती में एक स्कूल चलता है। वहाँ एक बच्चा गोद लिया है, उसकी पढ़ाई, फ़ीस,ड्रेस, कॉपी किताब का

ख़र्चा उठाता हूँ, कम से कम एक सुखदीन पढ़ लिख कर आदमी बन जाएगा। मेरा नाम सुक्खू नहीं सुखदीन है बाबूजी"

कह कर चल दिया वो।



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