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चट्टान पर लकीरें

चट्टान पर लकीरें

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" तुम पत्थर की चट्टान पर क्या खींच रहे हो ?"

"लकीरें।"

"इससे क्या होगा ?

"चित्र बनेगा।"

"मूर्ख हो गया... चित्र बनाने के लिए कैनवास की जरूरत होती है... रंग और ब्रश की।"

"हाँ जानता हूँ।"

"फिर क्यों यह मूर्खता वाला काम कर रहे हो?"

"क्योंकि मेरे पास ऐसी चीजें नहीं हैं।"

"फिर तुम कभी भी चित्रकार नहीं बन पाओगे।"

"मुझे चित्रकार बनना कहाँ है... मैं तो अपने मन के भावों को इन पत्थरों पर उकेरता हूँ।"

"मैं तो कहता हूँ तुम चरवाहा हो... इस जंगल में मवेशियों को चराओ... इन फालतू कामों में अपने दिमाग को मत लगाओ।"

"तुम क्या करते हो और यहाँ क्यों आए हो ?"

"मेरा नाम नहीं जानते हो क्या ? देश में मुझे कौन नहीं जानता... मैं प्रसिद्ध चित्रकार हूँ। इस जंगल में भ्रमण के लिए आया हूँ।"

"अच्छा तो तुम अपने चित्र को बेचते हो... चित्रों के सौदागर हो।"

"हाँ मेरे चित्र लाखों-करोड़ों में बिकते हैं... देश-विदेश में सब जगह।"

"अच्छा तो तुम अपने चित्र बेचो... मुझे अपना चित्र बनाने दो ... मुझे प्रकृति को और सुंदर बनाना है।"

"अच्छा रुको ... हम साथ-साथ चित्र बनाते हैं... आने वाले सैलानियों को इससे कुछ संदेश मिल जाए तो हमारा प्रयास सार्थक समझो।

और वह भी उसके साथ पत्थर के एक टुकड़े को हाथ में उठाकर चट्टान पर कुछ रेखाएं उकेरने लगा।


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