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माँ आपको उड़ना सीखा दूँ

माँ आपको उड़ना सीखा दूँ

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रति ने जब से होश संभाला अपनी मां को फिरकी की तरह घर में घूमते हुए देखा। रसोई से एक कमरा, कभी दूसरा कमरा, कभी तीसरा। सबका ध्यान रखती हुई अपने लिए जीने की कोई वजह नहीं थी बस दूसरों के लिए जीना उसका संसार था।

ताऊजी ताई जी नौकरी करते थे। दादी, बाबा भी घर में ही रहते। मां सुबह उठ जाती और सबसे पहले नहा धोकर पूजा कर कर और रसोई में चली जाती। मेरी जब आंख खुलती तो कुकर की सीटी सुनाई दे रही होती। उसके बाद किस को क्या पसंद है और क्या नहीं, वह सब जानती थी।

सुबह उठते ही दादी, बाबा और सबको चाय पीनी थी तो बनाकर सबको चाय पकड़ा थी और दौड़कर तेज कदमों के साथ रसोई में आ जाती। उसके बाद सब को नाश्ता देना और जो नाश्ता नहीं करके जा रहा उसके हाथ में टिफिन पकड़ा देना। कोई ऐसा नहीं था कोई भूखा चला जाए पर मां को सब के बाद ही कुछ खाना था और मै बोलती भी तो वह अपना ध्यान कभी नहीं रखती।

 जब मैं थोड़ी बड़ी हुई तब मैंने मां को अपने साथ कुछ कौर रोटी के खिला देती और मां मुस्कुराती हुई फिर काम पर लग जाती। मैं स्कूल चली जाती और लौट कर आती तो मां की आंखों में नींद दिखती, कपड़े आयरन कर रही होती। मां की जिंदगी रसोई से घर कमरों तक ही सीमित रह गई थी।

और मैं हमेशा सोचा करती थी मैं थोड़ी बड़ी होंगी तब मैं मां को यह सब कुछ नहीं करने दूंगी। बाबा तो बाहर नौकरी करते हैं, घर में मां का सहारा कोई नहीं था। मैं बहुत छोटी थी तो सहारा भी ना बन सकती थी। मेरी छोटी छोटी बातों से एक मुस्कुराहट आती थी। पिताजी फौज में थे और वहीं से ही कुछ पैसे घर के लिए भेजा करते थे। साल भर में एक या दो बार आते हैं थोड़े दिन के लिए और एक मुस्कुराहट छोड़ जाते उनको याद करके ही हम दोनों पूरा साल बिता लेते।

त्योहार पर तो वह कभी होते ही नहीं थे पर हमेशा मैं उन्हें चिट्टियां लिखा करती। जब से बड़ी हुई और मां से पूछती कुछ लिख दूं क्या तो मां बोलती चल हट तू लिख दे सब ठीक है। और मुस्कुरा देती।

कुछ दिन के बाद जो कभी सपने में नहीं सोचा था। वही हुआ फौज से पापा के ना होने की खबर आई, पापा दुनिया छोड़कर जा चुके थे। मां तो जैसे अचेत हो गई थी। ना उसे खाने की सुंदरता, ना पीने की। धीरे-धीरे समय बीत रहा था और मां वैसी की वैसी बस वह सब के लिए फिरकी की तरह घूम रही थी। अपने आंसुओं को दबाकर अकेले मैंने उसे बहुत बार रोते हुए और बहुत जोर जोर से चिल्लाते हुए सुना।

मन में जो वह ना कर पाई थी वह बोलना चाहती थी। मैं मां के पास जाकर उनकी गोदी में दो चिपक जाती और उन्हें गले लगा लेती और मां मुझे कस के पकड़ के रोती और खूब रोती। अब मैं 12वीं क्लास में आ गई थी। मैंने 12वीं कक्षा पास कर ली थी फर्स्ट डिविजन से और मैं भी कुछ समझ गई थी पर मां मुझे डाक्टर बनते देखना चाहती थी। सारी रात जाग जाग कर मुझे कॉफी,चाय देती। सुबह जल्दी उठा देती पढ़ने के लिये कहती, बस जरा सी मेहनत ज़िन्दगी सफल।

मुझे आलस आता, सुबह तो सोचती कि माॅ॓ को तो ठीक से सोना भी नहीं मिलता वो उठ गई तो मैं क्युं नहीं ? बहुत पढ़ना था मुझे। 12 वीं कक्षा पूरी करते ही मैंने मेडिकल पास किया। मां ने  मन्दिर मे चढ़ाने के लिए मिठाई बना कर सब जगह बांटी थी। पहली बार बाबा के जाने के बाद मुस्कुराहट देखी।

नौकरी कर ली और मां का ब्यूटिशियन कोर्स में एडमिशन दिला दिया। शहर के सबसे अच्छे ब्यूटीशियन कोर्स में। मुझे मां को उस गृहस्थी से निकाल कर कुछ बनाना था। मा मान नहीं रही थी और मैं जिद पर अड़ी थी। मैंने मां को अपनी कसम देते हुए कहा मां अब तुम यहां पर पापा नहीं है अब तुम्हें सब के लिए काम करने की इतनी जरूरत नहीं। अब आपको अपने लिए कुछ करना है।

आप रसोई घर सब से बाहर निकलो बहुत बोल रही थी मैं। मां ने मेरे एक थप्पड़ लगा दिया था। नहीं तो क्या बोलती जा रही है यह मेरे अपने हैं। मां रोते हुए कह रही थी। नहीं मां आपको कोई किसी ने बैठकर खाना खिलाया क्या ? जब से पापा गए हैं तब से और पूरी जिंदगी से यही तो करती आ रही हो सबका ध्यान रखना और कोई आपका ध्यान कभी रख पाया।

किसी ने कोशिश नहीं की। तुमने मुझे उंगली पकड़कर चलना सिखाया ना आज मैं तुम्हें उड़ना सिखाऊंगी और सब घर वाले खिलाफ थे। कोई तैयार नहीं था। घर का काम कैसे होगा ? घर कैसे चलेगा ? मैं भी पूरी तरह अड़ गई थी। मां रोए जा रही थी और मना कर रही थी मैंने भी अपनी कसम दे दी थी और घर छोड़ने जाने की धमकी भी। मां को बहुत कहने के बाद मानना पड़ा और अगले दिन मां को मैं छोड़कर भी आई।

पर मां का नियम जो सबके लिए वहीं रहा। उसमें उसे खुशी मिल रही थी तो सोचा जब मैं अपने पैरों पर खड़ी पूरी तरह होउंगी तब मां को कुछ नहीं कर ने दूंगी। ये मेरा मेरे से वादा रहा।

ब्युटिशियन का कोर्स से लौटने के बाद मां के चेहरे पर एक अलग सी खुशी थी। उनकी सहेलियां बन गई थी और वह मुझे पूरे रास्ते यह बताती कि सब कितने अच्छे हैं और सब ने कितना अच्छे से मुझे समझाया और उनको।

मैंने इसलिए कि उनका ध्यान घर गृहस्थी से हटाकर कुछ अपने लिए जीने की उम्मीद जगा दी  थी जो पापा के बिना बिल्कुल खत्म हो गई थी। सरकारी मेडिकल की वजह से कम खर्चा था मेरा। घर के थोड़े दूर पर था इत्तेफाक से मिल गया। शायद भगवान को तरस आ गया था।

और आज मैंने यह सोच लिया था। मैं ट्युशन कर रही थी और पापा की थोड़े पैसों को जोड़ कर मैं मां को ब्यूटी पार्लर खुलवाऊंगी और मां को अपने लिए जीना सिखा दूंगी।

समय बीत रहा था और मां के पंख खुलने लगे थे और मां उड़ने के लिए तैयार थी।

अगर एक औरत चाहे तो आगे बढ़ सकती है उसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती बस जरूरत है एक पहल की।


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