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Kavi Vijay Kumar Vidrohi

Others

2.2  

Kavi Vijay Kumar Vidrohi

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दोषी कौन

दोषी कौन

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धृतराष्ट्र सरीखे बन बैठे, जो धर्मराज कहलाते थे ।
झूठे आश्वासन, वादों से, जनता का मन बहलाते थे । 
कुछ अच्छे दिन को रोते हैं, कुछ लोकपाल बिल फाड़ रहे । 
जितनों के करतल खाली हैं, वो संसद में चिंघाड़ रहे । 
*
पत्रकारिता तो जैसे, कोठे पे बैठी लगती है । 
इनके भ्रष्टप्रचारों से, सीने में आग सुलगती है । 
कितनी है नेकी और बदी, पैसों से तोला जाता है । 
जितने से सत्ता बनी रहे, उतना सच बोला जाता है ।
*
संविधान की हत्या ही, अब राष्ट्रभाग्य की रेखा है ।
नारीप्रधान इस देश में हमने, कांड दामिनी देखा है ।
इस देश में कन्याभ्रूणों को, कचरे में फेंका जाता है ।
ये देश जहाँ नवयुवती को, तंदूर में सेंका जाता है ।
*
ये एक अकेला देश विश्व में, जिसको माता कहते हैं ।
जितनी दुश्मन आबादी है, उतने तो कैदी रहते हैं । 
ये लोकतंत्र है दस्यु को, एकटूक जीत दिलवाता है ।
हैवान के जाये जैसों को, ये बिरयानी खिलवाता है । 
*
अरबों के घोटाले वाले, फिर से पद पर आ जाते हैं । 
“विद्रोही” के हिस्से में बस, थप्पड़, घूँसे हैं, लातें हैं । 
क्या इन कोरी रचनाओं से हम, देशप्रेम पा सकते हैं ? 
सच बतलाना, हममें कितने राष्ट्रगान गा सकते हैं ?
*
हम शर्म नहीं करते प्यारे, अपना अधिकार जताते हैं । 
दो रोज़ साल में माता के, सच्चे सपूत बन जाते हैं । 
किसको दोषी ठहराऐ यारों, क्या हम ज़िम्मेदार नहीं ? 
अंतरमन से प्रश्न करो, क्या हम थोड़े गद्दार नहीं ?

रचनाकार - ओजकवि विजय कुमार विद्रोही
* रचना के संबंध में सर्वाधिकार सुरक्षित*


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