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अन्तहीन प्रतीक्षा

अन्तहीन प्रतीक्षा

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दूर क्षितिज में डूबते हुए किनारे से टकरा कर नज़रें फिर वापिस लौट आईं, बड़े से तालाब के पास बने हुए उस छोटे से शिव मन्दिर के पास रेणु बैठ गई

दीवार से टिक कर। चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी, बहुत ही खूबसूरत किन्तु उदास सी। उसकी सब सहयोगी लेक्चरर्स चली गई थीं टहलने के लिए। वह यहीं रह गई। किसी को याद भी न रहा होगा। अपने अस्तित्व की इतनी अवहेलना शायद अब अखरती नहीं रेणु को। अपने आपको उन सबके बीच खो

देना कभी अच्छा नहीं लगा उसे। स्वयं को सदा एकान्त में ही पूर्ण पाती है वह। उन सबके अत्यधिक अनुरोध के कारण ही आ पाई वह यहाँ- चलो न, क्या करोगी? फिर दीपावली वेकेशन में तो घर पर ही रहना पड़ेगा। मिसेज श्रीवास्तव ने कहा था। स्वर में न जाने क्या था कि इनकार नहीं कर पाई वह।

हवा के एक शीतल झोंके ने वातावरण में ठंडक भर दी थी। रेणु ने शरीर में सिहरन महसूस की, उसने साड़ी को अच्छी तरह से लपेट लिया और तालाब में पड़ती हुई परछाइयों को देखने लगी। वे भी खामोश थीं पानी जो स्थिर था। उसका जीवन भी तो तालाब की तरह ही है अपनी सीमा में बंधा हुआ, मौन, स्थिर और स्पन्दनहीन। रेणु ने कुछ कंकड़ उठाकर जल में फेंक दिए जोर से। छपाक की ध्वनि के साथ लहरें वृताकार घेरे में फैलती गईं, अतीत की यादों की तरह। जब भविष्य स्वप्न देखना छोड़ दे,वर्तमान से कोई मोह न रह जाए तो यादें ही जीवन में अक्षय निधि बन जाती हैं।


प्रथम प्रणय की उस स्मृति में अब उतनी वेदना उतनी कसक उतनी अकुलाहट कहाँ? लगता है वह व्याकुलता उसके मन प्राण से निकल वातावरण में समा गई है। स्मृतियाँ प्रतिदिन धुँधली होती हुई मिट भी तो सकती हैं। कितना सहेज के रखती है वह उन यादों को, डरती है कहीं  बिखराव न पैदा हो जाए। नहीं तो इतनी रिक्तता को वह कैसे सह सकेगी।... ' रेणु, ओ रेणु' भैया ने उसे पुकारा था।

'हूँ ,क्या है ?'- वह पुस्तक में सिर झुकाए वैसे ही बैठी रही। 'उठ, दो कप चाय तो बना।'

'दो कप' वह चौंकी, किसी अपरिचित को सामने सामने देख संकुचित सी हो उठी वह। हाथ स्वत: ही उठ कर जुड़ गए थे। फिर वह तेजी से उठकर

चल दी थी रसोई की तरफ। वे दोनों कब चले गए चाय पीकर, वह जान ही नहीं पाई। और न जाने कब धीरे धीरे उनका घर मनीष का अपना घर हो गया। माँ पर तो मानो जादू ही कर दिया था मनीष ने। हर बात में उसका जिक्र, हर कार्य में उसकी सलाह लेना नहीं भूलती थीं वह। रवि भैया का वह दोस्त अनजाने ही घर भर को अपना बैठा था।

अरे, मनीष बेटा, तू यहीं रहने आ जाना, घर छोटा है तो क्या हुआ, तुझे खाने पीने की तकलीफ़ तो न होगी। माँ ने चाय का प्याला पकड़ाते हुए मनीष 

से कहा। सच माँ इच्छा तो मेरी भी है पर वह मेरा रूम पार्टनर है न, कहता है तू चला जाएगा तो मैं कैसे रहूँगा। मैं सिर पर डंडा लेकर बैठता हूँ तो वह पढ़ाई करता है इसीलिए। और फिर खाना तो मैं यहीं खाता हूँ। घर तो मेरा यही है वहाँ तो बस चार दीवारी, बस। माँ खिलखिला पड़ीं। बनाने के लिए बस मैं ही मिलती हूँ रे तुझे। क्या नहीं जानती, यहाँ तेरी पढ़ाई नहीं होगी। आर्किटेक्ट बन रहा है न तू। माँ ने धीर धीरे सब पता लगा लिया था। मनीष के पिता देपालपुर में स्कूल मास्टर हैं। वे उसे इंजीनियर बनाना चाहते हैं, इसीलिए यहाँ भेज दिया। माँ का स्वर्गवास बचपन में ही हो चुका। वह यहाँ अपने दोस्त के साथ

कमरा लेकर रहता है। दो चाचा भी हैं पर उनकी उसके पिता के साथ जरा भी नहीं बनती। जमीन जायदाद को लेकर सदा झगड़े होते रहते हैं। पिता

बिचारे सीधे साधे हैं। माँ की मृत्यु के पश्चात तो और भी विरक्त हो गए हैं। अब वही उनकी आशाओं का केन्द्र है। और भी न जाने क्या क्या ?


उफ, यह ठंड कितनी बढ़ गई है। रेणु ने दूर दूर तक नजर दौड़ाई कोई भी नजर नहीं आया। जाने कहाँ चली गईं ये लोग वह शॉल ले आती तो अच्छा था। माँ ने तो कहा भी पर वही नहीं मानी। अभी थोड़ी देर पहले बरसात हो चुकी है अब तो धूप भी निकल आई। मालव माटी की गंध भी कितनी सोंधी है भीनी भीनी और मृदु। संध्या समय की यह उतरती धूप कितनी प्यारी लग रही है। रेणु फिर पानी में पड़ती परछाइयों को देखने लगी यादों में डूबी...

.. क्रिकेट टेस्ट कामेंट्री आ रही थी। उफ, मुसीबत है यह कमेंट्री भी। रवि भैया और मनीष दोनों बड़े ध्यान से आँखों देखा हाल सुनने में लगे थे। बीच बीच

में इस तरह उछल पड़ते मानो मैच सामने हो रहा हो।

'क्या बात है, यार रवि, मैच हो तो इस तरह का। रेणुजी, इसी बात पर एक कप चाय और हो जाय। पाँव फैलाते हुए मनीष ने ऑर्डर ही दे दिया मानो,

वह उठ गई चाय बनाने के लिए। तीसरी बार चाय बना रही थी वह, अभी रवि भैया ने कहा होता तो सचमुच बिगड़ जाती पर मनीष..

चाय बनाते हुए दूर कहीं से मनपसंद गीत के बोल कान में पड़े तो झुंझला उठी वह? जाने कब खत्म होगा यह टेस्ट मैच?

चाय देकर माँ के पास बैठी रही देर तक अन्दर कमरे से आती जोर की हँसी ने ध्यान खींचा वहाँ पहुँची तो रवि भैया कह रहे थे...

'यह बरसात भी कमाल की है मनीष, आज का मैच भी ड्रा रहा।'

फिर उसे देखकर बोले-

'रेणु ,अगर भजिए खिला दो तो यहाँ भी बरसात का मजा आ जाए।' अचानक उसकी दृष्टि मनीष से मिल गई। मनीष के रहते हुए कुछ बनाकर

खिलाने में क्या तृप्ति नहीं होती उसे? मन में आए इस विचार को झटक कर रसोई की तरफ चल दी वह..मनीष बोलना तो कोई तुझ से सीखे,

एक बार स्टार्ट होता है तो ब्रेक ही नहीं लगता। रवि भैया कह रहे थे..'नहीं तो क्या, तेरे समान मौनी बाबा  बन जाऊँ। बस चार दिन की जिंदगी

है। सर्विस क्या खोजने लगा जैसे साइलेंसर ही लग गया। अरे भाई, न बोलने से सर्विस जल्दी मिलेगी क्या?' 'तू भी यार अजीब बात करता है,

अब देख न ग्रेजुएट हुए एक साल होने को आया अभी तक सर्विस का अता पता नहीं आखिर कब तक चलेगा ऐसे।' भैया सचमुच परेशान थे यह स्वाभाविक भी था उनकी सर्विस अब आवश्यक थी। बी ए कर वो एम ए कर रही थी वह ट्यूशन करना चाहती थी पर भैया ने मना कर दिया।.....


आकाश पर छाई रक्तिम आभा स्याह होने जा रही थी। ये सब पता नहीं अब तक क्यों नहीं आईं। पुल पर लगी ट्यूबलाइट्स अब जल उठी थीं। पानी

में पड़ती हुई उनकी परछाइयाँ काँप सी जाती थीं। ठंड बढ़ती जा रही है और अंधेरा भी घिरने को है। मन ही मन कुछ डर सा लगने लगा रेणु को। वह व्यर्थ ही यहाँ रुक गई चली जाती तो अच्छा था। शायद अब लौटने को ही हों सब...


उस दिन माँ पड़ोस में किसी के घर गई हुई थी। सात बज रहे होंगे। सब्जियाँ बन गई थीं। वह रोटी बना रही थी न जाने किन खयालों में खोई खोई सी। मनीष कब पीछे आकर खड़ा हो गया जान ही न पाई वह। तवे पर रोटी डाली ही थी कि अचानक मनीष ने बेलन उठा लिया था। वह चौंक गई थी।

..तुम लड़कियाँ भी सचमुच अजीब होती हो। किसने कहा है कि रोटी सदा गोल ही बनाई जाए।लाओ मैं बनाता हूँ कहते हुए मनीष ने छोटी सी रोटी बना एक ही दिशा में घूमा दिया देखो यह है अंडाकार रोटी और मनीष देर तक लगातार बोलता रहा वह मंत्रमुग्ध देर तक देखती रही  'क्या देख रही हो' मनीष ने पूछा, कुछ तो नहीं वह जल्दी से बोल उठी। दोपहर का वक्त था  एक बज रहा होगा वह कॉलेज से लौटी थी यूँ ही बिस्तर पर चुपचाप लेटी रही देर तक। फिर सिराहने रखे ट्रांजिस्टर को चालू कर दिया था उसने। शहनाई का स्वर गूंज उठा वैसे ही चुपचाप सुनती रही वह। 

'ओह तो शहनाई सुनी जा रही है..' मनीष प्रवेश करते हुए बोल उठा वह उठ कर बैठ गई थी। ट्रांजिस्टर की आवाज धीमी कर दी

'शहनाई सदा से ही पसंद है मुझे देखिए न, सारा चित्र सामने आ जाता है। बन्दनवारों से सजा घर, व्यस्त वातावरण, ढोलक पर पड़ती हुई थापें, सहेलियों के बीच सिमटी सिकुड़ी सी दुल्हन, तोरण तोड़ता वर और बजती हुई शहनाई....' आश्चर्य हुआ इतना कैसे बोल गई वह? 

'पर घर में तो अभी तक शहनाई नहीं बजी!' मनीष ने मज़ाक की टोन में कहा। 'बज सकती है अगर तुम चाहो तो' शब्द होठों तक आकर रुक गए।

उसके तेज कदम रसोई में आकर रुक गए, वह क्यों आ गई यहाँ? एक पुलक सी उसके मन में समा गई किसी तरह खुद को संभाल कर पानी

रख दिया था चाय का कमरे में वापस लौटी तो रवि भैया आ गए थे। उन्हें बैंक में सर्विस मिल गई थी किन्तु भोपाल में। उन्हों ने बताया कि दो तीन दिनों में ही भोपाल जाना होगा। न जाने क्या हो गया उसे रोक नहीं पाई खुद को। आँखें डबडबा ही आईं।

'पगली कहीं की, इसमें रोने की क्या बात है। सर्विस तो आखिर करनी ही है। इन्दौर से भोपाल है ही कितनी दूर चार घंटे का ही तो रास्ता है हर शनिवार को यहाँ हाजिर रहूंगा। और फिर मनीष तो यहाँ है ही।' भैया ने उसे समझाने के लिए कहा। तभी माँ आ गई थीं। यह समाचार सुन बहुत खुश हुईं। वे जल्दी उन लोगों के लिए कुछ मीठा बनाने के लिए चल दीं। 'मनीष हम लोग अब अपना घर बनाएंगे उसका नाम रखेंगे' रेणु विला' हाँ और उसका डिजाइन मैं बनाऊंगा, आखिर मैं आर्किटेक्ट जो बन रहा हूँ, क्यों रेणु जी? किस सोच में डूबी हो। कला और साहित्य के विद्यार्थी यूँ ही खोए खोए से रहते हैं ठीक कह रहा हूँ न मैं रेणुजी।' वह बरबस मुस्करा दी थी। दो दिन बाद ही भैया चले गए थे। मनीष ने सचमुच भैया के अभाव को महसूस नहीं होने दिया। उसकी बातों

में कुछ इतना आकर्षण होता था कि बंध कर रह जाती थी वह? कितना बोलता था वह? उसी वर्ष उसने एम ए कर लिया था। लेक्चरर शिप के लिए फार्म भर दिया था। इंटरव्यु का लेटर आया था तो माँ ने मनीष से कहा था--

'रेणु के साथ चले जाना बेटा अच्छा रहेगा' 'तो अब लेक्चरर बनने का इरादा है।'- मनीष ने कहा

मनीष के भरसक प्रयत्नों से वह सेलेक्ट भी हो गई। उस दिन सुबह से ही कॉलेज जाने की तैयारी कर रही थी। वह पहला दिन था मन में खुशी भी थी और भय भी।

'हेलो मेडम, क्या हो रहा है?'- यह मनीष की आवाज थी, वह झल्ला गई थी इस सम्बोधन पर।

'अरे इसमें इतना गुस्सा क्यों? जब मैडम बनने जा रही हो तो लोग कहेंगे ही' और न जाने कितनी हिदायतें दी थीं मनीष ने वह तन्मय होकर सुनती जा रही थी सबकुछ। डर भी कुछ कम हो रहा था इन बातों से। 'अरे आज रवि का पत्र आया है मेरे पास'- रवि ने सहसा कहा

'कहाँ है?'

'मेरे कोट की जेब में है निकाल लो।' उसने कोट की जेब में हाथ डाला पत्र निकालने के लिए तो पत्र के साथ साथ एक तस्वीर भी हाथ में आ गई किसी लड़की की...कौन होगी यह? अवसन्न सी हाथ में फोटो को लिए देखती रह गई वह मनीष को। चेहरे पर निर्वीकार सारल्य ही नजर आया।

'अरे यह फोटो तो उर्मि की है पिताजी ने भेजी है पसंद करने के लिए, बुलाया भी है दो दिनों के लिए अब जाना ही पड़ेगा' कहीं भी तो कुछ नहीं उफ! मनीष 

काश! तुम जान सकते, समझ सकते कि क्या कह रहे हो तुम अपने आप को संभाल न सकी वह लड़खड़ा कर वहीं बैठ गई, मनीष माँ से न जाने कहाँ कहाँ की बात करता रहा उसने न सुना न जाना 'रेणु तुझे जाना नहीं है क्या?' माँ ने उसे सचेत करते हुए कहा, ओह! संयत सी हो वह उठी और चल दी कॉलेज की ओर पर वह खुशी, वह उत्साह जैसे समाप्त हो चुका था सदा सदा के लिए।

कुछ महीने बाद ही मनीष के विवाह का निमंत्रण पत्र उसके हाथ में था। भैया और माँ ने बहुत कहा शादी में जाने के लिए वह जा ही न सकी। दो आँसू ही तो बहा सकी थी वह अपने विगत प्रेम पुष्प पर।...

आज पूरे पाँच वर्ष बीत गए वह वहीं है जहाँ उस दिन थी घर और कॉलेज का एक चक्र सा है जो अपनी निश्चित धुरी पर चलता आ रहा है कहीं कोई

मोड़ नहीं कोई बाधा नहीं। वे सुहावने दिन घंटियों की मधुर आवाज की तरह समय की घाटियों में गुम हो चुके हैं क्या यही उसकी कहानी का अन्त है उसे लगा वह सचमुच उर्मिला है विरहनी उर्मिला चौदह वर्ष कभी व्यतीत नहीं होंगे सौमित्र कभी नहीं आएंगे वह यूँ ही राह देखती रहेगी अन्तहीन प्रतीक्षा।

सांझ ढले बहुत देर हो सकी थी वह उठ कर चल दी अपने आपको खोने के लिए उस भीड़ में ,कोलाहल में।


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