ये मोह मोह के धागे
ये मोह मोह के धागे
चाकू की तेज धार ने नीबू की जगह स्नेहा की ऊँगली काट दी। खून की एक पतली लकीर के साथ साथ स्नेहा की चीख भी बह निकली। निखिल तेज़ी सें आये और स्नेहा की ऊँगली से बहते खून और दूर पड़े नीबू को देख सारा माजरा समझ कर बोले, “कोई एक काम तो ढंग से किया करो ! बाहर 4 लोग खाने पर बैठे है और तुम, अब जल्दी से इस पर पट्टी बांध कर सलाद लाओ ।“ न चाहते हुए भी बरबस ही स्नेहा की आँखों सामने वो एक चेहरा घूम गया जिसने जरा सी ब्लेड लग जाने पर अपनी कसम दे कर ३ दिन तक स्नेहा को कुछ करने नही दिया था।
रविवार की शाम थी। स्नेहा अपनी खिड़की से पार्क में खेलते बच्चो में अपना खोया हुआ कल देख रही थी। पीछे से निखिल की आवाज आई, “स्नेहा अब तुम बड़ी हो गयी हो गयी हो, बच्चो के खेल देखने में नही घर सम्हालने में मन लगाओ, और हां अभी अपने बच्चे के लिए जिद पकड कर मत बैठ जाना, जब तक मेरा प्रमोशन नही हो जाता हम अपना परिवार नही बढ़ा सकते।”
फिर से वो चेहरा स्नेहा के सामने आ गया जो कहा करता था, “तुम बहुत मासूम हो किसी बच्ची की तरह, जानता हू तुम्हे बच्चे पसंद है तुम बोलो तो सही कल ही एक बच्चा गोद ले लेते है।”
स्नेहा ने पढने के लिए जैसे ही लाइट जलाई निखिल का स्वर गूंज उठा, “ये पढाई लिखाई दिन में कर लिया करो, मै बहुत थका हू, ये लाइट बंद करो और मुझे सोने दो।
फिर से स्नेहा के सामने वो चेहरा था जो ३५० किलोमीटर दूर होने पर भी तब तक नही सोता था जब तक स्नेहा अपनी पढाई पूरी नही कर लेती थी। बदल बहुत देर से धरती को भिगो रहे थे, बारिश स्नेहा की कमजोरी थी।उसके कदमो ने खुद ब खुद उसे छत में ले जा कर खड़ा कर दिया। “स्नेहा क्या बचपना है, घर की बहुएं ऐसा नही करती, लोग क्या कहेंगे ? “
स्नेहा को याद आया वही चेहरा जिसके घर एक बार देर तक बारिश में भीगी थी वो। और उस ने खुद बना कर पिलाई थी चाय स्नेहा को ताकि न लगे उसे ठंड। देर तक सुखाता रहा था टावेल से स्नेहा के गीले बालो को।
आज स्नेहा ने अनसुना कर दिया था निखिल के शब्दों को उसने फैला दिए अपने हाथ ताकि वो समेट सके बारिश की एक एक बूंद को। दूर कंही बज रहे गाने के बोल स्नेहा के कानो तक पहुच रहे थे।